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घुसपैठिया कहते ही हमारे मन में सीमा पार से हमारी सुरक्षा व्यवस्था को भेदकर देश में घुसने वाले विदेशी लोग ही आते हैं। उनके कारण निर्मित होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न, देशांतर्गत कानून व्यवस्था की स्थिति, रोजगार, सामाजिक तनाव आदि देश के समक्ष चुनौती वाले प्रश्न मन में उभरते हैं। भौतिक स्तर पर की गई इस प्रकार की घुसपैठ का निवारण किया जाना चाहिए, और हमारे सुरक्षा बल अपनी क्षमता के अनुसार इसके लिए प्रयास करते ही हैं।
लेकिन केवल भौतिक स्तर पर ही घुसपैठ का विचार करने से काम नहीं चलेगा। हमारे राष्ट्र जीवन में, सामाजिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में और मानसिकता में अनेक विदेशी संकल्पनाएं, विचार और व्यवस्थाएं घुसपैठ कर चुकी हैं। हमारा मनोविश्व, भावविश्व इन अभारतीय संकल्पनाओं से ऐसा भ्रमित है कि भौतिक घुसपैठियों को सीमा पार खदेड़ने वालों को ही राष्ट्रविरोधी, साम्प्रदायिक कहकर कोसा जाता है, या फिर प्रगतिविरोधी, प्रतिगामी, संकुचित कहकर उनकी अवहेलना की जाती है। ऐसा क्यों और कब से हो रहा है, इसका समग्रता से विचार किया जाए तो यह ध्यान में आता है कि यह घुसपैठ हमारे राष्ट्रीयत्व के आधार पर और राष्ट्रीयत्व की कल्पना के मूल पर ही हमला है। हमें स्वतंत्रता मिली तभी से हम दिशाभ्रमित हैं, भटक गए हैं, ऐसा ध्यान में आता है।
पहली घुसपैठ
संविधान में सेकुलरवाद
आज हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में एक शब्द ने बहुत बखेड़ा खड़ा किया है। वह शब्द है 'सेकुलरिज्म।' यह बाहरी शब्द हमारे देश में घुसाकर प्रतिष्ठित किया गया है। इसका निश्चित अर्थ क्या है, इसकी संविधान में भी व्याख्या नहीं है। सन् 1976 में जब देश में आपातकाल लागू था, पूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया ठप पड़ी हुई थी, संसद में विपक्ष अनुपस्थित था, कारण- विपक्ष के अधिकांश नेता या तो जेल में थे और जो जेल में नहीं थे वे भूमिगत थे, उस समय यह शब्द संविधान में जोड़ा गया। सेकुलरिज्म अथवा सेकुलरवाद इस शब्द का मूल यूरोप की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में है। भारत का वैसा इतिहास नहीं है। सब उपासना पंथों को समान दृष्टि से देखना, सबको समान अधिकार अथवा समान अवसर उपलब्ध होना, ऐसा यदि सेकुलरिज्म का अर्थ माना जाए तो हिन्दुओं की यह परम्परा ही रही है। हिन्दुबहुल देश होने के कारण ही भारत में संविधान बनाते समय, 1950 से ही सब उपासना पंथों को समान अधिकार, समान अवसर का उसमें समावेश किया गया था। इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक कहलाए जाने वाले उपासना पंथों के अनुयायियों को ऐसे कुछ विशेष अधिकार संविधान ने दिये, जो बहुसंख्यक हिन्दू समाज को भी प्राप्त नहीं हैं। ऐसा होते हुए भी 'सेकुलर' शब्द संविधान में जोड़ने की क्या आवश्यकता थी? और आज समाज का क्या चित्र दिखाई देता है? 'सेकुलरिज्म' के नाम पर घोर साम्प्रदायिकता और विघटनवाद को खुलेआम पोषण और प्रोत्साहन दिया जा रहा है, और उसका विरोध करने वालों को साम्प्रदायिक कहकर कोसा जा रहा है, उन्हें बदनाम किया जा रहा है।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष चल रहा था तब सन् 1931 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त ध्वज समिति का जो प्रस्ताव आया उससे एक बात अधिक स्पष्ट होती है। 