स्त्री-रत्नवीरांगना करुणावती
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स्त्री-रत्नवीरांगना करुणावती

by
Dec 22, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Dec 2012 15:38:09

 

महारानी करुणावती चित्तौड़ के महाराणा संग्राम सिंह की छोटी रानी थी। उसकी तेजस्विता और वीरता का बखान चारण और बन्दीजन घूम-घूमकर सारे राजपूताने में कर रहे थे। महाराणा का स्वर्गवास होने पर राजकुमार विक्रमादित्य और रत्न सिंह में युद्ध छिड़ गया, परन्तु कालान्तर में ही बूंदी के राजकुमार सूरजमल और रत्न सिंह में ऑबेर की राजकन्या के पाणिग्रहण के लिए विकट संग्राम हुआ, जिसमें राजकुमार रत्न सिंह मारा गया। राज्यसिंहासन पर विक्रमादित्य का ही आधिपत्य रहा, पर वह निकम्मा और कायर था। मेवाड़ के शासन की अव्यवस्था का लाभ उठाकर गुजरात के बादशाह बाहदुरशाह ने चित्तौड़ पर छापा मारा। विक्रमादित्य में इतनी शक्ति तो थी नहीं कि वह बहादुरी से सामना करे, और इधर असन्तुष्ट सैनिक बहादुरशाह से जा मिले। राजमाता करुणावती ने उन विद्रोही सैनिकों को बहुत फटकारा। सैनिकों के हृदय पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने करुणावती के सामने अपनी नंगी तलवारों की शपथ लेकर कहा कि 'हम जीते-जी यवनों को चित्तौड़ में प्रवेश नहीं करने देंगे।' महारानी इनके संचालन और सेनापतित्व का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेकर रणभूमि में काली की तरह कूद पड़ी और तलवार को यवनों का खून पिलाकर उसने उन्हें महावर की लता के समान इधर-उधर फेंक दिया। कई दिनों तक युद्ध होता रहा। बहादुरशाह की विशाल सेना काफी संख्या में मारी गयी और घायल हुई। पर धीरे-धीरे राजपूतों के भी पैर उखड़ने लगे।

अन्त में राजपूत सरदारों ने उस राजपूत बाला से कहा कि किले की कुंजी बहादुरशाह के पास भेज दी जाय। यह सुनकर रानी क्रोध से पागल हो गयी और उसने उन कायर सरदारों से कहा कि 'राजपूतों को इस तरह के वचन कभी नहीं कहने चाहिए। शेर खरगोशों के सामने कभी सिर नहीं झुका सकता। राजपूत शरीर में रक्त रहते शत्रु के सामने कभी आत्मसमर्पण नहीं करते।'

राजपूत शान्त हो गये। किसी को साहस नहीं हुआ कि वह महारानी का प्रतिवाद करे। इसी समय मुगलों और पठानों में युद्ध छिड़ गया था। दिल्ली के सिंहासन पर हुमायूं का अधिकार था। रानी करुणावती ने मुगल सम्राट को अपना 'राखी-बन्धु' बनाना चाहा। जिसे राजपूत स्त्रियां राखी भेजकर अपना भाई बनाती थीं, वह अपने को सौभाग्यशाली और गौरवान्वित समझता था। हुमायूं उन दिनों अपने प्रतिद्वन्द्वी शेरशाह से बंगाल में निपट रहा था। राखी पाते ही हुमायूं बंगाल की लड़ाई स्थगित कर चित्तौड़ की ओर चल पड़ा। पर उसके चित्तौड़ पहुंचने के पहले ही चित्तौड़ का सर्वनाश हो चुका था। किले पर पठानों का झंडा फहरा रहा था।

हुमायूं की प्रतीक्षा में कई दिन बीत गये। पठानों का दबदबा बढ़ता जा रहा था। तब रानी ने राजपूतों से ललकार कर कहा कि 'आप केसरिया बाना पहनकर रण में कूद पड़ें और हम स्त्रियां अग्नि की गोद में अपने-आपको समर्पित कर स्वर्ग में आपसे आ मिलेंगी।' वीर राजपूत दुश्मनों पर टूट पड़े। भयंकर मार-काट मच गयी। इधर राजपूत वीर शत्रुओं के प्राणों से खेल रहे थे और उधर वीर क्षत्राणी करुणावती तेरह हजार क्षत्राणियों के साथ जौहर की ज्वाला में कूद पड़ीं। रानी ने चिता पर बैठकर कहा कि 'क्षत्राणियों को सतीत्व और धर्म पर आपत्ति आने पर सदा इसी पथ का अनुसरण करना चाहिए।'

थोड़ी ही देर में जौहर की ज्वाला ने सबको अग्निरूप बना लिया। बहादुरशाह ने नगर में प्रवेश किया, वहां राख और हड्डियों के सिवा और कुछ नहीं था। इतने में हुमायूं भी पहुंच गया। उसने बहादुरशाह पर आक्रमण किया और उसे हराकर अपनी धर्मस्वरूपा बहन की मृत्यु का बदला चुकाया। फिर भी वह दुखी था कि बहन की रक्षा न कर सका।

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