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संकट में हैं काजीरंगा के गैंडे

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Nov 17, 2012, 12:00 am IST
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संकट में हैं काजीरंगा के गैंडे

दिंनाक: 17 Nov 2012 15:41:30

विश्वविख्यात काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के एक सींग वाले गैंडों पर बंगलादेश से आए अवैध घुसपैठिये कहर ढा रहे हैं। यहां पिछले 10 महीने के भीतर 39 गैंडों को मार गिराने की घटनाएं सामने आई हैं। जाहिर है इस दुर्लभ वन्य प्राणी पर पहले से कहीं ज्यादा संकट के बादल गहरा गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय उद्यानों के जिन अंदरूनी क्षेत्रों म ेंपर्यटन तक की अनुमति नहीं दे रहा है, कांजीरंगा के इन्हीं भीतरी क्षेत्रों में बंगलादेशी घुसपैठियों की बस्तियां हैं। असम गण परिषद् के अघ्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने आरोप लगाया है कि उद्यान के 'बफर' क्षेत्र में अवैध प्रवासियों को बसा दिए जाने से गैंडे के अस्तित्व पर संकट बढ़ा है। कांग्रेस इस तरह से अपना वोट बैंक बढ़ाने में लगी है। हालांकि महंत के इस आरोप का जवाब देते हुए असम के वन मंत्री रकाबुल हुसैन ने कहा है कि 1996 में खुद महंत के शासन काल में उद्यान के अंदरूनी क्षेत्रों में 96 भूमिहीन परिवारों को बसाने का सिलसिला शुरू    हुआ था।
असम की राजधानी गुवाहटी से 217 किलोमीटर दूर ब्रह्मपुत्र घाटी व तलहटी के 430 वर्ग किमी में फैला है काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान। थल और जल के ये भूखण्ड दुर्लभ किस्म के तमाम पशुुओं के साथ एक सींग वाले गैंडे के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। लेकिन यह उद्यान सबसे ज्यादा एक सींग वाले गैंैडे के अवैध शिकार के लिए गाहे – बगाहे चर्चा में बना रहता है। बीते दस माह में सींग के लिए 39 गैंडों का बेरहमी से शिकार किया गया। इस सींग का अंतरराष्ट्रीय बाजार मूल्य 40 लाख रुपए से लेकर 90 लाख रुपए तक है। गैंडों का शिकार गोली मारकर, रास्तों में गड्ढे खोदकर और काजीरंगा के बीच से गुजरने वाली उच्च विद्युत ताप लाइन से करंट जमीन में बिछाकर किया जा रहा है। बाढ़ के पानी की चपेट में आ जाने से भी बड़ी संख्या में गैंडे मारे गए हैं। सड़क दुर्घटना और आपसी संघर्ष में भी गैंडों के मरने की घटनाएं सामने आती रहती हैं।
बेखौफ शिकारी
हालांकि काजीरंगा उद्यान यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है, लेकिन ऐसी किन्हीं विशेष सुविधाओं का वहां विस्तार नहीं हुआ है जिससे बाढ़ की चपेट में आने से जानवरों को बचाया जा सके। इस बार की बाढ़ शिकारियों को बेखौफ शिकार करने का कारण बनी। इसी साल के सितंबर में काजीरंगा में बाढ़ का पानी घुस आने से शिकारियों के पौ-बारह हो गए और शिकारियों ने चार दिन के भीतर ही पांच गैंडों को मार गिराया। बेदर्द शिकारियों ने गैंडों के सींग उखाड़ लिए और उन्हें खून से लथपथ हालत में कुत्ते की मौत मरने को छोड़ दिया। वन सरंक्षकों को हवा तक नहीं लगी। इसके अलावा  आंगलोंग जिले में छह गैंडों को उस समय मार गिराया जब वे बाढ़ग्रस्त वनक्षेत्र से बचने के लिए खुले में आ गए थे। बाढ़ के पानी में डूब जाने से भी 28 गैंडे मारे गए। 1988 में आई बाढ़ व बीमारी से 105 गैंडे मरे थे। वहीं 1998 में आई बाढ़ में डूब जाने से एक साथ 652 गैंडे मर गए थे। खुफिया रपटें बताती हैं कि गैंडों के शिकार में बंगलादेशी घुसपैठिये और कारबी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स के उग्रवादी भी शामिल हैं। इसके आलावा मिजो और नगा उग्रवादी भी सींग के लिए गैंडों पर कहर ढाते रहते हैं। हालांकि 1988 में असम में उल्फा नाम का एक ऐसा उग्रवादी संगठन वजूद में आया था, जिसने गैंड़ों के संरक्षण की दिशा में अहम पहल की थी और गैंडों के सींग की तस्कारी करने वाले दो शिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इसके बाद कुछ समय तक इस प्राणी के शिकार पर अंकुश लग गया था, लेकिन बाद में फिर शुरू हो गया।