1920 में लोकमान्य तिलक के निधन के बाद कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आया। हिन्दू-मुस्लिम एकता निर्माण हो और वह दिखाई भी दे, ऐसी उनकी तीव्र आकांक्षा थी। इसलिए गांधजी ने अनेक राष्ट्रवादी मुसलमानों का विरोध होते हुए भी खिलाफत आंदोलन को कांग्रेस का समर्थन घोषित किया। उसी समय, सन् 1921 में गांधी जी के निर्देश पर, आंध्र प्रदेश के वेंकय्या नामक कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक लाल और हरे रंग का एक ध्वज बनाकर गांधी जी को दिया। गांधीजी ने ईसाई-पारसी आदि समाज का प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए उसमें सफेद रंग जोड़ने का सुझाव दिया। उसके अनुसार ऊपर सफेद, बीच में हरा और नीचे लाल, ऐसा सबकी एकता का प्रतीक पहला तिरंगा, उसके ऊपर नीले रंग में चरखा, ऐसा ध्वज प्रचलित हुआ। आगे चलकर 1929 में सिख बंधुओं ने राष्ट्रीय ध्वज की इस कल्पना का ही विरोध किया। उनका कहना था कि अलग-अलग संप्रदायों का अलग-अलग विचार कर उनके बीच एकता साधने का विचार ही साम्प्रदायिक है। इसलिए सबके बीच की एकता का भाव पुष्ट करने वाला राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए और यदि ऐसा साम्प्रदायिक ध्वज ही रखना हो तो हमारे सिख समाज का पीला रंग भी उसमें जोड़ा जाए। यह अत्यंत मूलभूत आक्षेप था।
ध्वज समिति ने सुझाया भगवा ध्वज
फिर 1930 के सत्याग्रह के बाद 1931 में इस पर विचार करने के लिए सात सदस्यों की ध्वज समिति नियुक्त की गई। उसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मास्टर तारासिंह, काका कालेलकर, डा. हर्डीकर और पट्टाभि सीतारामय्या थे। उनके आह्वान पर प्रचलित ध्वज के लिए जो सुझाव और आक्षेप आए, उनमें मुख्यत: दो गुट थे। प्रचलित तिरंगा ध्वज बदले, ऐसा कहने वालों का मुख्य आक्षेप यह था कि अलग-अलग समुदायों का अलग विचार कर उनके बीच एकता दिखाने का विचार ही साम्प्रदायिक है, इसलिए हमारा ध्वज राष्ट्रीय ध्वज रहना चाहिए। साथ ही वर्तमान में प्रचलित ध्वज बल्गेरिया और पर्शिया के ध्वजों से मिलता-जुलता है। हमारा ध्वज वैशिष्ट्यपूर्ण व सर्वथा भिन्न हो।
यही तिरंगा ध्वज रखें, ऐसा कहने वाला दूसरा गुट था। उनका प्रतिपादन था कि दस वर्षों से यह ध्वज प्रचलित है, जनमानस में प्रतिष्ठित है, इसलिए यही ध्वज रखना चाहिए। इस गुट का यह भी कहना था कि इन तीन रंगों का जो साम्प्रदायिक भाव जनमानस में जा चुका है, उसके बदले दूसरा भावात्मक भाव जैसे त्याग, समृद्धि, शांति- ऐसा हम लोगों को समझाने का प्रयत्न करेंगे। इस पर ध्वज समिति ने एक तर्क दिया जो प्रस्ताव में भी दर्ज है, कि लोगों को एक ध्वज मिला इसलिए उन्होंने उसे स्वीकार किया, दूसरा मिलेगा तो उसे भी स्वीकार करेंगे। और हम इन रंगों के कितने ही भावात्मक संदर्भ बताने का प्रयत्न करें, फिर भी इनके जो साम्प्रदायिक संदर्भ जनमानस में बस चुके हैं, वे वैसे के वैसे ही रहेंगे। ऐसा कहते हुए ध्वज समिति ने एक मत से जो प्रस्ताव पारित किया, उसके पहले दो वाक्य विशेष महत्व के हैं। प्रस्ताव में समिति कहती है-
1. ऐसा तय किया गया कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज कलात्मक, वैशिष्ट्यपूर्ण और असाम्प्रदायिक हो। 2. सर्वानुमति से तय किया गया कि राष्ट्रीय ध्वज एक ही रंग का हो और ऐसा एक रंग जो सब रंगों में वैशिष्ट्यपूर्ण है, जो सब भारतीयों को समान रूप से स्वीकार्य है, और जो भारत के प्राचीन इतिहास के साथ प्रदीर्घ परम्परा से जुड़ा है- वह है भगवा अथवा केसरिया। इसलिए भगवा रंग के आयताकृति ध्वज पर नीले रंग का चरखा रेखांकित होगा, वही भारत का राष्ट्रध्वज होगा।
इसमें महत्व की बात यह है कि अलग-अलग सम्प्रदायों का अलग-अलग विचार करने को इस ध्वज समिति ने साम्प्रदायिक कहा है और सबको जोड़ने वाला समान रज्जू खोजकर उस पर जोर देने की वृत्ति को राष्ट्रीय माना है। इस अर्थ में उन्होंने भगवा रंग को असाम्प्रदायिक कहकर राष्ट्रीय ध्वज भगवा रंग का हो, ऐसा एकमत से सूचित किया है। लेकिन स्वतंत्रता के 60 वर्ष से अधिक अवधि के बाद चित्र एकदम बदला हुआ दिखाई देता है। उस समय जो साम्प्रदायिक कहकर नकारे गए, वे आज सेकुलर बनकर शेखी बघार रहे हैं, और जो उस समय राष्ट्रीय था, उसे आज साम्प्रदायिक कहकर कोसा जा रहा है। उस समय भगवा रंग, वंदे मातरम्, रामराज्य की संकल्पना, गोरक्षा आदि विषय राष्ट्रीय थे, उन्हें ही आज साम्प्रदायिक कहा जा रहा है।
