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बदलाव के लिए चाहिएभारतीय मूल्यों परआधारित वैकल्पिक मीडिया-प्रो. बृज किशोर कुठियाला-

by
Nov 5, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Nov 2012 13:16:04

 

 

संचार एवं कम्प्यूटर की मिश्रित प्रौद्योगिकी ने जो मीडिया की रचनाएं निर्मित की हैं उनकी व्यापकता एवं प्रभाव असीमित है। पारंपरिक रूप से परिवार, विद्यालय, धार्मिक स्थल एवं आसपास का माहौल व्यक्ति और समाज में विचार और संस्कार की स्थापना करते थे, उनमें आज मीडिया की पैठ हो चुकी है। सामाजिक चिंतन व व्यवहार पर मीडिया का सर्वाधिक प्रभाव होता जा रहा है। परंतु मीडिया से निर्मित परिस्थितियों से सभी असंतुष्ट एवं अप्रसन्न हैं। मीडिया की कार्यप्रणाली तथा वे सिद्धांत एवं मूल्य जिनके आधार पर वह काम करता है, समाज हित में है या नहीं इसका उत्तर स्पष्ट नहीं है। न केवल समाज का चिंतक वर्ग, परंतु मीडिया के पाठक-दर्शक और श्रोता ही नहीं स्वयं मीडियाकर्मी और मीडिया के मालिक भी वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट नहीं हैं। मीडिया समाज के हित में क्या कर सकता है और वह समाज के अहित में क्या कर रहा है? यह लगभग सबको स्पष्ट है। इसलिए द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे भारतीय समाज में मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करने से पहले यह समझना अनिवार्य है कि मौलिक रूप से आखिरकार मीडिया है क्या?

प्रकृति का सर्वशक्तिमान एवं सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव

प्रकृति ने मानव शरीर की रचना विभिन्न अंगों की सीमाओं में बांधी है। उसके शरीर की शक्ति अनेक पशुओं से बहुत कम है, आकार भी एक सीमा में बंधा हुआ है। शरीर की ऊर्जा व्यवस्था ऐसी है कि लगातार श्रम करना संभव नहीं है। भार ढोने की क्षमता तुलनात्मक रूप से काफी कम है। अधिक समय तक या अधिक दूरी तक टांगें और पैर चल नहीं सकते। बाजुओं और हाथों की कार्य करने की क्षमता भी बहुत अधिक नहीं है। स्वर तंत्र ऐसा बना है कि अधिक दूर तक आवाज नहीं पहंुच सकती। ध्वनि की तरंगों का एक अंश ही मनुष्य के कान सुन सकते हैं। अनेक पशु और पक्षी मीलों तक देखने की विशेषता रखते हैं, परन्तु मनुष्य की दृष्टि तो सीमित है। सांप, कुत्ता या कई अन्य प्राणी जिस गंध को सूंघ सकते हैं, मनुष्य की नाक में उतनी संवेदना नहीं है। त्वचा में छूकर समझने की शक्तियां तो अत्यन्त निर्बल हैं। समग्र रूप से देखा जाए तो मनुष्य का शरीर अत्यन्त दुर्बल एवं क्षमताहीन लगता है।

परंतु इसी प्रकृति ने मनुष्य के मस्तिष्क को इतना विकसित किया है कि उसके प्रयोग से वह आज प्रकृति का सर्वशक्तिमान एवं सर्वश्रेष्ठ प्राणी बन गया है। मनुष्य का मस्तिष्क ज्ञान को ग्रहण कर सकता है, उसका संग्रहण कर सकता है, विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकता है, नये ज्ञान की रचना कर सकता है और आवश्यकतानुसार उस ज्ञान को उगल भी सकता है। मस्तिष्क की इन असाधारण उपलब्धियों के कारण मनुष्य के मन-मस्तिष्क में नयी-नयी संभावनायें जागृत होती हैं और प्रकृति की भांति ही मनुष्य नवीन रचनाएं एवं सृजन करता ही रहता है।

