उतरेंगे नकाब
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राजनीति में दोहरी भूमिका निभाने वालों के नकाब उतरने का वक्त आ गया है। 22 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान महंगाई, भ्रष्टाचार और एफडीआई सरीखे मुद्दे उठेंगे तो सरकार समर्थकों पर कथनी-करनी का फर्क मिटाने का दबाव बढ़ेगा। डीजल के दाम बढ़ाने और सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने वाले फैसलों के विरुद्ध भारत बंद का आह्वान करने वालों में मनमोहन सिंह सरकार में शामिल द्रमुक भी थी और उसे बाहर से समर्थन की बैसाखी उपलब्ध करा रही समाजवादी पार्टी भी। 'मल्टीब्रांड रीटेल' में 51 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी का विरोध भी द्रमुक और सपा करते रहे हैं। अब जबकि वाम दलों ने एफडीआई पर लोकसभा में नियम 184 के तहत चर्चा के लिए कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दे दिया है, जिसमें मत विभाजन का भी प्रावधान है, तो द्रमुक और सपा को समर्थन और विरोध की दोहरी भूमिका में से एक चुननी होगी। जाहिर है, सरकार का समर्थन करने पर विरोध का नकाब उतर जायेगा और अगर विरोध किया तो सरकार चली जायेगी। इस खतरे का आभास प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर कांग्रेस नेतृत्व तक सभी को है। इसीलिए सहयोगी और समर्थक दलों को पटाने के हरसंभव प्रयास किये जा रहे हैं। प्रधानमंत्री लजीज व्यंजनों के जरिये उन्हें लुभा रहे हैं तो आलाकमान के रणनीतिकार साम-दाम-दंड-भेद, हर दांव आजमा रहे हैं।
उलटा चोर
टू जी स्पेक्ट्रम में एक लाख 76 हजार करोड़, कोयला आवंटन में एक लाख 86 हजार करोड़, राबर्ट वाड्रा के भूमि घोटालों में भी करोड़ों के वारे-न्यारे और विदेशी बैंकों में जमा लाखों करोड़ रुपये का काला धन। कोई और सरकार होती तो शर्मिंदा हो कर इन अंतहीन घोटालों के बाद सत्ता छोड़ कर चल देती, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार का तो हाल ही अजब है। अपना दामन तो साफ हो नहीं सकता, सो उसने अपने विरोधियों के विरुद्ध ही कीचड़ उछाल अभियान शुरू कर दिया है। बेशक कांग्रेस ऐसा पहली बार नहीं कर रही। इस खेल की वह पुरानी घाघ खिलाड़ी है कि जब अपनी कालिख साफ न हो सके तो सभी को वैसा ही रंग दो, ताकि जनता को किसी में कोई फर्क ही नजर न आये। कांग्रेस ने दिल्ली में एफडीआई के समर्थन में रैली आयोजित की तो लगा कि सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के आरोपों तथा महंगाई नियंत्रण में नाकामी पर सफाई देंगी, लेकिन उन्होंने तो 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' के अंदाज में विपक्ष पर ही हल्ला बोल दिया। फिर लगा कि सूरजकुंड की संवाद बैठक में कांग्रेस और सरकार शायद कुछ चिंतन-मंथन करेगी, लेकिन वहां भी सोनिया का हल्ला बोल ही हावी रहा। सरकार और पार्टी नेतृत्व के इस शुतुरमुर्गी रवैये से खुद कांग्रेसी बड़े हताश हैं कि जब नेतृत्व के पास सवालों का कोई जवाब नहीं है तो वे किस मंुह से जनता के बीच जायें?
कांग्रेस का सच
पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं, जिन्हें अक्सर अंग्रेजीदां और जमीन से कटा हुआ मान लिया जाता है, लेकिन उनके हास्य -व्यंग्य बोध का जवाब नहीं। कांग्रेस के 'युवराज' की न जाने किस-किस पद पर ताजपेशी को लेकर लंबे अरसे से अटकलें लगायी जाती रही हैं, लेकिन उनमें से कुछ भी सच साबित नहीं हुआ। इस पर सबसे सटीक टिप्पणी सिन्हा की ओर से आयी। जाहिर है, इस टिप्पणी पर कांग्रेसी तिलमिलाये तो बहुत, पर सच तो कड़वा ही होता है। फिर लाख टके की बात यह कि यशवंत सिन्हा का यह तीर लगा बिल्कुल निशाने पर। अपनी और 'युवराज' की झेंप मिटाने के लिए कांग्रेस ने आखिरकार अगले लोकसभा चुनाव के लिए एक समन्वय समिति गठित करते हुए उसकी कमान राहुल गांधी को सौंप दी।
लाठी-गोली की सरकार
भ्रष्ट राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की कारगुजारियों तथा विदेशों में जमा उनके लाखों करोड़ रुपये के काले धन से आंखें फेर लेने वाली कांग्रेस और उसकी सरकारें आम आदमी पर निगाहें टेड़ी करने का कोई भी मौका नहीं चूकतीं। ताजा मामला महाराष्ट्र का है, जहां गन्ने का उचित मूल्य मांगने पर कांग्रेस सरकार ने किसानों पर गोलियां बरसायीं। अपने शासनकाल में बेलगाम महंगाई को विकास का प्रमाण बताने वाली कांग्रेस अक्सर तर्क देती है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिया जा रहा है, इसलिए भी महंगाई बढ़ रही है। लेकिन यह सफेद झूठ महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादक किसानों पर गोलीबारी से बेनकाब हो जाता है। पिछले चार साल में खुदरा बाजार में चीनी की कीमत तीन गुणा बढ़ चुकी है, लेकिन गन्ना उत्पादक किसान जब दाम बढ़ाने की मांग करते हैं तो मिलती हैं सिर्फ लाठियां और गोलियां।
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