सन् 1983 में शिकागो में दिए व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ने भारत की एक पहचान 'मदर ऑफ ऑल रिलीजन्स' कहकर दी। सारी दुनिया के पीड़ित और प्रताड़ित लोगों को भी भारत में हिन्दू परम्परा के कारण सम्मानपूर्वक अपने उपासना पंथों का मुक्त अनुसरण करने की स्वतंत्रता मिली थी,ऐसा उसमें गौरवपूर्ण उल्लेख है। इसी उदार हिन्दुत्व को आज साम्प्रदायिक कहकर और मूल साम्प्रदायिक विचारों को सेकुलर के नाम पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास खुलेआम होता दिख रहा है। इसीलिए 'देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का (अर्थात मुसलमानों का) पहला अधिकार है', ऐसा घोर साम्प्रदायिक विचार हमारे प्रधानमंत्री बिना हिचक व्यक्त करते हैं, और उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई बार नकारने के बाद भी और संविधान सम्मत न होते हुए भी 'साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण' देने की बात सत्तारूढ़ दल के साथ कुछ पार्टियों के नेता भी निर्लज्ज भाषा में करते हैं। यह सब 'सेकुलर' शब्द की संविधान में हुई घुसपैठ के कारण हो रहा है। इस अभारतीय संकल्पना को, राष्ट्रविरोधी एवं विघटनवादी भावना को संजोने वाली वृत्ति को उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है।
दूसरी घुसपैठ
शिक्षा क्षेत्र में
दूसरी घुसपैठ शिक्षा के क्षेत्र में हुई है। आधुनिक भारत की नींव जिस शिक्षा पर आधारित है, उस शिक्षा के आशय और उद्देश्य में परिवर्तन करने की आवश्यकता है। हमारी आज की शिक्षा केवल पेट भरने के लिए, आजीविका हेतु अर्थार्जन से जुड़ी है। उदर-निर्वाह के लिए अर्थार्जन आवश्यक है ही, अधिक आरामदायी जीवन जीने के लिए अधिक अर्थार्जन की इच्छा रखना, उसके लिए प्रयास करना भी ठीक है। लेकिन अर्थार्जन जीवन का केवल साधन है, वह अच्छा हो यह ठीक है, लेकिन जीवन का साध्य क्या है, उसका पता ही नहीं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए साधन के रूप में वाहन आवश्यक है, वह अधिकाधिक आरामदायी होने की इच्छा होने में भी कुछ अनुचित नहीं। लेकिन वह वाहन लेकर जाना कहां है, यदि यही पता न हो तो उस वाहन का क्या उपयोग? लेकिन आज तो जीवन का साधन ही साध्य बनता जा रहा है और सर्वत्र केवल साध्यहीन भगदौड़ चल रही है।
अधिक शिक्षा, उच्च शिक्षा का संबंध केवल कमाई से जुड़ने के कारण ही यह सब गड़बड़ हुई है। अधिक शिक्षित व्यक्ति अधिक भौतिकवादी, उपभोगवादी और आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी बन रहा है। शिक्षा के बारे में विचार करने के लिए स्वतंत्र भारत में जितने भी आयोग गठित किए गए, उन सबने नैतिक शिक्षा के अभाव की ओर निर्देश कर इस दृष्टि से कुछ उपाय सुझाए। शिक्षा संबंधी कोठारी आयोग ने भी सुझाया कि नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए विद्यार्थियों को धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए। धार्मिक शिक्षा का अर्थ ही नैतिक शिक्षा है। लेकिन सेकुलरवाद के नाम पर धार्मिक और नैतिक बातों का त्याग कर देने के कारण हम 'जैसे थे' की स्थिति में है। स्वतंत्र भारत की शिक्षा व्यवस्था का विचार करते समय हमारा देश, उसकी प्राचीन विरासत, जीवन-दृष्टि, उसके अनुसार संस्कारों की योजना का विचार न करने के कारण उधेड़-बुन की जटिल स्थिति निर्मित हुई है। आधुनिकता के नाम पर पश्चिमीकरण के प्रयास, उनसे उधार लिये जीवन के तत्वज्ञान का सम्मान करने के कारण ही नैतिकताविहीन भौतिकतावादी, आत्मकेन्द्रित वृत्ति और समाज की समस्याओं के बारे में जनास्था की घुसपैठ इस क्षेत्र की पवित्रता को समाप्त कर रही है। शिक्षा का मूल उद्देश्य ही हम भुला बैठे हैं। शिक्षा की राह भटकना अन्य क्षेत्रों के लिए भी अभिशाप साबित हुआ है। (क्रमश:)
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