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नारे हैं, नारों का क्या?-जवाहरलाल कौलवरिष्ठ पत्रकार

by
Nov 5, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Nov 2012 13:23:41

 

अण्णा हजारे ने अपनी गांधीगिरी से राजनीति को आंदोलित करने का प्रयास किया, वहीं उनके प्रमुख शिष्य अरविन्द केजरीवाल ने चोर-चोर का शोर मचाकर खलबली मचा दी है। कौन सा तरीका सही है, कौन गलत यह बहस जनता के लिए छोड़ दें और इस बात पर विचार करें कि केजरीवाल करना क्या चाहते हैं, किस प्रकार से राजनीतिक विकल्प देने का इरादा रखते हैं? केजरीवाल ही क्यों, स्वामी रामदेवजी भी विकल्प के लिए ही आंदोलन कर रहे हैं और गोविंदाचार्य भी कई साल से एक राजनीतिक-आर्थिक विकल्प का नक्शा बना रहे हैं। किस बात या किन बातों का विकल्प चाहिए? इसे समझे बिना विकल्प के स्वरूप को समझना भी संभव नहीं है। फिलहाल केजरीवाल चर्चा में हैं इसलिए पहले उनकी ही बात समझने का प्रयास करें।

क्रांति की दस्तक

अण्णा ने कहा था कि देश में राजनीतिक जीवन भ्रष्टाचार से इस सीमा तक भर गया है कि कोई भी काम नहीं बचा है जिसमें लोगों को भ्रष्टाचार का सहारा नहीं लेना पड़ता है। इस बात को आम आदमी आसानी से समझ जाता है क्योंकि वह ही भुक्तभोगी है। उसे प्रतिदिन इस प्रकार के अन्याय से जूझना पड़ता है। इसलिए जब अण्णा ने आवाज दी तो नगर-नगर में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए  और लगा कि क्रांति द्वार खटखटाने लगी है। फिर चला अनशन और धरनों का दौर। लेकिन एक दिन अण्णा को लगा कि कोई लाभ नहीं इससे, सरकार के कान बहरे हो चुके हैं, हमारे चिल्लाते रहने से भी उसे कुछ सुनाई नहीं देता और वे बोरिया-बिस्तर उठाकर अपने गांव चले गए। वे निराश क्यों हुए? कुछ सरकार के रवैये से और कुछ अपने उन सहयोगियों से जिन्हें उनकी गांधीगिरी नहीं सुहाती थी। राजनीति में चेले ऐसे ही होते हैं। इस मामले में वे स्वयं गांधी जी और जेपी से अलग नहीं थे। अंतर केवल इतना था कि गांधी और जेपी के चेलों ने उनका साथ तब तक दिया जब तक उन्हें पता नहीं चला कि अब उन्हें अपना लक्ष्य मिलने ही वाला है। वे तब तक जैसे-तैसे उनके पास ही रहे। लेकिन अण्णा के चेलों में इतना धैर्य नहीं था कि वे अण्णा के नेतृत्त्व को तब तक झेल पाते जब तक पूरा रास्ता न सही, आधा रास्ता तो तय हो जाता। उन्हें 2014 का लक्ष्य दिखाई देने लगा था और प्रतीक्षा करना संभव नहीं था । बात अब भी वे अण्णा की ही करते हैं। यह भी कोई नई बात नहीं। गांधीवादी और जेपीवादी भी अब तक यही कर रहे हैं।

मान लें कि अरविन्द केजरीवाल का मकसद भी वही है जो अण्णा हजारे का था, वे भी देश से भ्रष्टाचार को मिटाना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें लगता है कि उच्च स्तर पर लगाम लगाए बिना यह संभव नहीं क्योंकि भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर नहीं, ऊपर से नीचे आता है। लोकपाल को इतना सशक्त बनाया जाए कि वह प्रधानमंत्री तक को भी कटघरे में खड़ा कर सके। सरकार इस हद तक तो आ चुकी है कि लोकपाल विधेयक पारित करवाया जाए। लेकिन उस विधेयक से अण्णा हजारे सहमत नहीं थे क्योंकि उनके अनुसार यह एक कमजोर व्यवस्था है और शक्तिशाली अधिकारियों को यानी प्रधानमंत्री को इससे बाहर रखा गया है। कुछ और खामियां भी इसमें थीं। इस विवाद के और भी आयाम निकलने लगे। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश क्यों न हों इस के दायरे में, जांच करने के लिए लोकपाल को अलग जांच एजेंसी दी जाए और लोकपाल कौन हो और कौन उसकी नियुक्ति करे? सवाल अनंत हैं और उत्तर भी अनंत। लेकिन एक प्रश्न किसी ने  नहीं पूछा कि अगर प्रधानमंत्री समेत पूरा तंत्र ही भ्रष्ट हैं तो उसे सुधारने का काम सरकार कैसे कर सकती है। अब केजरीवाल इस दावे को पुष्ट करने निकले हैं कि राजनीतिक व्यवस्था बड़े पदों पर बैठे सभी लोग ही भ्रष्ट हैं और इसीलिए वे बड़े पदों पर बैठे लोगों को चोर साबित करने के अभियान में लग गए हैं। सरकारी मंत्री चोर हैं, अफसर चोर हैं, राजनीतिक दलों के नेता चोर हैं और उनके रिश्तेदार भी हैं। जनता को इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि पिछले सालों में जितने घोटाले सामने आए हैं उनसे तो लोगों की गलत या सही धारणा सी बन गई है कि राजनीतिक नेता भ्रष्ट ही होते हैं। मान लें कि यह सच हो तो अगर केजरीवाल यह साबित करने में सफल हो भी गए कि राजनीतिक नेता चाहे पक्ष में हों या विपक्ष में, भ्रष्ट हैं तो फिर चोरों से शासन, प्रशासन और अर्थव्यवस्था में नैतिक क्रांति लाने की आशा करने वालों को क्या कहा जाए?

