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दुनिया की महाशक्ति माने जाने वाला देश अमरीका जिस तरह से सैंडी तूफान के सामने बेबस नजर आया, उससे यह साफ हो जाता है कि हम विज्ञान और तकनीकी रूप से चाहे जितने सक्षम हो जाएं, अंतत: प्राकृतिक आपदाओं के सामने लाचार ही हैं। सैंडी का कहर अमरीका के 17 राज्यों में बरपा। 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बफर्ीली हवाओं और 14 फीट ऊंची समुद्री लहरों ने चंद घंटों में पांच करोड़ लोगों को मुसीबत में डाल दिया। बिजली के अभाव से अपरिचित रहे 76 लाख लोग अंधेरे से जूझ रहे थे। एक लाख से भी ज्यादा परिवार बेघर हुए। 30 लाख घरों में पानी घुस गया। 18 लोग मारे गए। 15 हजार हवाई उड़ानें रद्द की गईं। भू – सुरंगों से आवागमन बंद रहा। 'शार्ट सर्किट' की वजह से 50 घर आग का गोला बन गए। अमरीका की आर्थिक नब्ज का चौबीसों घंटे हिसाब रखने वाला 'स्टॉक एक्सचेंज' ठप रहा। इससे पहले 1888 में बिजार्ड तूफान ने अमरीका की इस नब्ज को थामा था। शुरूआती आकलन में सैंडी से 45 अरब डालर का नुकसान हुआ और सकल घरेलू उत्पाद दर गिरकर न्यूनतम स्तर पर है। राजधानी वाशिंगटन वर्ष 2003 में आए इसाबेला तूफान के बाद सबसे बदतर हाल में है। अमरीका के व्यापारिक शहर न्यूयार्क ने इस आपदा के आगे घुटने टेक दिए। यहां के लोग 1960 में आए हरीकेन की वापसी की आशंका से आंतकित रहे। कुल मिलाकर आधुनिक विकास और पूंजी के दंभ से दुनिया को नचाने वाले देश को प्रलंयकारी चक्रवात ने असहाय बना दिया।
बढ़ती प्राकृतिक आपदा की घटनाएं
बीते तीन साल के भीतर अमरीका, ब्राजील, जापान, आस्ट्रेलिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया और श्रीलंका में जिस तरह से तूफान, बाढ़, सुनामी भूकंप, भूस्खलन, धूली बंवडर और कोहरे के जो भयावह दृश्य देखने में आ रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि में प्रकृति से किया गया कोई न कोई तो अन्याय अंतर्निहित है। इस भयावहता का आकलन करने वाले जलवायु विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि आपदाओं के यह ताण्डव, एशिया और अफ्रीका के एक बड़े भू–भाग को रहने लायक ही नहीं रहने देगा। इस क्षेत्र से अपने मूल निवास स्थानों से इतनी बड़ी संख्या में विस्थापन व पलायन होगा कि एक नई वैश्विक समस्या 'पर्यावरण शरणार्थी' के रूप में खड़ी होने की आशंका है।
बीते तीन साल में दुनिया में कहर बरपाने वाले प्राकृतिक प्रकोप हैरानी में डालने वाले हैं। इनका विस्तार और भयावहता इस बात का संकेत है कि प्रकृति के दोहन पर आधारित विकास को बढ़ावा देकर हम जो पारिस्थितिकीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं, वह मनुष्य को ही खतरे में डाल रहा है। श्रीलंका में समुद्री तूफान से 3,25,000 लोग बेघर हुए थे। करीब 50 लोग काल के गाल में समा गए थे। समुद्री तूफान से आस्ट्रेलिया में और भी भयानक हालात बने थे। वहां करीब 