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लक्ष्य देख लिया मैंने

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Dec 22, 2012, 12:00 am IST
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लक्ष्य देख लिया मैंनेखुली पड़ी थी किताब

दिंनाक: 22 Dec 2012 16:05:27

खुली पड़ी थी किताब

शिवओम अम्बर

प्रख्यात रंगकर्मी और साहित्य मनीषी श्री विमल लाठ की अभिनव नाट्यकृति है – 'खुली किताब' (प्रकाशक-अनामिका, 4, बिशप लेफ्राय रोड, कोलकाता – 700015, मूल्य – 150 रु.) को सुप्रसिद्ध साहित्य सर्जक डा. नरेन्द्र कोहली और मधुरिमा जी को समर्पित करते हुए विमल जी ने लिखा है- नरेन्द्र जी की कृतियों ने अपने इतिहास को समझने की नई ललक पैदा की। उनके 'स्वकथ्य' की कुछ पंक्तियां हैं – 'मुझे लगता है कि अपना गन्तव्य निर्धारित कर लेना जीने को अपेक्षतया आसान बना देता है। संसार में जन्म मिला है तो जीना है। जीवन कैसा हो, यह आप पर निर्भर है। आप अपनी आवश्यकताएं उसी प्रकार चुन लेते हैं जो आपको गन्तव्य की ओर ले जाती हैं। इन आवश्यकताओं में धन, परिवेश और मित्र-सभी शामिल हैं। परिस्थितियां तो हैं जो बहुत-कुछ आप पर हावी होती हैं। प्रत्येक दिन ही आप किसी घटना, किसी प्रसंग या किसी वाकये से होकर गुज़रते हैं। कई प्रश्न मन में घुमड़ते हैं। आसपास जो कुछ चल रहा है, वह आपको प्रभावित किये बिना नहीं रहता। यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है कि उसकी प्रतिक्रिया कैसी हो। बहुत-से वाकये साधारण  दिखते हैं जिनके बारे में अधिकांश लोग सोचते भी नहीं लेकिन हो सकता है कि यह साधारण-सा वाकया आपको गहरा भेद जाये, कई प्रश्न खड़े कर दे और आपको चैन से बैठने न दे। ……….भारतीय मनीषी ने कुछ मूल्यबोध दिये हैं जिनसे आप अपना परिष्कार करते चल सकते हैं। यहां तक कहा है – अमृतस्य पुत्रा:। सहेजा है- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। सहारा दिया है – सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् – अपने संघर्ष में तुम अकेले नहीं हो।”

इस नाटक में अलग-अलग दृश्य-बन्धों की परिकल्पना नहीं की गई है। एक ही दृश्य-बन्ध पर नाटक उद्घाटित होता है। समय और स्थान आवश्यकतानुसार बदल जाते हैं। पूरे नाटक में परिवर्तित होते दृश्य समय और समाज की विसंगतियों को उद्घाटित करते हैं। रचनाकार विविध चरित्रों के माध्यम से उन पर टिप्पणियां करता चलता हैं। नाटक की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें मात्र समस्याएं नहीं हैं, उनके समाधान भी हैं। तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में एक चरित्र हमेशा ऊहापोह में ही पड़ा रहता है, सही रास्ता दिखने पर भी उस पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसके विपरीत कुछ ऐसे जीवन्त और जीवटभरे लोग भी हैं जो अपने आपको उच्च आदर्शों के लिये समर्पित करने का संकल्प ही नहीं करते, उस संकल्प को क्रियान्वित भी करते हैं और फिर उनके जलते हुए दिये से दूसरे दीप भी जलने लगते हैं। यह नाटक एक चिन्तनशील मनस्वी के द्वारा समग्र राष्ट्र में सकारात्मकता का ज्वार जगाने की अभिनन्दनीय चेष्टा है। ……..समस्याओं को सामने लाकर उन पर प्रभावी टिप्पणी करने का एक उदाहरण यहां दृष्टव्य है-

संभ्रान्त जनों की एक पार्टी में संयोगवश सम्मिलित दो मित्रों में से एक उच्च समाज की महिलाओं का जिक्र आने पर कह बैठता है – ……..महिलाएं कहने से ये चिढ़ती हैं। 'लेडीज़' कहो, इन्हें खुशी होगी। हिन्दी से इन्हें नफरत है, इन्हें एक तरह का 'इन्फीरियॉरिटी कॉम्प्लैक्स' हो जाता है, हिन्दी बोलते कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा! अपने दुधमुंहे बच्चों तक से ये अंग्रेजी में बात करती हैं- एक कविता सुनोगे ? मूड है?'