मानव की आरंभिक चुनौतियां एवं खोज

संभवत: मानवता का इतिहास इसी प्रकार की रचनाओं और नवाचारों की लम्बी श्रृंखलाओं की कथा है। शरीर के विभिन्न भागों की क्षमताओं की सीमाओं को तोड़ना ही मनुष्य का मूल स्वभाव माना जा सकता है। साधारणत: ऐसा पढ़ाया और समझाया जाता है कि मनुष्य ने सर्वप्रथम अग्नि की खोज या अविष्कार किया, परन्तु यह तथ्यात्मक और तार्किक नहीं लगता। सृष्टि की रचना ही अग्नि से हुई है और जब मनुष्य के रूप में एक नये प्राणी का विकास हुआ तो अग्नि करोड़ों साल पुरानी हो चुकी थी। मनुष्य ने संभवत: सबसे प्रथम अग्नि के नियंत्रण की प्रौद्योगिकी की खोज की। आग को बुझाना, कम करना, संभाल कर रखना, सुलगाना और उत्पन्न करना- ये सब मानव जाति के सामने प्राचीनतम चुनौतियां रही होगीं जिन पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने प्रारम्भिक काल में अपने मस्तिष्क का खूब प्रयोग किया।

परन्तु ऐसा लगता है कि मनुष्य के सामने एक और चुनौती दूरियों की थी। वह पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना चाहता था, दूर-दूर तक जाना चाहता था और उसे तो अधिक वजन उठाकर  चलना था। परन्तु उसकी टांगें उसको सीमाओं में बांधती थीं। इस मजबूरी का हल मनुष्य ने पहिये का अविष्कार करके किया और धीरे-धीरे मनुष्य धरती पर अधिक दूरी तय करने व अधिक भार ढोने में सक्षम हुआ। आज भी पूरी की पूरी मानव सभ्यता पहिये की धुरी में ही स्थापित है।

इसी प्रकार मनुष्य को हाथों व बाजुओं का प्रयोग भी अधिक कठिन कार्यों के लिए करना था। बड़ा पशु हाथ के प्रहार से मरता या भागता नहीं था। उसने पत्थर और दण्ड का प्रयोग करना प्रारम्भ किया। वन में प्राप्त कंद-मूल हाथ से टूटते या खुलते नहीं थे इसलिये पैने पत्थरों को उपकरण के रूप में प्रयोग किया। तन को ढकने के लिये धागा कातना और फिर बुनने के लिये उपकरण बनाये। वह भी कम हुये तो खड्डी बनायी, परन्तु फिर भी काम नहीं चला तो कपड़ा बुनने की मिलें बनायीं। हाथ और पैर के प्रहार से जब आक्रमण और सुरक्षा ढीली पड़ी तो तीर, कमान, भाले आदि का निर्माण करते-करते तोप और मिसाइल तक बना ली। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य के उर्वर मस्तिष्क ने उसके विभिन्न अंगों की सीमाओं को तोड़ने के साधन और उपकरण बनाये। कहा जा सकता है कि पहिया टांगों का विस्तार है और सभी उपकरण-मशीनें, हथियार, औजार आदि बाजुओं और हाथों के विस्तार हैं।

