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0 टिकटों की बंदरबांट में ही भिड़े कांग्रेसी। 0जमीनी सच्चाई से अनजान कांग्रेसी नेतृत्व। 0 कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष भाजपा में शामिल। 0 पोस्टर दुष्प्रचार ने किया कांग्रेस को शर्मसार। 0 कुपोषण में श्रीलंकाई बच्चा, बदहाल किसान राजस्थान का और पानी के लिए तरसता बच्चा त्रिपुरा का–बताया इसे गुजरात। 0 स्टार प्रचारक राहुल गुजरात में नहीं होंगे 'स्टार'। 0 गुजरात में साम्प्रदायिकता अब कोई मुद्दा नहीं। थ् मुस्लिम भी देंगे मोदी को वोट। थ् मुख्यमंत्री मोदी को पहले ही मिला बोनस–न्यायालय ने विशेष जांच दल की रपट पर मुहर लगाई। 0 गुजरात दंगों में मोदी की कोई भूमिका नहीं–एक बार फिर सच सामने आया।
एक पुरानी कहावत है- 'एक तो कोढ़, उसमें भी खाज। यह कहावत इन दिनों गुजरात की कांग्रेस पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठती नजर आ रही है। चुनावी मैदान में मुकाबले से पहले ही घुटने टेक चुकी कांग्रेस के लिए उम्मीदवारों का चयन ही बड़ा सिरदर्द बन गया है तो दूसरी ओर प्रचार या कहें दुष्प्रचार के पोस्टर उस पर ही भारी पड़ रहे हैं। चुनाव से ऐन पहले गुजरात कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष गिरीश परमार ने 'हाथ' झटकर फिर से कमल थाम लिया है। परमार एक समय में भारतीय जनता पार्टी के ही अंग थे। टिकट वितरण में कांग्रेस आलाकमान द्वारा स्थानीय पदाधिकारियों की अनदेखी के चलते उन्होंने हाथ का साथ छोड़ दिया। भाजपा ने उन्हें हाथों-हाथ लिया और उनके पुराने क्षेत्र दानिलिमड़ा से चुनावी मैदान में उतार दिया।
मुंह चुराते नेता
परमार अकेल नहीं हैं जो टिकटों में कांग्रेसी बंटरबांट से हैरान-परेशान थे। हालात तो यह हैं कि दिल्ली से उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद अमदाबाद स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय पर पुलिस को लाठियां भांजनी पड़ी, क्योंकि अनेक स्थानों पर उन लोगों को उम्मीदवार बना दिया गया जिनका स्थानीय स्तर पर कोई आधार ही नहीं है, जैसे कलोल से बददेब ठाकोर। कांग्रेस के 46 उम्मीदवारों की दूसरी सूची तो ऐसी थी कि उसे जारी करने के कुछ घंटों बाद ही वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी। दरअसल उम्मीदवारों के चयन में ही इस बदहवासी के पीछे कांग्रेस के अंदरूनी हालात हैं। वर्षों से कांग्रेस में रहने के बावजूद प्रदेश के वरिष्ठ नेता शंकर सिंह वाघेला अपनी भाजपाई पृष्ठभूमि के कारण अब तक संदिग्ध ही बने हुए हैं। ऐसे में कांग्रेस की केन्द्रीय चुनाव समिति गुजरात के सांसदों और केन्द्रीय नेताओं के इशारे पर ऐसे-ऐसे लोगों को सूची में शामिल कर रही है जिनका स्थानीय स्तर पर भारी विरोध है। बड़ी बात यह कि 'निश्चित हार' के डर से गुजरात से आने वाले और कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल इस कवायद में पर्दे पर से पूरी तरह गायब हैं तो 'स्टार' प्रचारक राहुल गांधी गुजरात में स्टार बनकर नहीं जा रहे हैं। न ही वे गुजरात में उम्मीदवारों के चयन में दिलचस्पी ले रहे हैं और न ही उन्होंने बिहार और उ.प्र. की तरह कोई 'मिशन' घोषित किया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल ने 'मिशन गुजरात' इसलिए घोषित नहीं किया क्योंकि इससे उनके 2014 के 'मिशन प्रधानमंत्री' का सपना पूरी तरह ध्वस्त हो जाता। राहुल ने तो गुजरात जाने में भी अनिच्छा जाहिर की थी, पर मजबूरी है जाने की, वरना कहा जाता कि नरेन्द्र मोदी का सामना करने से ही डर गए कांग्रेसी युवराज।