वे कह सकते हैं कि सब भ्रष्ट नहीं हैं। हम नहीं हैं, आम जनता नहीं है। केजरीवाल और उनके दोस्तों ने कभी जाने-अनजाने भ्रष्ट तरीकों का सहारा लिया कि नहीं कहा नहीं जा सकता। लेकिन आम आदमी के बारे में यह दावा संदेह तो पैदा करता ही है। बड़े अफसर तो भ्रष्ट हैं ही, छोटे अफसर भी अपने हिस्से का भ्रष्टाचार करते हैं, ग्राम प्रधान और पंचों पर भी ये आरोप हैं, थानेदार से लेकर सिपाही तक भी आरोप से मुक्त नहीं। क्लर्क तो बदनाम हैं ही, दुकानदारों पर भी आरोप हैं कि वे सेल्स टेक्स नहीं देते और इसमें ग्राहकों की मिली भगत होती है। आम आदमियों में किस-किस को गिनाया जाए? दिल्ली में जमीन, प्लाटों या मकानों की हर दिन हजारों रजिस्ट्रियां होती हैं। कौन नहीं जानता कि शायद ही कोई सौदा पूरे का पूरा चैक से होता हो। तो क्या नतीजा निकाला जाए? यही कि जो व्यवस्था हमने अपना ली है वही पूरी तरह भ्रष्टाचार पर टिकी है।

कालेधन का मामला

रामदेवजी की इस बात पर वेदना भी सबकी समझ में आती है कि देश का खरबों का धन कालेधन के रूप में विदेशी बैंको में फंसा पड़ा है। उसे देश वापस लाना चाहिए। ऐसा हो जाए तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। लेकिन इससे कोई क्रांति होने वाली है? काला धन तो हर दिन बनता ही रहेगा, उसी धन पर हमारा बहुत सारा करोबार, जिसमें राजनीतिक कारोबार भी शामिल है निर्भर करता है। वही महंगाई के लिए भूमिका तैयार करता है और उसी से भ्रष्टाचार पनपता है। अगर इस व्यवस्था में उसे नित्य बनते ही रहना है तो उसे कहीं न कहीं तो छिपाना ही होगा। आज अगर कुछ देशों ने हम जैसे देशों के काले धन को ही अपनी अर्थव्यवस्था का आधार बना लिया है तो हमारे कालाबाजारी और भ्रष्टाचारी उसका लाभ तो उठाएंगे ही। एक बार आप सारा काला धन ले भी आए तो उससे उसका आगे पैदा होना तो नहीं रुकेगा। इसी संदर्भ में कुछ लोग कहते हैं कि एक बार काले धन को अपराध की परिधि से मुक्त कर दो बशर्ते कि कालेधन वाले ईमानदारी से उसकी घोषणा करें और उस पर कर दें। यह भी एक बार विदेशों से काला धन लाने जैसा ही उपाय है । काला धन न बने इसके लिए अर्थ व्यवस्था, चुनाव प्रणाली, नौकरशाही, ठेकेदारी, यहां तक कि जीवनशैली तक को बदलना होगा।

हमको याद है कभी इंदिरा गांधी ने ‘MÉ®úÒ¤ÉÒ ½þ]õÉ+Éä’ नारा दिया था। कुछ जन उपयोगी कदम उठाए गए। लेकिन गरीबी एक समस्या के रूप में बनी रही। जो राष्ट्रीयकरण की लहर इंदिरा ने चलाई थी वह भी उनके वारिसों के शासन में पलट कर निजीकरण की लहर बन गई। वस्तुत: गरीबी के असली कारणों के बारे में सोचा ही नहीं गया था, बस मरहम पट्टी लगाई गई। गरीबी कैसे हटे इसके लिए एक नई सोच और व्यवस्था की आवश्यकता थी और उसके अभाव में कोई स्थाई और दूरगामी बदलाव नहीं आ सकता था। आज जो लोग बदलाव का नारा बुलंद कर रहे हैं वे भी यही कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि इंदिरा की ही तरह वे भी अपने पक्ष में चुनावी लहर पैदा करेंगे। वे करें या नहीं, लेकिन कोई बड़ा बदलाव तो नहीं ला सकते हैं।