संवाद की शक्ति की विस्तार

इसी कहानी से निकलती है आज के मीडिया के सृजन की कहानी। शारीरिक रूप से मनुष्य के संवाद की परिधियां भी बहुत छोटी हैं। उपकरणों के बिना मनुष्य आमने-सामने, परन्तु काफी निकट मनुष्यों से ही वार्ता कर सकता है। परन्तु उसके मन में तो उमंगें थीं अधिक से अधिक साथियों से संवाद बनाने की। भोंपू का प्रयोग हुआ और धीरे-धीरे माइक्रोफोन और स्पीकर के माध्यम से एक ही स्थान पर एकत्रित हजारों-लाखों लोगों तक मनुष्य अपनी बात को पहुंचाने में सक्षम हुआ। परन्तु मनुष्य के मन की उड़ान तो इससे भी बड़ी थी वह तो उनसे भी मन मिलाना चाहता था जो उससे सैकड़ों-हजारों मील दूरी पर हैं। दूरभाष और रेडियो की रचना इसी उत्कंठा के कारण से हुई। कहा जा सकता है कि माइक्रोफोन, रेडियो, दूरभाष और चलभाष सभी मनुष्य की बोलने की सीमित शक्तियों का असीमित विस्तार हैं।

मनुष्य के चक्षु तो देखने की दृष्टि से अत्यन्त कमजोर हैं और पास की नाक को भी नहीं देख सकते। परन्तु मन-मस्तिष्क में उपजी आकांक्षायें तो उसको धरती पर ही नहीं, परन्तु पूरी सृष्टि में विचरण करने की प्रेरणा देती हैं। यही नहीं, मनुष्य तो भूतकाल में भी झांकने का इच्छुक है। इन्हीं उत्कंठाओं से प्रेरित मनुष्य ने कैमरा बनाया, चलचित्र का निर्माण किया, वीडियो कैमरा बनाया और फिर दूरदर्शन का अविष्कार करके चक्षुओं की सीमाओं को असीमित कर दिया। इस प्रकार से सभी प्रकार के कैमरे, चलचित्र और टेलीविजन का प्रसारण मनुष्य के देखने और सुनने की शक्तियों का अनन्त विस्तार है। अपने अनुभवों और विचारों को अनेकों अन्य मानवों से साझा करने की प्रेरणा ने मनुष्य को मुद्रण की प्रौद्योगिकी का निर्माण करने के लिए मार्ग दिखाया। आज के समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, पुस्तकें इत्यादि सभी मानव शरीर की निहित संवाद की क्षमताओं का विस्तार हैं।

परन्तु कहानी और भी आगे बढ़ती है। जिस मस्तिष्क के कारण मनुष्य ने अपने चारों तरफ शरीर के विस्तारों का अनन्त निर्माण किया, वही मस्तिष्क मनुष्य के लिये अब अक्षम लगने लगा। संग्रह करने के लिये सूचनाओं, जानकारियों और ज्ञान का अथाह समुद्र सामने था। स्मरण रखने की क्षमतायें क्षीण होती जाती हैं और समय आने पर मस्तिष्क धोखा भी दे देता है। मस्तिष्क की इन तथाकथित दुर्बलताओं से सामना करने के लिए कम्प्यूटर का आविष्कार हुआ। अब तो जितना चाहो उतना ज्ञान, विज्ञान अपने हाथ में है और जब चाहो तब उसे उगल लो। मस्तिष्क से एक कदम आगे जाकर मनुष्य ने कम्प्यूटर में मिटाने (डिलीट) का प्रावधान भी कर लिया। मस्तिष्क तो कहने या सोचने से कुछ भूलता नहीं है, परन्तु कम्प्यूटर मिटाकर और फिर भी पूर्णरूप से मिटा सकने में सक्षम है। अतिशयोक्ति न होगी यदि यह कहा जाये कि कम्प्यूटर मनुष्य के मस्तिष्क का शक्तिशाली विस्तार है।

कम्प्यूटर युग का जन्म

एक कदम और आगे चलें और आज और अभी के युग को देखें। लाखों-करोड़ों कम्प्यूटर परस्पर जुड़े हुए हैं। जोड़ने के लिए तार भी नहीं लगता है, सब मायावी है। यदि कम्प्यूटर मस्तिष्क का विस्तार है तो ताने-बाने में उलझे हुए कम्प्यूटरों से क्या अभिप्राय है?  मन-मस्तिष्क आपस में मिलते हैं तो अनेक प्रकार के सम्बन्ध बनते हैं। कम्प्यूटर आपस में मिलते हैं तो विश्वव्यापी संजाल (डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू) बनता है। जिसे इन्टरनेट भी कहा जाता है। इस प्रकार से इन्टरनेट मनुष्य के सम्बन्धों की सीमाओं को तोड़कर उनको अनन्त अन्तरिक्ष देता है और सम्बन्धों का विस्तार बनता है।