40 लाख लोग बेघर हुए थे। यहां के ब्रिस्बेन शहर में ऐसी कोई बस्ती शेष नहीं थी जो जलमग्न न हुई हो। पानी से घिरे लोगों को हेलीकॉप्टर से निकालना पड़ा था, तब भी सौ लोग मारे गए थे। फिलीपींस में आई जबरदस्त बाढ़ ने लहलहाती फसलों को बर्बाद कर दिया था। नगर के मध्य और दक्षिणी हिस्सों में पूरा बुनियादी ढांचा ध्वस्त हो गया था। भूस्खलन के कारण करीब 4 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था।
सिर्फ चिंता जताने से कुछ नहीं होगा
इन्हीं दिनों ब्राजील को बाढ़, भूस्खलन और शहरों में मिट्टी धंसने के हालात का एक साथ सामना करना पड़ा था। यहां मिट्टी धंसने और पहाड़ियों से कीचड़युक्त पानी के प्रवाह ने 600 से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली थी। ब्राजील में प्रकृति के प्रकोप का कहर रियो डी जेनेरियो में बरपा था। रियो वही नगर है जिसमें जलवायु परिर्वतन के मद्देनजर 1994 में पृथ्वी को बचाने के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। लेकिन अपने-अपने औद्योगिक हित ध्यान में रखते हुए कोई भी विकसित देश कार्बन कटौती के लिए तैयार नहीं हुआ था बल्कि 1994 के बाद कॉंर्बन उत्सर्जन में और बढ़ोतरी हुई, जिसका नतीजा अब हमारे सामने है। रियो में हालात कितने दयनीय बने थे, इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि यहां शुरुआती आपात सहायता राशि 470 करोड डालर जारी की गई और सात टन दवाएं उपलब्ध कराई गई थीं। करीब दो हजार मकान यहां भूस्खलन के मलवे में बदल गए थे। ऐसे ही कुछ हालात भारत के लद्दाख में भी बने थे।
इसी कालखण्ड में मैक्सिको के सेलटिलो शहर में कोहरा इतना गहराया कि सड़कों पर एक हजार से भी ज्यादा वाहन परस्पर टकरा गए थे। इस विचित्र और भीषण हादसे में करीब 25 लोग मारे गए थे और अनगिनत गंभीर रूप से घायल हो गए थे। ठीक इसी दौर में कैंटानिया ज्वालामुखी की सौ मीटर ऊची लौ ने नगर में राख की परत बिछा दी और हवा में घुली राख ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया। इसके पहले अप्रैल, 2010 में उत्तरी अटलांटिक समुद्र के पास स्थित यूरोप के छोटे-से देश आइसलैंड में इतना भयंकर ज्वालामुखी फटा कि यूरोप जाने वाली 17,000 उड़ानें रद्द करनी पड़ी थीं। आइसलैंड से उठे इस धुएं ने इंग्लैण्ड, नीदरलैंड और जर्मनी को अपने घेरे में ले लिया था। ज्वालामुखी का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस आंका गया था। 3 लाख 20 हजार की आबादी वाले इस शहर के सभी नागरिकों को प्राण बचाने के लिए तत्काल अपने घर छोड़ने पड़े थे, क्योंकि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि ज्वालामुखी से फूटा लावा बफर्ीली चट्टानों को पिघला देगा। लावा और बफर्ीला पानी मिलकर एक ऐसी राख उत्पन्न करेंगे जिससे हवाई जहाजों के चलते इंजन बंद हो जाएंगे। राख जिस इंसान के फेफड़ों में घुस जाएगी, उसकी सांस वहीं थम जाएगी।
क्या लौटेगा हिमयुग?
