संशय में भारत के बीपीओ
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ओबामा फिर अमरीका के राष्ट्रपति
इस बार के अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों को लेकर भारतीयों में न जाने क्यों, एक अजीब सी उत्सुकता दिखी। ओबामा या रोमनी? यह सवाल बहुतेरों के मुंह से बरबस सुनाई दिया। और आखिरकार 7 नवम्बर तक पूरे नतीजे आने के बाद जब डेमोक्रेट ओबामा रिपब्लिकन रोमनी के 206 के मुकाबले 306 वोटों से जीते घोषित हुए तो डेमोक्रेट राष्ट्रपति के फिर से पद पर आने को लेकर भारतीयों में न जाने क्यों एक सुखद नि:श्वास का आभास हुआ। लेकिन 'आउटसोर्सिंग' के धुर विरोधी नीति वाले ओबामा के जीतने के बाद भारत में आई.टी. क्षेत्र के धुरंधरों की मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने में आई। 'टेक महिन्द्रा' के सीईओ विनीत नैय्यर ओबामा की घाटा कम करने, रोजगार पैदा करने की नीति में भारत की आईटी कम्पनियों की बढ़ती भूमिका देखते हैं तो 'माइंडट्री' के सीईओ के. नटराजन भी अमरीकी अर्थव्यवस्था को तेजी से पटरी पर लाने की ओबामा की कोशिशों को भारतीय आईटी उद्यमों के लिए फायदेमंद मानते हैं। लेकिन ओबामा के जीतने से कुछ आईटी महारथी संशय में भी हैं। उनका कहना है कि 'आउटसोर्सिंग' करने वाली अमरीकी कम्पनियों पर टैक्स लगाने की मंशा को ओबामा चुनाव प्रचार में भी प्रचारित करते आए हैं। वे अमरीकी कम्पनियों के रोजगार 'निर्यात' करने को लेकर टिप्पणी करते रहे हैं। इसलिए आगे चार साल 'आउटसोर्सिंग' काम पर टिके भारत के बी.पी.ओ. उद्यम सांसत में ही बने रहेंगे। वैसे, रिपब्लिकन रोमनी ने ओबामा को कांटे की टक्कर जरूर दी, इसमें किसी को शक नहीं है। खुद अमरीका के संयुक्त राज्य ओबामा पर 'असंयुक्त' दिखे।' l
बीते को भूले शिंदे!
पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के साथ भारत का मैच कराने की संप्रग सरकार की उतावली और उत्सुकता के क्या कहने। 'क्रिकेट डिप्लोमेसी' के जरिए, भारत और पाकिस्तान के बीच पाकिस्तान की धरती पर पलते लश्करे तोयबा जैसे जिहादी गुटों के बार-बार हुए आतंकी हमलों से आई खटास को पाटने की नाकाम कोशिश यह सरकार करती रही है। अब एक बार फिर दिसम्बर से लेकर जनवरी 2013 तक भारत और पाकिस्तान के बीच प्रस्तावित क्रिकेट मैचों को लेकर कांग्रेसी मंत्रियों के वही बोल सुनाई देने लगे हैं कि 'भई, बीते को भूल जाओ। खेल वगरैह को सियासत से दूर रखो। दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की सोचो।' भारत के मंत्रियों-नेताओं की ऐसी गुलगुली बातों का पाकिस्तान की आई.एस.आई. और फौजी हुक्मरानों पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता, ऐसा पहले कई मर्तबा जाहिर हो चुका है। शिंदे उसी पाकिस्तान के साथ खेलने की पैरवी कर रहे हैं जिसने मुम्बई हमलों के मुख्य आरोपी हाफिज सईद को चिमटी से भी न छूने का कसम खाई हुई है, उस हमले के दोषियों के खिलाफ किसी न किसी बहाने कार्रवाई करने से कतराहट ही दिखाई है। क्या भारत के गृहमंत्री भूल गए कि उस हमले में 166 निर्दोष भारतीयों की जानें गई थीं? वे भूल सकते हैं उस 'बीते' को? संप्रग सरकार की इसी घुटना टेक नीति के खिलाफ रोष दिखाते हुए शिव सेना प्रमुख श्री बाल ठाकरे ने हाल में कहा कि पाकिस्तान टीम को भारत में खेलने को नहीं न्योतना चाहिए। लेकिन 'बीते को हमेशा भूलती रही' इस सरकार को 'रिश्ते सुधारने' का एकतरफा जुनून है, जनता के दर्द की परवाह नहीं। l
कयानी
की ठसक
पुरानी!