निष्कर्ष रूप से कहा जाये तो वर्तमान में प्रचलित हर प्रकार का मीडिया मनुष्य की अभिव्यक्ति व संवाद की सीमित क्षमताओं का असीमित विस्तृत रूप है। दुर्भाग्य यह है कि मनुष्य के मस्तिष्क में विकृतियों के उत्पन्न होने की भी उतनी ही संभावनायें हैं जितनी कि सकारात्मक नवाचारों की। अनाधिकार आधिपत्य, संग्रहण का लोभ और दुर्बल पर अत्याचार की प्रवृत्तियां मनुष्य में सहज ही जग उठती हैं। जिस प्रकार पहिये पर आधारित सभी रचनाओं की उपलब्धता मनुष्यों में समान रूप से प्राप्त नहीं हैं, जिस प्रकार उपकरणों और हथियारों का उपयोग मनुष्य ने अपनी ही जाति पर अत्याचार के लिए प्रयोग किया उसी प्रकार मीडिया रूपी संवाद के विस्तार के विभिन्न साधनों का भी दुरुपयोग हो रहा है और समझदारी से काम नहीं लिया तो आगे भी होगा।

मीडिया की विभिन्न रचनाओं की मूल प्रवृत्ति तो अनुभवों और विचारों की पूर्ण सहभागिता की है, परन्तु समाज के अभिजात्य वर्ग ने इन पर कब्जा जमाना प्रारम्भ कर दिया। समाचार-पत्रों में कार्यरत एक छोटा समूह यह तय करता है कि विराट समाज को क्या पढ़ना और सोचना चाहिये। टेलीविजन पर एक प्रस्तुतकर्ता और उसके आस-पास छोटा समूह यह तय करता है कि करोड़ों लोगों को अपनी स्क्रीन पर क्या देखना है और क्या सुनना है। भ्रम पैदा किया जाता है यह कह कर कि मीडिया तो समाज का दर्पण है परन्तु वास्तविकता यह है कि यदि मीडिया दर्पण है भी तो यह साधारण दर्पण नहीं है या तो यह उत्तल (कनवेक्स) है या अवतल (कन्केव) है। पहली स्थिति में बहुत छोटा प्रतिबिम्ब बनता है और दूसरी स्थिति में वास्तविकता से बहुत बड़ा। मीडिया की आदत भी राई का पहाड़ बनाना और पहाड़ को अनदेखा करने की बन गई है। कई बार तो मीडिया लेन्स का काम करता है और किसी विषय पर केन्द्रित होकर धुआं, धुन्ध या आग उत्पन्न करता है। एक वर्ग अपने को श्रेष्ठ और अधिक बुद्धिमान मानकर समाज के सामूहिक विचार व व्यवहार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।

कर्तव्यों से दूर होता मीडिया

इसी प्रक्रिया में मनुष्य के मन का लोभ भी मीडिया को अपने कर्तव्यों से अत्याधिक दूर ले जाता है। हुआ ऐसे कि सूचना प्रौद्योगिकी के कारण से जो मानवता आपस में जुड़ने लगी उसमें लोभ का समावेश हो गया। व्यापक सामाजिक संवाद की परिस्थितियों का व्यवसायीकरण तो कम हुआ परन्तु उसे व्यापार में बदल दिया गया। समाचार-पत्रों का भी अस्तित्व विज्ञापन आधारित बन गया और विज्ञापनदाता पाठक से अधिक महत्वपूर्ण स्थान ले गया और धीरे-धीरे पाठक का कायाकल्प उपभोक्ता के रूप में हो गया। निवेश का अधिकतम लाभ मीडिया के व्यापार में होने लगा। राजनीतिक और व्यापारिक हितों को साधने का मुख्य कार्य मीडिया करने लगा और समाज का विकास और समाज का हित तो लोभ रूपी बादलों में छुप गया। समाज की विचार शक्ति को दिशाविहीन बनाने का कार्य मीडिया ने पूरे विश्व में किया है। परन्तु अपने भारत में तो कम समय में अत्यधिक विकृति पैदा करने में मीडिया सफल हुआ है।

