गीत के गरुड़ की उड़ान
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समकालीन गीति-काव्य सर्जना के स्वर्णिम हस्ताक्षर कविवर चन्द्रसेन विराट के अभिनव गीत-संकलन की संज्ञा है – ओ, गीत के गरुड़! (प्रकाशक – समान्तर पब्लिकेशन, तराना, उज्जैन (म. प्र.) सहयोग-राशि 250 रु.)। इस कृति के समर्पण की पंक्तियां रचनाकार की गीतव्रती लेखनी के अन्तर्व्यक्तित्व को प्रकट करती हैं – 'मूलत: छन्द में ही लिखने वाली उन सभी सृजनधर्मा, सामवेदी सामगान के संस्कार ग्रहण कर चुकी गीत-लेखनियों को, जो मात्रिक एवं वर्णिक छन्दों में भाषा की परिनिष्ठता, शुद्ध लय एवं सांगीतिकता को साधते हुए, रसदशा में रमते हुए, अधुनातन मनुष्य के मन के लालित्य एवं राग का रक्षण करते हुए, आज भी रचनारत हैं।'……… हमारी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के उड़ते समय उसके पंखों से सामवेद के मन्त्रों की रागमयी ध्वनि हुआ करती है। विविध रूपकों में शब्द को गरुड़ माना गया है जो सुपर्ण अर्थात् सुन्दर पंखों वाला है, जिसमें अप्रतिम सामर्थ्य है और जो मां के स्वाभिमान की रक्षा के लिये अमरावती से अमृत-कलश लाने की शक्ति से सम्पन्न है। कविवर विराट ने गीत को गरुड़ के रूप में देखा है –
यह गरुड़-सा उड़ा है
हृदयों तरफ मुड़ा है
अर्थों का सत्पुड़ा है
संस्कार से जुड़ा है
रवि भी जहां न जाता, मैं नित्य जा रहा हूं
ब्रह्माण्ड बिना वाहन सबको घुमा रहा हूं –
मैं गीत गा रहा हूं।
कवि की दृष्टि में शिव सत्य से स्फुरित गीत ही साहित्य का वास्तविक चरित है और वह गढ़ा नहीं जाता, अवतरित होता है। उसकी श्रद्धान्वित साधना, अव्याहत उपासना रचनाकार को सहस्रार तक पहुंचाकर वह भाव समाधि प्रदान कर देती है जो अष्टांग-योग के साधकों के लिये भी स्पृहणीय है –
अध्यात्म का रसायन
खोले तृतीय लोचन
स्थिति हो तुरीय पावन
हो सप्त-चक्र दर्शन
है सुप्त कुण्डली जो उसको जगा रहा हूं
मैं सहस्रार तक की यात्रा करा रहा हूं –
मैं गीत गा रहा हूं।
गीत के प्रति, गीतकार के प्रति और गीतात्मकता के प्रति विराट जी की अविचल आस्था है। 'अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापति:' की सनातन मान्यता को जीते हुए, 'कविर्मनीषीपरिभूस्वयंभू' की उपनिषद् सूक्ति की प्रमाणिकता के प्रति श्रद्धान्वित वह निर्भ्रान्त स्वर में घोषणा कर रहे हैं –
कवि ब्रह्म शब्दों का रहा
उसकी समान्तर सृष्टि है,
जो पार देखे ठोस के
ऐसी रचयिता दृष्टि है
ऋषि वाक्य है, सन्तोष कर
यह कवि वचन है, आप्त है –
रे मन! न कर परिवाद तू
जो कुछ मिला पर्याप्त है।
उनकी दृष्टि में गीति-रचना की घड़ी ऋतम्भरा प्रज्ञा, जीवन्त परम्परा और वैखरी, मध्यमा तथा अपरा से ऊपर विराजित परा से संयुक्त होने की घड़ी है, गीति-चेतना उन्हें सदानीरा नदी की तरह प्रतीत होती है –
अभिव्यक्ति हित अधीरा
है गीति सदानीरा
ज्यों भजन रचे मीरा
पद गा रहे कबीरा
यह गीत का समय है, मैं गीत रच रहा हूं।
वैयक्तिकता, सघनता जैसी विशेषताओं के साथ विराट जी के गीतों में सामाजिक संवेदना भी पर्याप्त मुखर है। इस संकलन के बहुत-से गीत व्यंग्य-प्रधान हैं, कुछ सीधे-सीधे राष्ट्रभाषा, देवनागरी, वन्देमातरम् के जय-घोष से जुड़े हैं तो कुछ में समय के टेढ़े तेवरों और राजनीति के दंशों को जी रहे जन सामान्य की व्यथा-कथा है। कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं –
विक्षुब्ध है दुखी है, हर कष्ट चौमुखी है
परिवाद होंठ पर है, पर आंख में नमी है –
वह आम आदमी है।
पीड़ा घनी हुई है
मुट्ठी तनी हुई है
है क्रोध में बहुत पर निरूपाय संयमी है –
वह आम आदमी है।
तथा –
युद्ध अवश्य किसी के द्वारा
जीता या हारा जाएगा
मैं ही हूं, वह आम आदमी
जो इसमें मारा जाएगा।
कुछ गीतों में उत्तरावस्था में अवचेतन में बनी रहने वाली अवसान की घड़ी की आहट भी कलात्मक ढंग से अनुगुंजित हुई है –
लगता है सभा विसर्जन के क्षण में
आखिरी विदा को हाथ उठा रहा है,
मुंह फेर एकदम चल देना होगा
अब सदा–सदा को साथ छूट रहा है।………..
कुछ ऐसी हालत हुई मौत मुझको
अब ऐच्छिक नहीं जरूरी लगती है!
कवि अपने अवसादों से ऊपर उठकर गीत के गरुड़ की यात्रा को अविराम रखे, प्रभु से यही प्रार्थना है।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
इल्जाम दीजिये न किसी एक शख्स को,
मुजरिम हैं सभी आज के हालात के लिये।
– हस्तीमल हस्ती
खुद को जो सूरज बताता फिर रहा था रात को,
दिन में उस जुगनू का अब चेहरा धुआं होने को था।
जाने क्यों पिंजरे की छत को आसमां कहने लगा,
वो परिन्दा जिसका सारा आसमां होने को था।
– अखिलेश तिवारी
शुभम् के पृष्ठ पर हमको नया सत्यम् रचाना है
हमें उजड़े हुए मन को नये घर में बसाना है,
शिवम को साथ ले करना है जग को सुन्दरम् हमको
इसी विश्वास के संग–संग नये दीपक जलाना है।
– बलराम श्रीवास्तव
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