दूसरा मित्र – 'जरूर। सुनाओ भी। तुम्हारे मुंह से कविता सुनने का आनन्द ही अलग है। वैसे भी बहुत दिन हुए तुम्हारी नई कविता सुने हुए।'

पहला मित्र – तो सुनो –            आज रात मुझे नींद नहीं आई।

गांव की युवती बहू ने

डेढ़ साल की कच्ची बच्ची को

ऊंट को कैमल और हाथी को एलिफेंट

कहकर अंग्रेजी रटाई।

मैं बिस्तर पर छटपटाता रहा

क्योंकि मैकाले

अपनी कब्र में गुनगुनाता रहा!

इस नाट्यकृति के अन्त तक पहुंचते-पहुंचते हम 'खुली किताब' के प्ररेणास्पद पृष्ठों से परिचित होकर जीवन को सार्थकता देने के सूत्र पाने लगते हैं। वे चरित्र, जिन्होंने आगे बढ़कर आदर्शों को जिया, अपनी सीमित शक्ति के बावजूद, परिवेश में परिवर्तन करने में, परिपार्श्व को बेहतर बनाने में सफल हुए और एक साधारण बुद्धिजीवी को प्रकट करने वाला पात्र अन्तत: समझ सका कि उससे गलती कहां होती रही –

'यही चूक हो गई मुझसे। मैं सिर्फ अच्छा आदमी बना रहा। कभी योजक नहीं बना, संसार के दांव-पेंच को बुरा-भला कहता रहा, उनसे दूर भागता रहा, अपने आपको सुलझा हुआ आदमी मानता रहा, लेकिन उन्हें दूर करने के लिये कभी कुछ किया नहीं, जबकि कुछ किया जा         सकता था।'

पटाक्षेप से पूर्व जीवन भर श्रेष्ठ कर्म को स्थगित करने वाला, केवल शुभ चिन्तन तक सीमित व्यक्तित्व अन्तत: खुली किताब के अम्लान अक्षरों को पढ़ पाता है, और फिर श्रेयस् के स्थगन की अपनी आदत को विसर्जित कर        पाता है –

नहीं, अब और नहीं

लक्ष्य देख लिया मैंने

खुली पड़ी थी किताब

मैं ही आंखें मूंदे पड़ा रहा।

जीवन भर भटका मैं

नहीं, अब और नहीं।

सर्वान्त में, भूमिका के शब्दों में श्री विमल लाठ को नूतन प्रयोगों के रंगशिल्पी कहकर पुकारने वाले सुधी समीक्षक डा. अरुण प्रकाश अवस्थी के शब्दों के साथ इस लेख को विराम देता हूं –

'विमल जी प्रखर राष्ट्रीय चेतना से सम्बद्ध हैं अत: ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्याओं को समाधान के साथ प्रस्तुत करना उनका स्वाभाविक आत्म-धर्म है। उनकी प्रत्येक नाट्यकृति संहार पर श्रृंगार, निराश पर आकाश एवं विकृति पर सुकृति की विजय का सानन्द उद्घोष है।

अभिव्यक्ति मुद्राएं

(पुण्यतिथि (30 दिसम्बर) पर

 स्व. दुष्यन्त कुमार का श्रद्धान्वित स्मरण)

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये।

 

खंडहर बचे हुए हैं इमारत नहीं रही

अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही।

हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया,

हमपे किसी खुदा की इनायत नहीं रही।

हमको पता नहीं था हमें अब पता चला,

इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही।

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