मोबाइल और इन्टरनेट के व्यापक विस्तार से मानव के मन-मस्तिष्क बिना बिचौलियों के जुड़ने लगे हैं। नयी पस्थितियों में कहीं से कहीं भी, किसी का किसी से भी, एक का अनेक से और अनेक का अनेक से संवाद केवल संभव ही नहीं हुआ, बल्कि वास्तव में यह बन भी रहा है। यही परिवर्तन की दस्तक है। मोबाइल और इन्टरनेट के माध्यम से जो संवाद का लोकतंत्रीकरण हुआ है वह भविष्य की एक सुन्दर, स्वर्ग रूपी मानव समाज की कल्पना को जन्म देता है।

विश्वव्यापी संजाल से संचालित एवं चलभाष और कम्प्यूटर के उपकरणों के प्रयोग से जो मानव समाज में भौतिक जुड़ाव की रचना हुई है उसे सकारात्मक सामाजिक संवाद व विमर्श में परिवर्तित करना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। परंतु खतरा ये है कि इस ताने-बाने पर भी कुछ वर्गों का आधिपत्य न हो जाए और दूसरा, इसे भी अन्य मुख्यधारा के मीडिया की तरह व्यापार न बना दिया जाए। मौलिक समस्या सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की है। आज पूरे विश्व में पश्चिम की संस्कृति के आधार पर रचनाएं एवं कार्यप्रणालियां रचित हो रही हैं और वर्तमान का पश्चिम व्यापार का संसार है। भौतिक उन्नति ही प्रगति की द्योतक है। ऐसा मानकर जब मीडिया की रचना होती है तो शुद्ध और पवित्र सामाजिक संवाद ही व्यापार बनने लगता है। आवश्यकता ये है कि मीडिया के व्यापार आधारित दर्शन का विकल्प ढूंढा जाए। यह खोज कठिन नहीं है क्योंकि भारत में जब हम अपने अंदर ही झांकते हैं तो हमें मीडिया की रचना व कार्य प्रणाली के सुंदर, वैकल्पिक दर्शन व सिद्धांत सहज रूप से मिल जाते हैं। मीडिया की दृष्टि (विजन), उद्देश्य (मिशन), आत्मा (स्पिरिट) और भूमिका की खोज अपनी भारतीय संस्कृति में करनी चाहिए।

प्राचीन भारतीय साहित्य में मनुष्य का जीवन

भारत के प्राचीन ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, पुराणों से लेकर मध्यकालीन साहित्य तक मेंे साधारण व्यक्ति के लिए भी सत्य की खोज सबसे महत्वपूर्ण जीवन का उद्देश्य बताया गया है।  मनुष्य के जीवन का उद्देश्य ही सत्य को खोजना और उसका पालन करना है। इसी विचार को एक साधारण वाक्य में बार-बार कहा गया है:-

सत्यं वद धर्मम् चर

सभी तरह के संवाद में सत्य का आधार ही श्रेष्ठतम है। पत्रकारिता के लिए इससे बड़ी दृष्टि और क्या हो सकती है?

