ये मशालें अबन बुझनी चाहिए
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न बुझनी चाहिए
डा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय 'विजय'
ये मशालें अब न बुझनी चाहिए।
सिद्धि तक अविराम जलनी चाहिए।
देश को घेरे खड़े शत द्वन्द्व हैं
ले रहे हैं नाम मिटने का नहीं,
शस्त्र सीमा पर तने घातक कई
ले रहे हैं नाम हटने का नहीं:
मथ रही दिन–रात प्राणों में जगी
वेदना अविलम्ब मिटनी चाहिए।
ये मशालें अब न बुझनी चाहिए।
तान भौंहे देखना पर का इधर
यह खुला स्वातंत्र्य का अपमान है,
आंकना कमतर परीक्षित शक्ति को
मृत्यु का सीधा किया आह्वान है;
बुद्धि की यह बावली विपरीतता
सोच से तत्काल हटनी चाहिए।
ये मशालें अब न बुझनी चाहिए।
चेतना जग हो चुकी देखो खड़ी
राख उतरी एक चिनगारी कहें,
राजपथ पर कण्ठ से कढ़ गूंजती
भैरवी ही शास्त्र भाषा में कहें,
आग में यह काम घी का कर रही
ज्वाल धू–धू कर धधकनी चाहिए।
ये मशालें अब न बुझनी चाहिए।
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