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6 नवम्बर, 2012 को मेलबोर्न (आस्ट्रेलिया) में एक सेमिनार में मुख्य वक्ता के नाते भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के.नारायणन ने भारत और चीन के संदर्भ में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि भूगोल ने दोनों देशों की नियति में प्रतिद्वंद्वी होना तय कर दिया है। उन्होंने कहा कि जिस तरह विवादों पर बातचीत में बीजिंग की दबदबा बनाने की सोच दिखती है, वह बेहद मुश्किलें खड़ी करने वाली है। इतना ही नहीं, नारायणन ने कहा कि पीओके में चीनी गतिविधियां और भारत के पड़ोसी देशों को अपने प्रभाव में लेने की लंबे अर्से से चली आ रहीं चीन की कोशिशें चिंताजनक हैं।
और शायद इसीलिए बीजिंग में 14 नवम्बर को खत्म हुए चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के अठारहवें अधिवेशन पर दुनियाभर के देशों के साथ साथ, भारत की आंखें खासतौर पर जमी रहीं। करीब हफ्ते भर चले इस ऐतिहासिक अधिवेशन में उस कम्युनिस्ट पार्टी की बागडोर नई पीढ़ी को सौंपी गई जो चीन में सरकार ही नहीं चलाती, बल्कि यह तय करती है कि एशिया सहित दुनियाभर में चीन अपना दबदबा बढ़ाने की कौन सी राह पकड़ेगा। 10 साल के अंतराल पर होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में राष्ट्रपति हू जिन ताओ ने पार्टी के महासचिव पद पर उपराष्ट्रपति क्झाई जिंगपिंग को बैठाया और उनके अलावा 200 सदस्यों वाली नीति निर्धारण समिति का गठन किया। ये जिंगपिंग ही हैं जो हू के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे कद्दावर नेता हैं और अगले साल मार्च में हू के राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद राष्ट्रपति बनेंगे। वैसे जिंगपिंग के नाम की हू ने औपचारिक घोषणा मात्र की, क्योंकि चीन के सत्ता संचालन में एकछत्र दखल रखने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में भीतरी अनुशासन इस कदर पक्का है कि सबकी राय लेने के बाद एक नाम तय कर दिया जाता है और उस नाम की आधिकारिक घोषणा होने के पहले नेता ही नहीं, आम आदमी तक किसी को कुछ बताने से गुरेज करता है। अधिवेशन के मौके पर बीजिंग में डेरा जमाए सैकड़ों विदेशी पत्रकारों ने जब जनता के प्रतिनिधियों या 'सूत्रों' की बाबत नेतृत्व परिवर्तन की जानकारी लेनी चाही तो उन्हें टका सा जवाब सुनने को मिला कि 14 तक इंतजार करिए।
क्या कोई बदलाव आएगा?
महासचिव पद पर क्झाई जिंगपिंग के नाम की घोषणा के साथ ही राष्ट्रपति हू ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी चीन की विशाल सेना के प्रमुख के पद पर भी जिंगपिंग का नाम घोषित कर दिया। हालांकि कयास यह लगाया जा रहा था कि हू यह ताकतवर पद फिलहाल अपने पास रखेंगे, लेकिन हू ने वह पद भी त्याग दिया। हू के पूर्ववर्ती तत्कालीन राष्ट्रपति ज्यांग जमिन ने 2002 में हू को पार्टी का महासचिव और राष्ट्रपति घोषित करने के बावजूद सेना प्रमुख का दायित्व दो साल तक अपने पास रखा था।
बहरहाल, पार्टी के सर्वोच्च नीति निर्धारकों में अब जिंगपिंग के बाद दूसरे नंबर पर हैं उप प्रधानमंत्री ली कीक्यांग, जो अगले साल वेन जिया बाओ के बाद प्रधानमंत्री पद पर बैठेंगे। यानी अगले साल से चीन की अर्थव्यवस्था और रणनीतिक सूत्रों का संचालन 59 साल के क्झाई और 57 साल के ली के हाथों में होगा। इस दृष्टि से एशिया में भारत के प्रति टेढ़ी नजर रखते आ रहे चीन में किस तरह के बदलाव आएंगे? क्या चीन रणनीतिक दृष्टि से भारत की घेराबंदी जारी रखेगा? क्या चीनी अर्थव्यवस्था भारत के बाजारों को लीलने की अपनी सोच पर ही बढ़ेगी? क्या पाकिस्तान के साथ चीन की सैन्य नजदीकियां और परमाणु आदान-प्रदान जारी रहेगा? क्या चीन की शह पर पाकिस्तान भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देता रहेगा? क्या चीन दक्षिण एशियाई ताकत के रूप में भारत को मान्यता देकर विश्व मंच पर उसकी बढ़ती भूमिका स्वीकारेगा? ये ऐसे सवाल हैं जिनके कारण भारत का विदेश विभाग, रक्षा विभाग और भारत के वरिष्ठ राजनीतिक, रक्षा और अर्थ विशेषज्ञ चीन में नेतृत्व परिवर्तन की इस प्रक्रिया पर पैनी नजर रखे हैं।
निगाहें सतर्क रहें
भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हू को माओ त्से तुंग काल के बाद का ऐसा नेता मानते हैं जिसने भारत के संदर्भ में रिश्तों को पटरी पर लाने की कुछ कोशिशें कीं। '62 के युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच बढ़े अविश्वास से इतर कारोबारी रिश्तों को बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई। अब हू के जाने के बाद चीन की विदेश नीति पाकिस्तान के संदर्भ में क्या रुख अपनाएगी, यह गंभीरता से देखना होगा। वैसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन के बाद नए नेताओं के अनुभव और उनकी भविष्य की कल्पनाओं को गंभीरता से आंकते रहने की सलाह देते हुए रक्षा विशेषज्ञ कमोडोर चित्रपु उदय भास्कर का कहना है, 'भारत पूरी गंभीरता से नजर रखे कि चीन अपनी सैन्य क्षमता को किस तरह बढ़ाता है और उसका कैसा उपयोग करता है। हू के जाने के बाद चीन में सत्ता की नीतियों में खास बदलाव के कोई संकेत नहीं हैं। रणनीतिक रूप से भले चीन खुद को एक दायरे में दिखाता हो, पर छुपे तौर पर, खासकर पाकिस्तान के माध्यम से वह भारत पर दबाव डाल रहा है। पाकिस्तान महाविनाशक हथियारों से लैस होकर भारत में आतंक बढ़ाने पर आमादा है और चीन को इस बात की पूरी जानकारी है। इस दृष्टि से चीन एक गैर जिम्मेदार देश कहा जाएगा।'
विश्व के बाजार पर छा जाने की चीनी सोच के संदर्भ में कमोडोर उदय भास्कर कहते हैं कि तंग शियाओ फंग के सुधारवादी एजेंडे के लागू होने के साथ ही चीनी अर्थव्यवस्था निश्चित ही पूंजीवाद की राह पर बढ़ रही है। वहां अब माओवादी जुनून की जगह पूंजीवादी जुनून साफ झलकता है। उनका कहना है कि तिब्बत, लद्दाख और अरुणाचल को लेकर चीन की विस्तारवादी नीतियों में कोई बड़ा बदलाव होने की उम्मीद नहीं है।
पूर्व उच्चायुक्त और वरिष्ठ विश्लेषक गोपालस्वामी पार्थसारथी भी मानते हैं कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी दुविधा में है कि अर्थव्यवस्था को ढील दी जाए कि नहीं, क्योंकि वे गोर्बाचोव के काल में रूस की बदहाली देख चुके हैं। उधर चीन की विदेश नीति में आक्रामकता बढ़ गई है और उसकी जापान, दक्षिण कोरिया, विएतनाम, फिलीपींस, ब्रूनेई, मलेशिया आदि देशों से सटीं सागरीय सीमाओं पर विवाद बढ़ गए हैं। इन देशों की चीन के साथ खींचतान जारी है। सीमाओं को लेकर चीन किसी तरह का समझौता नहीं करता और बल प्रयोग तक करने से नहीं हिचकिचाता। भारत में अरुणाचल पर उसके दावे में कोई ढिलाई नहीं आने वाली। चिंता करने की बात यह है कि क्या चीन आक्रामक राष्ट्रवाद की राह पर बढ़ता जाएगा? पार्थसारथी कहते हैं कि रणनीतिक तौर पर चीन भारत की घेराबंदी जारी रखेगा। राष्ट्रपति हू ने पाकिस्तान को परमाणु कार्यक्रम और प्लूटोनियम हथियार बनाने में पूरी मदद दी है। चीन ने पाकिस्तान को युद्धपोत और लड़ाकू विमान दिए हैं। पीओके में चीनी सैनिक मौजूद हैं। भारत को इस दृष्टि से और सतर्क रहना होगा। पार्थसारथी मानते हैं कि आज चीन में माओवादी सोच की जगह पूंजीवादी सोच हावी दिखती है।
चीन की दोतरफा नीति
वरिष्ठ रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल (से.नि.) शेरू थपलियाल भी नेतृत्व परिवर्तन से चीनी रणनीति में ज्यादा बदलाव नहीं देखते। वे कहते हैं कि 'एशिया में चीन द्वारा भारत की घेराबंदी करने की रणनीति को रोकना है तो भारत को पड़ोसी देशों से दोस्ताना रिश्ते बनाने की पहल करनी चाहिए। श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, विएतनाम जैसे देशों से भारत की कमजोर विदेश नीति के चलते दूरी बनी है। चीन इतना चतुर है कि एक तरफ वह व्यापार की बात करता है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान को शह देकर भारत को परेशान रखने की रणनीति अपनाता है। चीन नहीं चाहता कि भारत का प्रभाव दक्षिण एशिया से बाहर तक जाए।'
चीन की बढ़ती आर्थिक और रणनीतिक आक्रामकता के जवाब में साउथ ब्लाक की दृष्टि पड़ोसी देशों से नजदीकियां बढ़ाने पर होनी चाहिए। चीन को घुड़काने की गरज से सिर्फ अमरीका से नजदीकियां बढ़ाते दिखना और उसे खुश रखने की कोशिश करना ठीक नहीं है, क्योंकि अगर '62 फिर से हुआ तो अमरीका अपने राष्ट्रीय हित को देखते हुए भारत के पाले में आएगा, यह सौ फीसदी नहीं कहा जा सकता। इसलिए चीन के नए नेतृत्व की हर नीति, हर कार्यक्रम और हर वक्तव्य पर भारत को चौकन्नी निगाह रखनी होगी।
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