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अमरीका में हुए इस राष्ट्रपति चुनाव ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि अमरीकी मतदाता नस्ल और जाति के आधार पर अपने नेता का चुनाव नहीं करते, बल्कि वे नीतियों के आधार पर नेतृत्व का चयन करते हैं। उनकी सोच में एक पक्ष यह भी रहता है कि उनका नेतृत्व अमरीकी हितों की रक्षा करने में समर्थ है या नहीं। इसे देखकर मन में एक सवाल अक्सर उठता है कि क्या भारत के मतदाता ऐसा नहीं कर सकते? राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम देखकर एक बात और भी नजर आयी कि अमरीका के लोग अब और युद्ध नहीं चाहते और न ही वे अब नये युद्ध कर (वार टैक्स) को झेलने की स्थिति में हैं। वे अब चाहते हैं कि अमरीकी शासन पेंटागन की बजाय व्हाइट हाउस द्वारा लिए गये निर्णयों के आधार पर चले। हालांकि अभी भी अमरीका में 'मिलिट्री-इण्डस्ट्रियल काम्प्लेक्स' का दबदबा है, जिससे व्हाइट हाउस का पूरी तरह से बच पाना मुश्किल है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली भारत सरकार भी इस 'काम्प्लेक्स' के दबाव के बाहर जाने का साहस नहीं दिखा पाती।
भू–राजनीतिक असर
ओबामा की इस जीत से दुनिया क्या महसूस करती है और आने वाले समय को किस रूप में देखती है, यह समझना भारत सहित दुनिया भर के लिए महत्वपूर्ण है। राष्ट्रपति ओबामा अगले 10 वर्षों में रक्षा खर्च में 48.7 करोड़ डालर की कटौती करने के पक्षधर हैं। इसलिए यह सम्भव हो सकता है कि उनकी वैदेशिक नीति युद्धों के बजाय बातचीत और शांति पर आधारित हो। इसलिए ओबामा की जीत से ईरान को काफी रहती मिली होगी, क्योंकि ईरान के लोगों को यह चिंता थी कि अगर रिपब्लिकन पार्टी का उम्मीदवार जीतता है तो इसका मतलब युद्ध हो सकता है, जबकि ओबामा की जीत का मतलब है कि लोगों की जिंदगी सुरक्षित है, क्योंकि अमरीका समेत अन्य देश ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर जल्दी से जल्दी बातचीत शुरू करना चाहेंगे। ईरान में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रति सकारात्मक रुख रखने वाले मानते हैं कि बराक ओबामा ईरान से रिश्ते बेहतर बनाने में ज्यादा समर्थ हैं। हालांकि वे ईरान के परमाणु ठिकाने पर सैनिक कार्रवाई के खिलाफ हैं, लेकिन वे प्रत्येक स्थिति में ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने से रोकने के लिए कृत संकल्पित हैं। इसलिए ईरान को यह नहीं मान लेना चाहिए कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम में सफल हो जाएगा। वैसे भी ईरान को दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए। पहली- ईरान के पास 145 'हाइड्रोकार्बन फील्ड्स' और 297 तेल और गैस भण्डार हैं, जिनके जरिए अमरीका दुनिया के साथ 'एनर्जी डिप्लोमेसी' का खेल खेलने की मंशा रखता है। दूसरी-अमरीका के 'मिलिट्री-इण्डस्ट्रियल काम्प्लेक्स' को जीवित रखने के लिए जरूरी है कि लघु स्तर के युद्ध जारी रहें।
चीन के साथ अमरीका का टकराव जगजाहिर है। चीनी नेतृत्व परिवर्तन अधिवेशन से एक दिन पहले अमरीकी चुनाव परिणाम आ गये और ओबामा की जीत हुयी। यह जीत नये चीनी नेतृत्व के लिए भी राहत भरी हो सकती है, क्योंकि नया चीनी नेतृत्व ओबामा की नीतियों से परिचित है। लेकिन चीन का नेतृत्व बदला हुआ होगा इसलिए अमरीका को चीन के नए नेतृत्व को समझते और परखते हुए अपनी नीतियों को आगे बढ़ाना होगा। चीन के साथ कई मोर्चों पर रूस सक्रिय रणनीतिक सहयोगी के रूप खड़ा नजर आ रहा है और रूसी राष्ट्रपति पुतिन की महत्वाकांक्षाएं नयी विश्व व्यवस्था में रूस को वही स्थान दिलाने की हैं, जो शीतयुद्ध के काल में पूर्व सोवियत संघ का था। चूंकि एशिया प्रशांत क्षेत्र और मध्य-पूर्व, ये दो ऐसे रणनीतिक क्षेत्र हैं जहां चीन और अमरीका सीधे टकराव की मुद्रा में नजर आते हैं, इस पर भारत को ध्यान देना होगा क्योंकि भारत अमरीका की एशिया प्रशांत नीति का हिस्सा बनता जा रहा है, अमरीका प्रशांत क्षेत्र में सम्पन्न होने वाले 'ग्रेट गेम' में भारत को शामिल करना चाहता है। लेकिन भारतीय राजनय सुप्तावस्था में है और नेतृत्व भारत के राष्ट्रीय हितों को अमरीका के सामने गिरवी रख चुका है। अमरीका ने यह निर्णय काफी 'होमवर्क' करने के बाद लिया है।