व्यवस्था परिवर्तन का प्रयास

यह सच है कि अपनी अर्थव्यवस्था के विकास में हमने पहला गलत कदम तब उठाया था जब हमने ग्राम को विकास का केंद्र नहीं माना। इसी से वह गलत दिशा में निकल पड़ी। गांधी जी के ग्रामोदय की कल्पना केवल कल्पना ही रह गई और हमारे सत्तारूढ़ नेताओं ने उसे पश्चिमी मॉडलों पर खड़ा कर दिया। गोविंदाचार्य के राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का सार अर्थव्यवस्था को फिर से ग्रामोन्मुख बनाना है। जब तक भारत के बहुसंयख्यक लोग यानी कृषकों का विकास नहीं होता देश का समग्र विकास संभव ही नहीं है। जिस ‘Ê]ÅõC±É डाउन vÉÉ®úhÉÉ’ के आधार पर विकास का मॉडल बनाया गया उसमें विश्वास किया जाता था कि ऊपर विकास होगा तो वह धीरे-धीरे अपने आप नीचे आएगा, जैसे पानी रिसकर नीचे सरक जाता है। लेकिन विकास नीचे आया ही नहीं ऊपर ही रह गया। छोटे से सम्पन्नता के शिखर के तल में गरीबी का दायरा बढ़ता ही गया। लेकिन गोविंदाचार्य भी अर्थ आधारित राजनीति,  विज्ञान प्रोद्योगिकी और समाज व्यवस्था जैसे आयामों के बीच तारतम्य नहीं जोड़ पाए। अपने चर्चित कार्यक्रम सोशल इंजीनियरिंग यानी सामाजिक अभियांत्रिकी के बारे में वे बहुत सक्रिय नहीं दिखाई देते। शायद इसलिए कि सामाजिक समरसता यांत्रिकी से अधिक रासायनिकी का मामला होता है। फिर भी अब तक के व्यवस्था बदलाव के प्रयासों में सबसे कम चर्चित होने पर भी सबसे सारगर्भित यही आंदोलन लगता है।

प्रश्न है कि इन आंदोलनों की परिणति क्या होने वाली है ।  जब लोग यह प्रश्न पूछते हैं तो उनकी रुचि  दूरगामी परिणामों में नहीं, लगभग तात्कालिक नतीजों में ही होती है। विशेषकर 2014 के लोकसभा चुनावों के संदर्भ में, इन सवालों का जवाब खोजने के लिए उन कारकों को समझना होगा जिनसे चुनाव जीते या हारे जाते हैं। पिछले तीन-चार दशक से जातिवाद चुनावों का सबसे बड़ा कारक हो गया है। कोई भी दल आज इस स्थिति में नहीं है कि उसे मतदाता का बहुमत प्राप्त हो और यह सिलसिला पिछले बीस साल से चला आ रहा है। जिन दलों को पूर्ण बहुमत मिल जाता है वे भी इसके अपवाद नहीं हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में सपा को शानदार बहुमत प्राप्त हुआ, लेकिन कुल 29 प्रतिशत मतों के बल पर। बहुमत पाने पर भी सपा उत्तर प्रदेश में उन मतदाताओं का बहुमत नहीं पा सकी जिन्होंने वोट दिया, यानी 71 प्रतिशत मतदाता उसके खिलाफ हैं। जीत केवल एक जातीय गठबंधन से ही हुई। यह उदाहरण देश की चुनावी राजनीति का सच है। चुनाव आयोग ने जो चुनाव व्यय तय किया उसके भीतर व्यय करने वाले उम्मीदवारों की संख्या नगण्य है। यानी काले धन का बड़े पैमाने पर चुनावों में इस्तेमाल होता है। साम्प्रदायिक अलगाव चुनावों को प्रभावित करने वाला बड़ा कारक है। अंत में दक्षिण-उत्तर की खाई आज भी चुनावी सच है। क्या इनमें से किन्हीं या किसी एक कारक को निरस्त करने की क्षमता व्यवस्था बदलने की चाह रखने वाले आंदोलनों में दिखाई देती है? अगर नहीं, तो अपने-अपने टापुओं में चाहे ये सभी कुछ करतब दिखा भी लें, किसी सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के पाले में शामिल भी हो जाएं, लेकिन किसी स्थाई बदलाव की कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए, न राजनीति में और न अर्थव्यवस्था में। (लेखक www.corencrust.com के सम्पादक हैं।)

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