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राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश की लोक संस्कृतियों का संगम वागड़ लोक परम्पराओं, सांस्कृतिक रसों और जन जीवन के इन्द्रधनुषी रंगों से भरा-पूरा वह अंचल है जहां लोकजागरण, समाज सुधार और स्वातंत्र्य चेतना की त्रिवेणी प्रवाहित होती रही है। आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से भले ही इस जनजाति बहुल दक्षिणांचल को पिछड़ा माना जाता रहा हो मगर आत्म-स्वाभिमान की दृष्टि से यह क्षेत्र कभी उन्नीस नहीं रहा। आत्म गौरव की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने का जज्बा इस क्षेत्र की माटी में हमेशा से रहा है। इसी का ज्वलन्त उदाहरण है मानगढ़धाम। राजस्थान और गुजरात की सरहदी पर्वतीय उपत्यकाओं में बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर अवस्थित मानगढ़धाम सामाजिक जागृति और स्वातंत्र्य चेतना के लिए लोक क्रांति का बिगुल बजाने वाला महाधाम रहा है जहां का जरर्ा-जरर्ा गोविन्द गुरु का पैगाम गुंजा रहा है। 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में जन्मे गोविन्द गुरु ने पढ़ाई-लिखाई के साथ ही सात्विक आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती व अन्य संत महापुरुषों के सान्निध्य में रहने का यह प्रभाव हुआ कि उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लोक जागरण और सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे समाज को उबारने के लिए राजस्थान, गुजरात व मध्य प्रदेश के सरहदी दक्षिणांचल वागड़ को कर्म स्थल बनाया और लोकचेतना का शंख फूंका। उन्होंने अपना आसन मानगढ़ पहाड़ी पर लगाने का निश्चय किया। इससे पहले बताते हैं कि कहीवाड़ा और फलवा गांव में गोविन्द गुरु के हाथ से धूनी स्थापित की गई। इस प्रकार मानगढ़ मुख्य केन्द्र हुआ जहां से क्षेत्र में अलग-अलग स्थानों पर धूनियां स्थापित हुईं जिनकी निशानी आज भी मौजूद हैं। गुरुजी ने 1903 में संप सभा नामक संगठन बनाया। मेल-मिलाप का अर्थ ध्वनित करने वाला यह संगठन सामाजिक सौहार्द स्थापित करने, कुरीतियों के परित्याग, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने तथा शिक्षा सादगी सदाचार व सरल सहज जीवन अपनाने की प्रेरणा वनवसी समाज में भरने लगा। इस संगठन ने आपसी विवादों का निपटारा पंचायत स्तर पर ही करने में विश्वास रखा तथा समाज सुधार की गतिविधियों को बल दिया। गोविन्द गुरु की संप सभा के आर्थिक सामाजिक आंदोलन के उद्देश्य थे शराब मत पीओ और मांस मत खाओ। चोरी डाका लूटमार मत करो। मेहनत से काम करो, खेती मजदूरी करके अपना जीवन बिताओ। गांव-गांव में पाठशाला खोलकर बच्चों व बड़ों में ज्ञान का प्रकाश फैलाओ। भगवान में आस्था रखो, रोज स्नान व हवन करो, नारियल की आहुति दो। अगर पूरी विधि से इतना न कर सको तो भी कम से कम गोबर के कण्डे पर घी की कूछ बूंदें डालकर हवन नियम निभाओ। अपने बच्चों को संस्कारित करो। गांव-गांव में घर-घर में कीर्तन व्याख्यान करो। अदालतों में मत जाओ और अपने गांव के झगड़ों में गांव की पंचायत के फैसले को सर्वोपरि मानो। किसी का भी अन्याय मत सहो, अन्याय का सामना बहादुरी से करो। स्वदेशी का उपयोग करो। देश के बाहर की बनी किसी वस्तु का उपयोग मत करो। ये सन्देश आज भी अमिट रहकर पीढ़ियों से लोक क्रांति के प्रणेता गोविन्द गुरु के प्रति आदर और अगाध आस्था बनाए हुए हैं। परिणामस्वरूप उनके अनुयायियों की तादाद लाखों में पहुंच गई। मानगढ़ धाम इन गतिविधियों का