त्रिपक्षीय सहयोग
उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले एशिया-प्रशांत में भारतीय भूमिका पर व्यापक दृष्टि रखने वाली हिलेरी क्लिंटन और उनकी 'एशिया टीम', जिसमें सहायक विदेश मंत्री कर्ट कैंपबेल सहित कई रणनीतिकार शामिल थे, ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र का भ्रमण कर जापान, दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया के साथ अमरीकी गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी बिन्दुओं को तलाशने का कार्य किया था। इस दौरान उन्होंने जिन महत्वपूर्ण बिन्दुओं की पहचान की थी उनमें सबसे प्रमुख था अमरीका-भारत-जापान के बीच त्रिपक्षीय सहयोग। लेकिन क्या भारत के विदेश मंत्रालय ने भी कोई ऐसा अध्ययन कराकर अपने निर्णयों को व्यावहारिक रूप दिया है? स्पष्ट तौर पर नहीं।
वर्तमान भारतीय नेतृत्व अमरीका को स्वाभाविक मित्र और रणनीतिक साझीदार मानता है, जबकि अमरीका भारत को एक ऐसा उभरता बाजार मानता है जहां वह अपने माल और रक्षा सम्बंधी सौदे सम्पन्न कर सकता है। अगस्त 2012 में अमरीका भारत के साथ 1.4 अरब डालर के 22 'हैवी-ड्यूटी अपाचे हेलीकाप्टर' बेचने सम्बंधी सौदा कर चुका है। पांचवीं पीढ़ी के एफ 35 विमानों के सौदे के बाद उसकी योजना 'बैलेस्टिक मिसाइल' कवच योजना पर भारत के साथ काम करने की है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सौदों के बाद भी अमरीका ने भारत को ईरान से कच्चे तेल के आयात में कटौती करने का 'अल्टीमेटम' दिया, फ्रांस के साथ विमान सौदा सम्पन्न होने पर उसने भारत पर दबाव बनाए और मनमोहन सरकार अमरीका से नये हथियार खरीदने के लिए सहमत हो गयी। फिर भी उसने एक बेवसाइट पर एक नया मानचित्र डाला जिसमें जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को 'डॉटेड लाइन' से दिखाया, जिसका मतलब विवादास्पद क्षेत्र होता है। उसने भारत को एक खतरे के रूप में भी पेश किया, उसने कई मोर्चों पर भारत के विरुद्ध चीन का समर्थन किया। यही नहीं, वह खुलेआम भारत के खिलाफ पाकिस्तानी हितों को प्रश्रय देता है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि अमरीकी 'थिंक टैंक' भारत को सुझाव दे रहा है कि एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए भारत को अमरीका के साथ गहरी साझेदारी करनी चाहिए। भले ही उसे अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का बलिदान करना पड़े, लेकिन वह इसे बलिदान के रूप में नहीं, एक अवसर के रूप में देखे। मनमोहन सरकार ऐसा करने के लिए तैयार भी दिखती है।
अर्थात् ओबामा अपने देश में यह कह सकते हैं- 'से नो टू बैंगलोर एंड यस टू बफेलो'। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ऐसा साहस नहीं कर सकते। इसलिए भारत को ओबामा की जीत से तब तक किसी लाभ की सम्भावनाएं नहीं तलाशनी नहीं चाहिए जब तक हमारे प्रधानमंत्री अपने पैरों पर खड़े होने की नीति का विकास नहीं कर लेते। ओबामा अमरीका की 'मैनेजमेंट बिजनेस' की हैसियत को वैश्विक धरातल पर पेश करने के लिए तैयार हैं। अब देखना यह है कि हमारा नेतृत्व भारत को किस रूप में पेश कर अमरीका से साझेदारी करने की तैयारी करता है।
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