आखिरकार मानव समाज के लिए पत्रकारिता और मीडिया क्यों अनिवार्य है? यह केवल त्रुटियां निकालने का कार्य करे ऐसा नहीं हो सकता। समाज में व्यवस्थाओं के प्रति अविश्वास पैदा करे ऐसा भी नहीं हो सकता। वैकल्पिक रूप से मीडिया का कार्य समाज को अधिक से अधिक जोड़कर रखने का हो सकता है। मीडिया विभिन्न वर्गों को जोड़ने के कई सेतु बना सकता है। मीडिया का मिशन ऐसी मानव संस्कृति का निर्माण करने का हो सकता है जिसमें हर मनुष्य शेष सबसे संबंधित है। एकात्मता का मंत्र भी यही सीख देता है। भारतीय संस्कृति पूरे विश्व को एक ही कुनबा बनाने का संकल्प लेती है।

वसुधैव कुटुम्बकम्

पूरा विश्व एक परिवार है। केवल समानता ही नहीं है, परंतु समरसता और समभाव भी है। पूरे विश्व को एकात्म करने का पवित्र उद्देश्य पत्रकारिता का होना ही चाहिए। वैज्ञानिकों ने जो प्रौद्योगिकी मानव समाज को दी है उसका उपयोग मानवता के हित में ही हो, यह बहुत बड़ा उपाय हो सकता है।

भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र विविधता एवं अनेकता की अनिवार्यता और इसके बावजूद एकात्मता होना है। विविधता विकास की पूंजी है। जैविक विकास के वैज्ञानिक भी मानते हैं कि विविधता होने से ही नयी जातियों की रचना हुई है। यह सिद्धांत केवल जीव विज्ञान या समाज की रचना में लागू होता हो, ऐसा नहीं है। यह तो सत्य की प्रकृति है। सत्य तो एक है परंतु उसकी अभिव्यक्तियां अनेक हो सकती हैं।

एकम् सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति

अन्तिम सत्य तो एक ही होता है। परंतु ज्ञानी उसको अपनी-अपनी भाषा और शैली में प्रस्तुत करते हैं। पत्रकारिता भी तो सत्य की खोज है और प्राप्त सत्य को शेष समाज से साझा करने का कार्य है। सत्य को खोकर सत्य का पालन नहीं हो सकता। अपुष्ट खबरों को ‘¥ÉäËEòMÉ xªÉÚVÉ’ बनाना और अधूरे सत्य या सफेद झूठ को समाचार के रूप में प्रस्तुत करना पत्रकारिता की अनिवार्यता नहीं हो सकता।

मीडिया की भूमिका की चर्चा करें तो यह बात सामने आती है कि मीडिया की भूमिका समाज से स्वीकृत होनी चाहिए। मीडिया का एजेंडा मीडिया ही तय करे ये विसंगति है। समाज के स्वीकृत लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन मीडिया होना चाहिए। इसके लिए हर स्तर पर सामाजिक संवाद एवं विमर्श की आवश्यकता है। हर प्रकार से विचार हो, समाज देखे-भाले और आम सहमति से उचित-अनुचित का निर्णय करे। इस समाजोपयोगी कार्य के लिए मीडिया एक अत्यंत उपयुक्त मंच बनना चाहिए। इसके लिए अनिवार्य है कि मीडिया की मिल्कियत कुछ ही हाथों में न हो, बल्कि मीडिया तो महात्मा गांधी द्वारा सुझाए अनेकों ट्रस्टों के हाथ में होना चाहिए। इसीलिए ग्रंथों में कहा गया है-

आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:

हर तरह के सुंदर और उपयोगी विचारों के द्वार हमारे लिए सदैव खुले रहें। गांधीजी ने भी कहा था कि वे अपने मन-मस्तिष्क की खिड़कियां ताजा हवा (विचारों) के लिए खुली रखते हैं, परंतु इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि उनके पैर अपनी ही धरती पर जमे रहें। सार्थक संवाद के लिए विचारों की विभिन्नता हो परंतु दुराग्रह न हो। यही तो विमर्श का आधार है। मीडिया की भूमिका विचार और विमर्श सर्वसम्मत निर्णयों के मंच के रूप में समझी जाए तो एक सुंदर वैकल्पिक भारतीय ब्रांड का मीडिया मिलता है।