यूरोप के कई देशों में तापमान असमान ढंग से गिरते व चढ़ते हुए रिकार्ड किया जा रहा है। शून्य से 15 डिग्री नीचे खिसका तापमान और हिमालय व अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में 14 डिग्री सेल्सियस तक चढ़े ताप के जो आंकड़े मौसम विज्ञानियों ने दर्ज किए हैं, वे इस बात के साफ संकेत हैं कि जलवायु परिर्वतन की आहट सुनाई देने लगी है। इसी आहट के आधार पर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि सन् 2055 से 2060 के बीच में हिमयुग आ सकता है, जो 45 से 65 साल तक अस्तित्व में रहेगा। 1645 में भी हिमयुग की मार दुनिया झेल चुकी है। अगर फिर ऐसा हुआ तो सूरज की तपिश कम हो जाएगी, पारा गिरने लगेगा, सूरज की यह स्थिति जलवायु में बड़े परिर्वतन का कारण बन सकती है। हालांकि सौर चक्र 70 साल का होता है, इस कारण इस बदली स्थिति का आकलन एकाएक करना नामुमकिन है।
खाद्यान्न संकट का खतरा
बदलाव की यह मार मालद्वीव और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों के अस्तित्व को पूरी तरह लील लेगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालद्वीव की सरकार ने कुछ साल पहले समुद्र की तलहटी में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया था, जिससे औद्योगिक देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती कर दुनिया को बचाएं, अन्यथा प्रदूषण और विस्थापन के संकट को झेलना मुश्किल होगा। साथ ही सुरक्षित आबादी के सामने इनके पुनर्वास की चिंता तो होगी ही, खाद्य और स्वास्थ्य सुरक्षा भी महत्व की होगी, क्योंकि इस बदलाव का असर कृषि पर भी पड़ेगा। खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अकेले एशिया में बदहाल हो जाने वाली कृषि को सुधारने के लिए प्रत्येक साल करीब पांच अरब डालर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद इसके, दुनिया के करोड़ों स्त्रियों, पुरूषों और बच्चों को भूख व कुपोषण का अभिशाप झेलना होगा। अकाल के कहर ने हैती और सूडान में ऐसे ही हालात बना दिए हैं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने यूरोपीय देशों में आई प्राकृतिक आपदाओं का आकलन करते हुए कहा है कि ऐसे ही हालात रहे तो करीब तीन करोड़ लोगों के भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। भारत के विश्व प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन का कहना है कि यदि धरती के तापमान में महज एक डिग्री सेल्सियस की ही वृद्धि हो जाती है तो गेहंू का उत्पादन 70 लाख टन तक घट सकता है।
जिम्मेदार कौन?
इस प्राकृतिक प्रकोप को क्या मानें, बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण जलवायु परिर्वतन का संकेत? यह रौद्र रूप प्रकृति के कालचक्र की स्वाभाविक प्रक्रिया है अथवा मनुष्य द्वारा प्रकृति से किए गए अतिरिक्त खिलवाड़ का दुष्परिणाम? इसके बीच कोई विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है। हालांकि वैज्ञानिक इस अत्यंत गंभीर होती स्थिति में भी निराश नहीं हैं। वे मानव समुदायों को विपरीत हालात में भी प्राकृतिक परिवेश हासिल करा देने की दृष्टि से प्रयत्नशील हैं, क्योंकि वैज्ञानिकों ने हाल के अनुसंधानों में पाया है कि उच्चतम ताप व निम्नतम ताप (सर्दी) झेलने के बावजूद जीवन की प्रक्रिया का क्रम जारी है। दरअसल जीव वैज्ञानिकों ने 70 डिग्री तक चढ़े पारे और 70 डिग्री सेल्सियस तक ही नीचे गिरे पारे के बीच सूक्ष्म जीवों की आश्चर्यजनक पड़ताल की है। अब वे इस अनुसंधान में लगे हैं कि इन जीवों में ऐसे कौन-से विलक्षण तत्व हैं जो इतने विपरीत परिवेश में भी जीवन को गतिशील बनाए रखते हैं। लेकिन जीवन के इस रहस्य की पड़ताल कर भी ली जाए तो इसे बड़ी मानव कालोनियों तक पहुंचाना कठिन है। लिहाजा सैंडी का शैतानी तांडव देखने के बाद जरूरी हो गया है कि प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और औद्योगिक विकास पर अंकुश लगाने के उपायों को प्राथमिकता दी जाए।
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