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गुजरात के विधानसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की जीत राष्ट्रवादी राजनीति की विजय है, जिसने कांग्रेस और सेकुलर ताकतों को बेनकाब कर दिया है कि किस तरह वे गुजरात में एक दशक से हिन्दुत्व विरोधी नफरत की राजनीति करती रही हैं। उन्हें गुजरात की राष्ट्रभक्त जनता के हाथों मुंह की खानी पड़ी है। गुजरात में भाजपा की जीत ने राष्ट्रीय राजनीति के सामने एक नई चुनौती प्रस्तुत की है जाति–मजहब के तुष्टीकरण की वोट राजनीति के दायरे से बाहर जाकर राष्ट्रवाद व जनता की खुशहाली के संवर्धन की। नरेन्द्र मोदी ने अपने राष्ट्रवादी वैचारिक अधिष्ठान व विकास की अवधारणा पर राजनीति को केन्द्रित करके गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की विजय की एक नई गाथा लिख दी है, जिसने पिछले दस वर्षों से गुजरात दंगों के बहाने कांग्रेस, सेकुलरों व तथाकथित मानवाधिकारवादियों की जमात द्वारा किए गए घिनौने दुष्प्रचार को धूल चटा दी। न तो पिछले चुनाव में मोदी को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा 'मौत का सौदागर' कहा जाना जनता को रास आया, और न अब राज्य के कांग्रेसी नेताओं द्वारा मोदी की जानवरों से तुलना किया जाना। लेकिन इससे यह अवश्य साबित हो गया कि चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस किस स्तर तक राजनीतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए नीचे गिर सकती है।
यह आश्चर्य ही है कि मोदी पर लगातार थोपी गई मुस्लिम विरोधी छवि को नकारकर न केवल मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भाजपा प्रत्याशियों को जबर्दस्त समर्थन मिला, बल्कि जनजातीय, युवा व महिला मतदाताओं का भी भरपूर समर्थन मिला और मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार भाजपा की सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस चुनाव में यह भी स्पष्ट हो गया कि जनता अपने दुख–दर्द में साथ खड़े होने वाले नेता व सरकार को चुनती है उसकी विश्वसनीयता के भरोसे, केवल नारे या तुष्टीकरण का दिखावा जनता का दिल नहीं जीत सकते। मोदी द्वारा मुस्लिम टोपी न पहनने या विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा एक भी मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा न किए जाने को लेकर सेकुलरों का बावेला किसी काम न आया और मुस्लिमों के बीच मोदी को 'खलनायक' बनाकर खड़ा करने के घृणित प्रयास भी व्यर्थ साबित हुए, क्योंकि मुस्लिम मन में भाजपा सरकार की सद्भावना, जाति–मजहब से ऊपर उठकर सबके हित में काम करने की ललक और उसका क्रियान्वयन गहरा प्रभाव छोड़ गए। जिस व्यक्ति की जाति का महज एक प्रतिशत वजूद राज्य में है, वह सबका नेता बनकर कैसे उभरा, यह आज की विद्वेषपूर्ण जातिगत राजनीति के सामने बड़ा सवाल है, जिसका उत्तर गुजरात में गत एक दशक का शासन दे सकता है। गुजरात की जनता ने इसी सच्चाई को जानकर फिर से उस पर मुहर लगाई।
वोट की समझौतापरस्त राजनीति कितनी घातक है, यह केन्द्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार व जम्मू-कश्मीर, उ.प्र. जैसी कई राज्यों की सेकुलर सरकारों के कामकाज और तौर-तरीकों से लगातार सामने आ रहा है, जहां सत्ता के लिए राष्ट्रीय हितों को भी ताक पर रखने से परहेज नहीं, लोक कल्याण की तो बात ही छोड़ दीजिए। गुजरात के भाजपा शासन ने दिखा दिया है कि सत्ता स्वार्थों से जुड़े ऐसे समझौतों को नकारकर भी न केवल सभी वर्गों का चहेता बना जा सकता है वरन् लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणाओं पर खरा उतरकर राष्ट्रहित की राजनीति का भी संपोषण किया जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी जिस राष्ट्रवादी वैचारिक अधिष्ठान पर खड़ी है, उसकी यह परिणिति है, वस्तुत: यह उसी की जीत है। जीत के बाद नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि पार्टी से नेता होता है, नेता से पार्टी नहीं। चुनाव परिणाम के बाद एक जनसभा में उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार न केवल लोकतंत्र में जनता की भूमिका का महत्व दर्शाते हैं, बल्कि सत्ता के अहंकार के सिर चढ़कर बोलने की प्रवृत्ति का भी निषेध करते हैं। यह राजनीतिक संस्कार व जन सरोकारों के प्रति समर्पण का भाव ही भारतीय जनता पार्टी का वैशिष्ट्य है, गुजरात ने पूरे देश को यह संदेश दिया है।
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