उतर गये नकाब
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समदर्शी ने तो पहले ही लिख दिया था कि कुछ राजनीतिक दलों के नकाब उतरने का समय आने वाला है। महंगाई और एफडीआई सरीखे संवेदनशील मुद्दों पर कई दल दोगली राजनीति कर रहे थे। विरोध में बयानबाजी कर आम आदमी के हितैषी बनने का ढोंग भी कर रहे थे और अंदरखाने सरकार से भी मिले हुए थे। सरकार के इन जन विरोधी फैसलों के विरोध में भारत बंद हुआ तो उसमें द्रमुक भी शामिल था और समाजवादी पार्टी भी, जबकि द्रमुक खुद सरकार में शामिल है तो सपा बाहर से समर्थन दे रही है। बसपा भी बाहर से समर्थन दे रही है, जो भारत बंद में तो शामिल नहीं हुई, पर बयानबाजी में पीछे नहीं रही। अब जब 'मल्टी ब्रांड रिटेल' में 51 प्रतिशत एफडीआई के मुद्दे पर संसद में बहस के बाद मत विभाजन की नौबत आयी तो इन दलों के नकाब तार-तार होने में देर नहीं लगी। द्रमुक ने संसद के दोनों सदनों में सरकार के पक्ष में मतदान किया, तो सपा-बसपा ने लोकसभा से बहिर्गमन कर सरकार की मदद की। राज्यसभा में बहिर्गमन भर से काम नहीं चल सकता था, सो बसपा ने सरकार के पक्ष में मतदान किया और सपा सदन से बाहर चली गयी, ताकि उपस्थिति घटने से बहुमत का आंकड़ा नीचे आ जाये। लग ही नहीं रहा था कि यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद है। जिन दलों के सदस्य बहस में भाग लेते हुए एफडीआई को देश के लिए घातक बता रहे थे, वे ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के संकटमोचक बन रहे थे–मानो किसी बहु भूमिका वाली फिल्म में काम कर रहे हों। समदर्शी
सच तो कड़वा ही होता है
संसद न चल पाने के लिए अक्सर विपक्ष को कोसने वाली संप्रग सरकार जब शीतकालीन सत्र के पांच दिन दोनों सदन ठप कराने के बाद एफडीआई पर मत विभाजन के प्रावधान वाले नियम के तहत चर्चा के लिए आखिरकार तैयार हो गयी, तभी साफ हो गया था कि अल्पमत सरकार ने बहुमत का जुगाड़ कर लिया है। इस जुगाड़ के जरिये कौन से दल संकटमोचक बनेंगे, यह भी गोपनीय नहीं था, पर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की साफगोई अवसरवादी नेताओं से बर्दाश्त नहीं हुई। एफडीआई पर मतदान से ठीक पहले सपा-बसपा के बहिर्गमन पर सुषमा ने टिप्पणी की कि कुछ लोग एफडीआई से ज्यादा सीबीआई से डर गये। जाहिर है, उन्होंने कोई रहस्योद्घाटन नहीं किया था। उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक-दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले सपा-बसपा जिस तरह संप्रग सरकार की बैसाखी बने हुए हैं, उसका राज इन दलों के नेताओं के विरुद्ध लंबित सीबीआई जांच में छिपा है-यह तो पूरा देश जानता है, पर सच कड़वा जो होता है। सो, सुषमा की टिप्पणी पर मायावती बुरी तरह बौखला गयीं। उनकी यह बौखलाहट राज्यसभा में एफडीआई पर चर्चा के दौरान भी दिखी, जब वह मुद्दे पर कम और सुषमा व भाजपा के विरुद्ध ज्यादा बोलीं। मायावती ने यह तो कहा कि वह सीबीआई से नहीं डरतीं, पर यह नहीं बता पायीं कि फिर हाल तक एफडीआई का विरोध करने के बावजूद अचानक उसका समर्थन करने के पीछे का राज क्या है?
पवार की पार्टी की महिमा
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर बगावत कर अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने वाले शरद पवार किस तरह उसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में सत्ता की मलाई खा रहे हैं, यह सभी जानते हैं, लेकिन एफडीआई के मुद्दे पर तो दोगली राजनीति की हद ही हो गयी। राकांपा के कोटे से मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने लोकसभा में एफडीआई के पक्ष में जोरदार भाषण दिया, पर महाराष्ट्र में एफडीआई लागू करने के मुद्दे पर बोले कि राज्य में कांग्रेस-राकांपा की समन्वय समिति ही अंतिम फैसला लेगी। हद है, अगर 'रिटेल' में एफडीआई भारत के लिए ऐसी ही कल्याणकारी है तो फिर भला महाराष्ट्र में लागू करने से पहले सोच-विचार करने की जरूरत क्यों?
किसान के बेटे का कमाल
हालांकि कृषिभूमि अधिग्रहीत कर उद्योगपतियों और बिल्डरों को सौंपने का काम सबसे ज्यादा हरियाणा में ही हो रहा है, पर वहां के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा हैं कि खुद को किसान का बेटा प्रचारित करने का कोई मौका नहीं चूकते। जब पिता यह मौका नही चूकते, तो फिर भला बेटा कैसे चूके? सो, एफडीआई पर संसद में चर्चा के दौरान लोकसभा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के सांसद पुत्र दीपेंद्र भी बोले। आखिर आलाकमान की नजर में नंबर बढ़वाने के ऐसे मौके रोज-रोज तो नहीं मिलते, पर बोले तो अपनी कलई भी खुलवा बैठे। एफडीआई को किसान से लेकर उपभोक्ता तक ही नहीं, बल्कि 'पूरे देश की तकदीर बदलने वाली' बताते हुए 'जूनियर' हुड्डा ने दो फुट का आलू पैदा करने का दावा भी कर डाला। जाहिर है, पिता-पुत्र दोनों की ही किसान होने की कलई संसद में खुल गयी। पर दोनों इसी पर आत्ममुग्ध हैं कि उस समय सुनने के लिए लोकसभा में सोनिया और राहुल, दोनों ही बैठे थे।
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