केन्द्र बना। मानगढ़ की एक पहाड़ी है। इस पहाड़ी पर प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन गोविन्द गुरु के अनुयायी मेले के रूप में इकट्ठे होते थे और विशाल धूनी में घी और नारियल चढ़ाते थे। गोविन्द गुरु ने भक्तों का आह्वान किया कि इस दुनिया को जितना जल्दी हो बदल देना चाहिए। अब नयी चुनौतियां सामने हैं। पूर्णिमा का दिन था उधर श्रद्धालु हाथों में नारियल व घी के कटोरे लिये पहाड़ी पर चढ़ते आ-जा रहे थे। स्त्रियां, बच्चे, बूढ़े, युवतियां सभी इस जन समुद्र में गाते बजाते शामिल थे। पुरुषों के कन्धों पर उनके धनुष बाण सुशोभित थे। सन् 1913 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा (कहीं-कहीं सन् 1908 का भी उल्लेख मिलता है) के दिन इसी मानगढ़ पहाड़ी पर लाखों वनवासी भक्तों का मेला जमा था, जहां ये सामाजिक सुधार कार्यक्रमों और धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे। चारों तरफ श्रद्धा और आस्था का ज्वार हिलोरें ले रहा था।
इतनी बड़ी संख्या में वनवासियों का जमावड़ा देख पहले तो तितर-बितर करने की कोशिश की मगर गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा और अपने मकसद को पाने के लिए पूरे जज्बे के साथ जुटे इन दीवानों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। इसी बीच अंग्रेजी फौज के नायक कर्नल शटन के आदेश पर रियासती व अंग्रेजी फौज ने पूरी मानगढ़ पहाड़ी को घेर लिया और गोलीबारी के आदेश दे दिए। तोप, मशीनगन और बन्दूकें गरजने लगीं और देखते ही देखते वनवासी भक्तों की लाशें बिछ गईं। जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर इस नरसंहार की दिल दहला देने वाली घटना का साक्षी है मानगढ़धाम। गोरे लोगों द्वारा ढाए गए जुल्म के इतिहास में मानगढ़ नरसंहार काले पन्ने की तरह है। धूनी में घी और नारियल चढ़ाने के लिए उठे भक्त अचानक निर्जीव होकर गिर गये। इससे पहले कि भक्त समझ सकें कि क्या हुआ सैकड़ों निर्जीव देह भूमि पर बिछ गयीं। प्रतिरोध का तो सवाल ही नहीं था। भील लड़ने नहीं, हवन में आहुति डालने आये थे किन्तु यहां तो कितनों को जीवन की ही आहुति देनी पड़ी। गोविन्द गुरु भी पांव में गोली लगने से घायल हो गए। यहीं उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अमदाबाद तथा संतरामपुर की जेल में रखा गया। जनसमूह को इकट्ठा करने, आगजनी तथा हत्या का आरोप मढ़ते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनायी गई। बाद में इस सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। फिर सजा को कम करते हुए 12 जुलाई, 1923 को उन्हें संतरामपुर जेल से इस शर्त पर रिहा किया गया कि वे कुशलगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर तथा संतरामपुर रियासत में प्रवेश नहीं करेंगे। गोविन्द गुरु सन् 1923 से 1931 तक भील सेवा सदन झालोद के माध्यम से लोक जागरण, भगत दीक्षा व आध्यात्मिक विचार क्रांति का कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर 1931 को लाखों भक्तों को अलविदा कह यह महान शख्सियत महाप्रयाण कर गई। गोविन्द गुरु यद्यपि आज हमारे बीच नहीं हैं मगर उनके उपदेश आज भी लाखों भक्तों के माध्यम से समाज में नई ऊर्जा और प्रेरणा संचरित कर रहे हैं।