खुद की खुल गई पोल
उधर मोदी विरोध और साम्प्रदायिकता के दुष्प्रचार में मुंह की खा चुकी कांग्रेस ने इस बार गुजरात के विकास को ही झुठलाना चाहा। कांग्रेस ने पहले गुजरात में कुपोषण की समस्या के कुछ अनाधिकृत आंकड़ों के साथ उसे दर्शाने के लिए जो चित्र प्रकाशित किया, अखबारों के विज्ञापनों और होर्डिंग पर लगवाया, पता चला कि वह श्रीलंका के बाढ़ पीड़ितों के लिए लगाए गए मिशनरियों के किसी शिविर में शरणार्थी एक महिला और उसके बच्चे का चित्र है। निंदा हुई, भर्त्सना हुई, कहा गया कि गुजरात में जब एक भी कुपोषण-ग्रस्त बच्चा नहीं मिला तो श्रीलंकाई ही क्यों लगाया, अपनी कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार से ही मांग लिया होता। तो तीन दिन बाद कांग्रेस ने गुजरात के बदहाल किसानों वाला पोस्टर जारी किया, उसमें अपनी ही राजस्थान सरकार के बदहाल किसान का चित्र लगाया। पानी की कमी दर्शाने वाले एक विज्ञापन में पानी को तरसते जिस बच्चे की तस्वीर छापी वह अगरतला (त्रिपुरा) का निकला। दुष्प्रचार के इस झूठ से अपनी ही पोल खुलती देख अब कांग्रेस ने बिना फोटो के ही विज्ञापन प्रसारित करने शुरू कर दिए हैं। पर इससे भी नीचे उतरकर 'गैंग आफ बसेपुर' जैसी बदनाम फिल्म की तर्ज पर एक पोस्टर तैयार किया 'गैंग आफ चोरपुर।' कांग्रेसी विधायक ग्यासुद्दीन शेख के नेतृत्व में निकले एक जुलूस में मोदी को फिर हत्यारा दिखाने की कोशिश की गई, पर इसकी प्रतिक्रिया से घबराकर कांग्रेस ने सार्वजनिक तौर पर वह पोस्टर जारी ही नहीं किया। और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अर्जुन मोडवाडिया मोदी के खिलाफ एक निम्नस्तरीय टिप्पणी के कारण चुनाव आयोग को स्पष्टीकरण देते घूम रहे हैं।
मोदी पाक–साफ
इस बीच साम्प्रदायिकता के मुद्दे और मुस्लिम वोट बैंक को भुनाने के कांग्रेसी और सेकुलरी षड्यंत्र को एक और झटका तब लगा जब अमदाबाद की गुलबर्गा सोसाइटी में दंगों के दौरान 28 फरवरी, 2002 को मारे गए पूर्व कांग्रेसी सांसद अहसान जाफरी व अन्य के मामले में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को आरोपी बनाने की कोशिशों पर न्यायालय ने पूर्ण विराम लगा दिया। अहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी अपने पति की हत्या के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को आरोपी बनाने के लिए लम्बे समय से न्यायालय के दरवाजे खटखटा रही थीं। उनके साथ पूरी कांग्रेस और मोदी विरोधी तीस्ता सीतलवाड़ सहित पूरी सेकुलर लाबी लगी थी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद दंगों में मुख्यमंत्री की भूमिका की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एमआईटी) बनाया गया। मुख्यमंत्री मोदी की भी उसमें पेशी हुई, पर सत्य ही सामने