गैंडे का इतिहास

भारत की धरती पर गैंडे का अस्तित्व दस लाख साल से भी ज्यादा पुराना है। चण्डीगढ़ के निकट पिंजोर में हुई पुरातत्वीय खुदाई में चट्टानों की परतों के बीच अनेक दुर्लभ प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं। इनमें गैंडे के भी जीवाश्म हैं। इसी तरह गुजरात के भावनगर के पीरम द्वीप में भी लगभग दस लाख साल पुराने प्राणियों के जीवाश्म मिले हैं, जिनसे पता चला कि इस द्वीप में गैंडे और जिराफ परिवार के जीव बड़ी संख्या में बसेरा करते थे। इसलिए इसे आदिम युग का पशु भी कहा जाता है। 
गैंडे को अन्य प्राणियों की तरह बुद्धिमान पशु नहीं माना जाता है। गैंडे की बुद्धि की परीक्षा सबसे पहले द्वारिका नरेश भगवान श्रीकृष्ण द्वारा किए जाने का वृतांत आता है। बताया जाता है कि कृष्ण युद्ध नीति में नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रयत्नशील थे। इस दृष्टि से उन्होंने हाथी की जगह गैंडे को रखने की बात युद्ध विशेषज्ञों से कही। कृष्ण की दलील थी कि हाथी जरूरत से अघिक उंचा प्राणी है। नतीजतन उसकी पीठ पर बैठे सैनिक को युद्ध में आसानी से निशाना बना लिया जाता है। कृष्ण की इच्छा के पालन में कुछ गैंडों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने की शुरुआत हुई। लंबे प्रशिक्षण के बाद गैंडों को कृष्ण के समक्ष प्रस्तुत किया गया। खाली गैंडों को देखकर कृष्ण ने प्रश्न किया कि इनका सवार कहां है ? तब प्रशिक्षक ने उत्तर दिया, महाराज यह एकदम बुद्धिहीन जंगली पशु है। सिखाने के अनेक प्रयासों के बाद भी यह युद्ध की बारह खड़ी भी नहीं सीख पाया। ऐसा प्राणी युद्ध के लायक नहीं है। यह अपने स्वामी को कभी विजय नहीं दिला सकता। आखिर श्रीकृष्ण ने प्रक्षिशु सभी गैंडों को वन में छोड़ने का आदेश दिया। इस समय से गैंडों के साथ एक मिथ जुड़ा कि जड़ बुद्धि गैंडे जाते समय यह भूल गए कि उनके शरीर पर लोहे का कवच भी बंधा है। तब से ही कहा जाने लगा कि उसकी पीठ पर चढ़ा यह कवच उसकी स्थायी धरोहर हो गया और वह अपनी मृत्यु के समय इस कवच को अपनी संतान को बतौर विरासत सौंप देता है। भारतीय संस्कृत साहित्य में भी गैंडे का खूब उल्लेख है। चरक, सुश्रुत और कालिदास ने गैंडे का खड्ग और खड्गी नामों से उल्लेख किया है। इसे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसके सींग का आकार खड्ग यानी तलवार की तरह होता है। हलायुध कोश में तो गैंडे के ग्यारह संस्कृत नाम दिए हैं। इससे पता चलता है प्राचीन भारतीय प्राणी विशेषज्ञ गैंडे के आचरण को जानने में दिलचस्पी लेते रहे हैं।

घटती संख्या

अपनी इसी बुद्धिहीनता के कारण गैंडे सबसे ज्यादा मारे जाते हैं। गैंडे अपने अनूठे स्वभाव के चलते नाक की सीध में चलते हैं और जिस रास्ते से वे एक बार गुजरते हैं, बार – बार उसी रास्ते पर चलते हैं। इनके इसी आचरण का लाभ शिकारी उठाते हैं और रास्ते में गड्ढे खोदकर अथवा बिजली के तार बिछाकर इसका आसानी से शिकार कर लेते हैं। गैंडे जब घास – फूंस के ढके गड्ढे में गिर जाते हैं तो शिकारी बांसों में लगे नुकीले लौह औजारों को इनके शरीर में गोंच गोंच कर इनकी हत्या कर देते हैं। आसानी से शिकार हो जाने के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। काजीरंगा में 2011 में हुई प्राणी गणना के अनुसार महज 2290 गैंडे ही शेष बचे हैं। काजीरंगा इन्हें इसलिए लुभाता है क्योंकि यहां एक विशेष प्रजाति की घास पाई जाती है, जो गैंडों के आहार व प्रजनन के लिए उपयोगी है। लेकिन जहरीली वनस्पतियों के काजीरंगा में पहुंच जाने से इस घास की पैदावार भी प्रभावित हो रही है। इस वजह से गैंडों के सामने आहार का संकट बढ़ रहा है। लिहाजा इनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।

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