वर्तमान में इस स्थल पर हनुमानजी, वाल्मीकि, भगवान राम, लक्ष्मण, सीता एवं गोविन्द गुरु की मूर्तियां स्थापित हैं। गोविन्द गुरु द्वारा स्थापित धूनी है जहां प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को हजारों देशभक्त श्रद्धा से नतमस्तक होते हैं, घी, नारियल आदि हवन में डालते हैं। महंत नाथूरामजी इस स्थान की देखरेख करते हैं। गुजरात तथा राजस्थान सरकार द्वारा दो सामुदायिक भवन बनाये गये हैं। यहां से भक्ति आन्दोलन का काम जारी है। लगभग एक शताब्दी बीतने के बाद भी इस अंचल के हर गांव, हर ढाणी में भक्ति आन्दोलन अब भी क्षमता और जरूरत से काम कर रहा है।
कहानी 'बाल की खाल' की
मध्य प्रदेश में 'बाल की खाल' नाम से एक अखबार अक्टूबर 2003 से निकलना प्रारंभ हुआ। इस अखबार के संपादक और प्रकाशक सुरेश नंद मेहर भी दूसरी पत्रिकाओं के संपादकों की तरह सुबह नौ से शाम छह बजे तक का समय अपनी पत्रिका को समर्पित करते हैं और शाम छह बजे के बाद वे जो जिन्दगी जीते हैं, वह जिन्दगी उन्हें दूसरे संपादकों से अलग बनाती है। शाम छह बजे के बाद वे अपनी 14 वर्ग फुट में बनी जूते की दुकान में बैठते हैं। जहां रात बारह बजे तक वे जूते सिलते हैं।
अखबार निकालना उनका जूनून है और जूते का काम दो जून की रोटी के लिए करते हैं। वे कहते हैं 'बाल की खाल' अखबार निकालने का मन उन 27 दिनों के धरना-प्रदर्शन के बाद बना, जो 1999 में रोशनपुरा (भोपाल) चौक पर सरकार द्वारा गुमटियां हटाए जाने के निर्णय के विरोध में किया गया था। लगभग एक महीने तक चले हमारे प्रदर्शन के संबंध में लिखने की जरूरत किसी अखबार ने महसूस नहीं की। हम लोग लगातार अखबारों के दफ्तर में गए। किसी अखबार ने हमारी खबर नहीं ली और हमारी बातों को नहीं उठाया। इस बात से मुझे ठेस लगी। उसी वक्त यह निर्णय लिया कि गरीब वंचितों-पिछड़ों के लिए एक अखबार निकालूंगा। जहां वह सब छपेगा, जिसे छापने से मुख्य धारा के अखबार मना करते हैं।
1999 के इस प्रदर्शन के ठीक बाद वे अपने अखबार को निकालने को लेकर गंभीर हो गए। चार साल तक अलग-अलग अखबारों में काम करके उन्होंने अखबार छापने से लेकर अखबार निकालने तक का काम सीखा। वर्ष 2003 में 'बाल की खाल' का पहला अंक बाजार में आया।
'बाल की खाल' नाम के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है। किस्सा मेहर खुद बताते हैं, 'हुआ यूं कि मेरी बात अपने एक नाई मित्र से हुई, तेरा काम बाल का है और मेरा खाल (जूते बनाने का) का, क्यों ना हम अपना कोई अखबार शुरू करें।' मेहर आगे कहते हैं, कॉरपोरेट मीडिया को हमारी क्या पड़ी थी कि वह हमारे बारे में लिखे। हमें अपने समाज की बात स्वयं लिखनी होगी। इस तरह शुरू हुआ भोपाल से हमारा अखबार। जिसमें खाल मेरी थी और बाल, मेरे बाल वाले मित्र. का। एक समय था, जब एक महीने हमारा धरना चला और हम अखबारों के चक्कर काटते रहे और किसी ने हमारा दर्द नहीं छापा। आज हमारे समाज के पास भोपाल में अपना अखबार है, जहां उनकी बात छपती है। अखबार निकालने के नौवें साल में बाल वाले मित्र को बैंक में अच्छी नौकरी मिल गई। मैं यहां अब भी अपने खाल के काम के साथ अखबार निकाल रहा हूं।
मेहर का अखबार अब पत्रिका में तब्दील हो चुका है लेकिन उनके तेवर अब भी वही हैं। वे अपनी पत्रिका की दस हजार प्रतियां छाप रहे हैं। उन्हें इस बात से पीड़ा हुई, जब देश के कई प्रतिष्ठित अखबारों ने उनका परिचय मोची पत्रकार के तौर पर कराया। वे कहते हैं समाज की मानसिकता यही है, यदि कल को मैं किसान हो जाऊं तो कहेंगे, मोची किसान लेकिन पत्रकारिता में तो समाज का प्रबुद्ध वर्ग आता है। उससे इस तरह की भाषा की अपेक्षा नहीं थी। वे मुझे श्रमजीवी पत्रकार भी कह सकते थे। मेरा यही परिचय सही परिचय होगा। आशीष कुमार 'अंशु'
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