पाकिस्तान के फौजी जनरल अशफाक कयानी ने पिछले दिनों मुल्क के सर्वोच्च न्यायालय से जिस तरह सीधे-सीधे उलझने वाला बयान दिया, उससे पाकिस्तानी सियासत और न्यायापालिका में एक नया बवेला उठ खड़ा हुआ है। कयानी ने फौजी ठसक दिखाते हुए चुनौती भरे लहजे में कहा कि फौज को कमतर आंकना या इसके और जनता के बीच खाई पैदा करने की कोशिश करना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। कयानी आखिर इस तरह बिफरे क्यों? दरअसल इसके पीछे वजह बना पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति इफ्तिखार चौधरी का एक मामले में वह फरमान कि फौज सियासी मामलों में दखलंदाजी से बाज आए। अब भला पाकिस्तान में सियासत और फौज में दूरी क्यों कर हो? फौजी सरपरस्ती में ही तो वहां की सरकारें काम करने की हिम्मत कर सकती हैं। फौजी जनरलों का चौधरी के फरमान पर आंखें तरेरना स्वाभाविक था। सो कयानी ने तरेर दीं। आखिर 65 साल में आधे से ज्यादा वक्त तो फौज ने ही तख्ता पलटते हुए राज किया है।
बिना अदालत या किसी जज का नाम लिए जनरल कयानी ने तड़ से बयान जारी किया कि पाकिस्तान की हथियारबंद सेनाओं और अवाम के बीच, जाने-अनजाने दूरी पैदा करने की कोई भी कोशिश मुल्क के हित को नुकसान पहुंचाती है। कयानी का निशाना सीधे न्यायमूर्ति चौधरी के फरमान की तरफ था, यह मुल्क का हर आमो-खास समझ गया। जिस मामले में चौधरी ने वह फरमान दिया था वह एक सेवानिवृत्त एयर मार्शल से जुड़ा था। अदालत ने फैसला सुनाते हुए सरकार से मामले से जुड़े सेवानिवृत्त जनरलों के खिलाफ संविधान के तहत कार्रवाई करने को कहा था। पर वहां सरकार की फौजियों पर इतनी चलती कहां ½èþ*l
मनचलों का मुंह काला
इजिप्ट की राजधानी कैयरो में जन-क्रांति की लपट के बाद अब महिलाओं का सड़क पर निकलना इतना दूभर हो चला था कि वहां के आम युवकों ने 10-15 जन की टोलियां बनाकर शहर के मुख्य ठिकानों पर मनचलों की खुद खबर लेने का इंतजाम किया है। दरअसल वहां के पुलिस वाले महिलाओं से छेड़छाड़ के मामलों के प्रति इतने बेरुखे हो चले थे कि जनता 'त्राहि माम-त्राहि माम' कहते-कहते थक गई थी। सड़क चलती महिलाओं पर फब्तियां कसना तथा अन्य भद्दे मजाक पुलिसिया लापरवाही से रोजमर्रा की बात बन गए थे। तब युवकों ने कमर कसी। अब वे टोलियों में मनचलों पर नजर रखते हैं और जब कोई महिलाओं को तंग करता दिखता है तो घेरकर उसे पकड़ लेते हैं और धौल-धप्पे के बाद मुंह पर पेंट की बौछार डालते हैं या पीठ पर स्प्रे पेंट से लिखते हैं- 'मैं सताऊ हूं'। कैयरो की महिलाएं इस मदद से काफी खुश हैं और राहत महसूस कर रही हैं। वे उस दिमाग को दुआएं दे रही हैं जिसने 'सताऊ पकड़ो' टोलियां बनाने की यह तरकीब ईजाद की ½èþ*l
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