भारतीय मनीषा के जीवन में झांकने से पत्रकारिता की सीमाएं भी दिखती हैं। नारद के भक्ति सूत्र 20 में कहा गया है ‘ºÉiªÉ तो यही है, परंतु शब्दों में इसे व्यक्त नहीं किया जा ºÉEòiÉÉ’* पत्रकारिता में भी शब्दों एवं चित्रों से संचार  की दुर्बलताओं की अनुभूति तो होनी ही चाहिए। भक्ति सूत्र 26 में कहा गया ‘ºÉiªÉ की यह घोषणा तो परिणाम है क्रिया नहीं ½èþ’* इसी प्रकार पत्रकारिता भी सामाजिक संवाद का एक साधन है, परंतु इसे कर्म मानकर और कृतित्व का अहंकार करने से विकृतियां पैदा होती हैं। सत्य की खोज और प्रस्तुति मीडिया का मुख्य कार्य हो सकता है। परंतु हर प्रकार के सत्य की प्रस्तुति से परहेज करने की आवश्यकता है। जिस सत्य से दु:ख का प्रसार होता हो, विघटन होता हो और विनाश की संभावना हो उसे प्रस्तुत करना पत्रकारिता का धर्म है या नहीं ये विचारणीय विषय है। शास्त्रों में कहा गया है कि-

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, ना ब्रूयात् सत्यं अप्रियम,

प्रियं च ननरुतम् ब्रूयात्, इशा धर्म: सनातना:

सत्य बोलना ही धर्म है। इसलिए सत्य ही बोलें। ऐसा सत्य बोलें जो हर्ष और उल्लास का संचार करता हो, परंतु अप्रिय सत्य को प्रसारित करने से रोकें और ऐसा तो कभी भी न बोलें जो सत्य न हो। इसका कारण यह भी बताया गया है कि जिस अनुभव को आप सत्य मान रहे हैं वह एक माया और छलावा भी हो सकता है। इसलिए सत्य की पुष्टि करने का भी कर्तव्य हर मीडियाकर्मी को निभाना ही होगा।

मीडिया के कारण से समाज में क्या होना चाहिए अर्थात परिणामों के बारे में भी धर्मशास्त्रों में चर्चा की गई है। नारद ने अपने भक्ति सूत्रों में कहा है कि यदि सभी नियमों का पालन हो तो इस धरती पर स्वर्ग बनेगा और सभी जिनमें पितर भी होंगे उल्लास से नृत्य करेंगे। हर भारतीय तो अपने दैनिक क्रियाओं में ही इस मंत्र का बार-बार जाप करता है-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चित् दु:खभाग् भवेत।

संपूर्ण विश्व में आज एक लहर तरंगें ले रही है। हर विषय में वैकल्पिक दृष्टिकोण की खोज है और अधिकतर ये खोज प्राचीन भारतीय मनीषा में आकर सफल हो जाती है। जीवन दर्शन हो या स्वास्थ्य की देखभाल या फिर प्रकृति के जीव और निर्जीव सभी में आपसी चेतना, सभी में भारतीय चिंतन सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करता है। पश्चिम के बहुत से संचार और मीडिया के चिंतक और शोधार्थी अपनी रचनाओं के अधूरेपन से व्याकुल हैं। उनके समक्ष जब मीडिया एवं पत्रकारिता को सामाजिक संवाद के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो उन्हें सार्थक विकल्प समझ में आता है। भारतीय मूल्यों पर आधारित वैकल्पिक मीडिया की कई रचनाएं यदि हम निर्मित करें तो केवल अपने को ही नहीं विश्व को भी मीडिया की प्रौद्योगिकी का मानव हित के लिए प्रयोग करने का मार्ग प्रशस्त होगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं।)

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