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महर्षि भरद्वाज व भगवान श्रीराम की तपोभूमि कुम्भ नगरी प्रयाग में सन् 2013 में लगने वाले कुम्भ का आगाज तो गत माह अखाड़ों के नगर प्रवेश से हो ही गया था। गत 6 दिसम्बर को कुम्भ क्षेत्र में भगवा वस्त्र धारण किये अखाड़ों के हजारों संन्यासियों व साधुओं का विहंगम दृश्य देखकर प्रयागवासी गद्-गद् हो गए और भारतीय संस्कृति की महानता का बखान करते दिखे। यह सुअवसर था कुम्भ क्षेत्र में सनातन धर्म की धर्म ध्वजा फहराने का। कुम्भ क्षेत्र में हर-हर महादेव, हर-हर-गंगे के जयकारों के साथ श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, आवाह्न व अग्नि अखाड़ों के महन्तों, संन्यासियों व साधुओं द्वारा संगम तट की रेती पर गुरुवार (6 दिसम्बर) को सनातन धर्म की धर्म ध्वजा फहरायी गई। इसके पूर्व अखाड़ों के आचार्यों ने परम्परागत तरीके से धर्म-ध्वजा का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पूजन किया।
धर्म ध्वजा फहराने के क्रम में सर्वप्रथम श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, उसके बाद आवाह्न और अन्त में अग्नि अखाड़े के सन्तों द्वारा धर्म ध्वजा फहरायी गयी। इस अवसर पर संन्यासी परम्परा में मातृ शक्ति के लिए स्थापित जूना अखाड़ा से संबद्ध 'माई का बाड़ा' की भी धर्म ध्वजा फहरायी गयी।
माई का बाड़ा– वैदिक काल से माताओं व बहनों के संन्यासिनी व्रत धारण कर साधनारत रहने की परम्परा चलती आ रही है। श्रीमहन्त हरिगिरि जी महाराज ने बताया कि हिन्दू संस्कृति में संन्यासिनी माताओं का स्थान हमेशा से बराबरी का रहा है। मुगलकाल में कुछ गिरावट जरूर आयी थी लेकिन 2007 के अर्धकुम्भ में सन्यासिनी माताओं द्वारा अपने अधिकार की मांग की गई। यहां तक कि महामण्डलेश्वर बनाने की भी बात आयी। इस बार के कुम्भ में संभावना है कि संन्यासी माताओं में भी किसी को महामण्डलेश्वर बनाया जाए।
कलश स्थापना– कुम्भ का अर्थ ही कलश होता है। हिन्दू संस्कृति में कलश को अत्यन्त मंगलकारी माना जाता है। इसलिए हर मांगलिक अवसर पर कलश या घट की स्थापना की जाती है। कुम्भ का अभिप्राय है- जगत कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कुत्सित दोषों को दूर करना अर्थात् पृथ्वी को मंगल से पूर्ण करने वाले को कुम्भ कहते हैं। इसीलिए धर्म ध्वजा फहराने से पूर्व संगम तट पर कलश भी स्थापित किया गया।
अलख दरबार – यह दरबार भी जूना अखाड़ा से सम्बन्धित है। इस दरबार के सन्तों ने भी कुम्भ क्षेत्र में धर्म ध्वजा फहरायी। इसके सन्त प्रमोद पुरी व चांद गिरि ने बताया कि अलख दरबार में अखाड़े से जुड़े सभी सन्तों व नागा संन्यासियों के भोजन व जलपान के लिए 24 घण्टे लंगर चलाया जाता है।
धर्म ध्वजा की परम्परा– अखाड़ा परिषद के मंत्री श्रीमहन्त हरिगिरि जी महाराज ने बताया कि सनातन धर्म की धर्म-ध्वजा की परम्परा आद्यकालीन व अतिप्राचीन है। प्राचीन काल में जब कुम्भ क्षेत्र में आद्यशंकराचार्य व संन्यासियों का प्रवेश होता था तो सबसे पहले धर्म-ध्वजा फहरायी जाती थी। वही परम्परा आज भी है। यह धर्म ध्वजा सनातन धर्म की विजय का प्रतीक है।
धर्म ध्वजा की विशेषता– 52 सिद्ध मढ़ियों के आधार पर धर्म ध्वजा की लम्बाई, चौड़ाई व ऊंचाई 52 हाथ की होती है। जिस पर धर्म ध्वजा फहरायी जाती है उस दण्ड की भी लम्बाई 52 हाथ की होती है। 52 सिद्ध मढ़ियों को आधार बनाकर उसमें जनेऊ की 52 गांठें लगायी जाती हैं। धर्म ध्वजा के शीर्ष पर 52 मोर पंख लगाने की भी परम्परा है। इस विशाल धर्म-ध्वजा के बीच में स्वास्तिक का चिह्न भी बना होता है। अखाड़ा परिषद् के मंत्री हरिगिरि जी महाराज ने बताया कि आद्य शंकराचार्य द्वारा चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये गये, दक्षिण में श्रृगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी, उत्तर में बदरीनाथ तथा पश्चिम में द्वारका। इनके साथ ही 52 मठियों की भी स्थापना की गयी। आज भी उसी परम्परा का साधु-सन्त पालन कर रहे हैं।
मढ़ियों की विशेषताएं :- मढ़ी का मौटे तौर पर अर्थ संन्यास परम्परा में प्रवेश व दीक्षा केन्द्र से है। सम्पूर्ण मढ़ियों की संख्या 52 है। इन 52 मढ़ियों में से 27 गिरि के अधिकार क्षेत्र में, 16 पुरी, 4 भारती, 4 वन और 1 लाम के अधिकार क्षेत्र में है। (हिन्दुस्थान समाचार)
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