धनतेरस और धनवर्षा
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कुछ लोग कहते हैं कि नाम में क्या रखा है, पर सच यह है कि नाम में बहुत कुछ रखा है। विश्वास न हो, तो मक्खन लाल शर्मा जी से पूछ लें।
शर्मा जी के मित्र वर्मा जी जब एक कन्या के हाथों नये–नये शहीद हुए, तो श्रीमती वर्मा ने पहले करवा चौथ पर जिद ठान ली कि इस बार का व्रत दोनों साथ–साथ रखेंगे। वर्मा जी ठहरे एक घंटे में दो कप चाय पीने वाले प्राणी, पर पत्नी को नाराज कर भावी जीवन में कांटे बोना ठीक नहीं था। इसलिए हां कर दी।
वर्मा जी सोचते थे कि नहाने के बाद व्रत चालू होगा, पर जब मैडम ने उन्हें सुबह की चाय भी नहीं दी, तो वे समझ गये कि उन्होंने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं, कुल्हाड़ी पर ही पैर दे मारा है।
इसके बाद का हाल तो और बुरा रहा। नाश्ते की हड़ताल के बाद जब वे दफ्तर गये, तो न जाने कैसे वहां भी सबको व्रत की बात पता थी। इसलिए किसी ने उन्हें चाय तक को नहीं पूछा। बेचारे वर्मा जी दिन भर उस घड़ी को कोसते रहे, जब उन्होंने व्रत को हां कही थी।
यों तो दफ्तर में लोग आपस में शर्मा, वर्मा, गुप्ता जी आदि कहकर ही बुलाते हैं, पर उस दिन वर्मा जी को बार–बार मक्खन जी, भाई मक्खन लाल जी, मक्खन लाल जी सुनिये…आदि बोलते देख शर्मा जी झुंझला गये। उन्होंने जब टोका, तो वर्मा जी रो पड़े –
आपको पता है कि आज मेरा निर्जल व्रत है। सुबह से एक घूंट पानी तक नहीं पिया। यदि आपका पूरा नाम लेने से मेरे गले और दिमाग को कुछ ठंडक मिलती है, तो आपको क्या आपत्ति है ? मैं आपका नाम ही तो ले रहा हूं, कुछ और तो नहीं।
पूरे स्टाफ की सहानुभूति वर्मा जी के साथ देखकर शर्मा जी चुप रह गये, पर तब से वे अपना नाम मक्खन लाल की बजाय एम.एल.शर्मा ही बताते हैं। यद्यपि उनसे चिढ़ने वाले पीठ पीछे नाक दबाकर म.ल.शर्मा कहकर अपना गुस्सा निकालते हैं।
कुछ–कुछ ऐसी ही कहानी दीपावली से दो दिन पूर्व मनाये जाने वाले धनतेरस पर्व की भी है। शर्मा जी को यह पर्व और इसका नाम बहुत अच्छा लगता है। सरकारी नौकरी, और वह भी ऐसे विभाग में, जहां हर दिन सैकड़ों लोग अपने काम के लिए आते हों, वहां भला धन की चर्चा क्यों नहीं होगी? इसलिए शर्मा जी हों या वर्मा जी, सब दिन भर धनवर्षा की प्रतीक्षा में छाता खोल कर बैठे रहते हैं। शाम तक किसी की जेब भर जाती है, तो किसी का थैला, पर छाता तो पूरी तरह धनतेरस पर ही गीला होता है।
जिन लोगों को सरकारी दफ्तर में प्राय: काम पड़ता रहता है, वे भी मिठाई के डिब्बे और उपहार लिये इस दिन की प्रतीक्षा करते रहते हैं। पहले तो लोग डिब्बे के ऊपर ही गांधी मार्का हरे कागज रख देते थे, पर अन्ना, केजरीवाल और सुब्रह्मण्यम स्वामी के वर्तमान दौर में उन कागजों को डिब्बे के अंदर ही रखना पड़ता है।
शर्मा जी की कुर्सी काफी ऊंची है। इसलिए उनके डिब्बे में मिठाई नहीं, बस धन ही धन होता है। इसलिए तो धनतेरस का पर्व शर्मा जी को साल भर में सबसे सुहाना और पवित्र लगता है।
इस बार शर्मा जी की धनतेरस बहुत अच्छी बीती। गांव वाले घर की मरम्मत से लेकर शहर में कोठी, कुत्ता और कार जैसी कई समस्याएं हल होने का जुगाड़ हो गया। उन्हें बेटी की अच्छे घर में शादी और बेटे को विदेश भेजने के सपने पूरे होते दिखने लगे। यद्यपि उस धनवर्षा को संभालने के चक्कर में उनका पुराना छाता टूट गया।
पर इससे शर्मा जी को कोई दुख नहीं है। वे तब से ही प्रतीक्षा में है कि कब अगली धनतेरस आये और वे नया छाता खरीदें। जैसे बच्चे सोचते हैं कि हर महीने उनका जन्मदिन हो और उन्हें नये कपड़े मिलें, ऐसे ही शर्मा जी सोचते हैं कि काश हर त्रयोदशी धनतेरस हो और वे धनवर्षा संभालने के लिए नया छाता खरीदें।
धनतेरस भले ही बीत गयी हो, पर उसका नशा शर्मा जी पर अब तक सवार है। छाते वाले की दुकान के सामने से निकलते हुए, दफ्तर में झपकी लेते हुए और रात को नींद की खुमारी में वे प्राय: पूछ बैठते हैं – क्यों, अगली धनतेरस कब है ?
यदि आपके पास 2013 की डायरी हो, तो उन्हें धनतेरस की सही तारीख बता दें, जिससे उनकी बेचैन आत्मा को कुछ शांति मिले।
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