आया। सब छानबीन के बाद विशेष जांच दल ने मई 2012 में न्यायालय को अपनी रपट सौंपी, जिसमें कहा गया कि गुजरात दंगों के संदर्भ में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की किसी भी प्रकार की भूमिका के उसे कोई तथ्य-साक्ष्य नहीं मिले। एसआईटी द्वारा नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दिए जाने पर कांग्रेस और जकिया जाफरी बौखला गए। न्यायालय ने उन्हें रपट को चुनौती देने के लिए 2 माह का और समय दिया, पर चुनौती देने के लिए कुछ साक्ष्य तो हों पास। अब 6 माह बाद न्यायालय ने विशेष जांच दल की रपट को अंतिम मान जकिया जाफरी व अन्य को चुनौती देने के अधिकार से वंचित कर दिया है। न्यायालय ने कहा है कि उन्हें अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर दिया गया लेकिन वे मुख्यमंत्री पर लगाए गए आरोपों को साबित करने के लिए एक भी सुबूत नहीं उपलब्ध करा सके।
विकास ही मुख्य मुद्दा
चुनावी अभियान के बीच में ही न्यायालय का यह निर्णय मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए व्यक्तिगत रूप से काफी राहत पहुंचाने वाला है, क्योंकि सेकुलर जमात के लोगों को अब वे और करारा जवाब दे सकेंगे। पर इससे भी अधिक राहत की बात उनके लिए यह है कि अब तक जितने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण हुए हैं उनमें उनके नेतृत्व और भाजपा की जीत न केवल सुनिश्चित बतायी जा रही है बल्कि पहले 2007 से भी अधिक प्रभावी होने की संभावना जतायी जा रही है। चुनाव सर्वेक्षण के लिए प्रतिष्ठित समूह ओआरजी के साथ मिलकर इंडिया टुडे ने जो संभावना जतायी है उसके अनुसार भाजपा को इस बार 128 सीटें मिलती दिख रही हैं, पिछली बार के मुकाबले 11 ज्यादा। वहीं कांग्रेस को 48 सीटें मिलती दिख रही हैं, पिछली बार के मुकाबले 11 कम। मुद्दे, मोदी, मुख्यमंत्री और मुसलमान नामक 4 वर्गों में विभाजित प्रश्नों के आधार पर गुजरात की 36 विधानसभाओं के 5040 मतदताओं के बीच 12 से 18 अक्तूबर तक कराए गए इस सर्वेक्षण में एक बात तो साफ तौर पर उभरकर आयी कि कांग्रेसी केन्द्र सरकार को बचाने के लिए सपा, बसपा, द्रमुक के लिए भले साम्प्रदायिकता मुद्दा हो, पर गुजरात के लिए वह कोई मुद्दा नहीं है। वहां 37 प्रतिशत लोगों के लिए विकास ही वोट लेने का आधार है। इस दृष्टि से मोदी के भाजपा राज की यह उपलब्धि है कि 67 प्रतिशत लोग मानते हैं कि नौकरियां बढ़ीं, 43 प्रतिशत मानते हैं विकास हुआ, बढ़े रोजगार को 14 प्रतिशत ने स्वीकारा तो 10 प्रतिशत कहते हैं भ्रष्टाचार कम हुआ। और तो और मोदी के नेतृत्व में दंगों के लिए बदनाम हुए गुजरात के 26 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भी मानते हैं कि वे (मोदी) ही ठीक हैं, और 17 प्रतिशत मुस्लिम कहते हैं कि हम उन्हें वोट देंगे। अगर ये सारी संभावनाएं और सर्वेक्षण सही हैं तो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह विश्वास भी खरा ही उतरेगा कि गुजरात की जनता 20 दिसंम्बर (जिस दिन चुनाव परिणाम घोषित होंगे) को एक बार फिर दीपावली मनाएगी, नए साल का स्वागत 10 दिन पहले से ही शुरू हो जाएगा।
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