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बंगलादेशी घुसपैठियों के लिए मुम्बई में अमर जवान ज्योति का अपमान – यह सोच सबसे बड़ी चुनौती
देवेन्द्र स्वरूप
0 एक ओर पाकिस्तान पूरी तरह हिन्दूविहीन हो गया है, बंगलादेश में हिन्दू जनसंख्या नगण्य रह गयी है, दूसरी ओर भारत में मुस्लिम जनसंख्या इस कदर बढ़ गई है कि कुछ क्षेत्रों के मुस्लिमबहुल होने का दावा किया जा रहा है। मुस्लिम समाज की मानसिकता आक्रामक व हिंसक हो रही है।
0 आन्ध्र प्रदेश में हैदराबाद, उत्तर प्रदेश में बरेली, कोसी (मथुरा), प्रतापगढ़ के बाद अब फैजाबाद जिले में साम्प्रदायिक हिंसा की लपटें उठ रही हैं।
0 कारगिल के जंस्कार क्षेत्र में बौद्धों का सामूहिक मतान्तरण हुआ है तो कश्मीर घाटी में कुछ मुसलमानों के स्वेच्छा से ईसाई बनने पर भारी उपद्रव हुआ।
0 दिल्ली के निकट गाजियाबाद जिले के मसूरी नामक स्थान पर कुरान शरीफ के पन्ने जलाने की निराधार अफवाह को लेकर पुलिस थाने पर हमला कर दिया गया।
0 इस समय जम्मू–कश्मीर के किश्तवाड़ में 'फेसबुक' पर कुरान शरीफ के अपमान के विरोध में दो दिन से बंद जारी है।
0 हैदराबाद में हरे झंडे को जलाने के विरोध में दुकानें जलाई जा रही हैं, हिन्दुओं की बड़े पैमाने पर धरपकड़ की जा रही है, क्योंकि सोनिया पार्टी का सत्तारूढ़ गुट मुस्लिम वोट बैंक को नाराज करने का साहस नहीं जुटा सकता।
एक भूमि, एक जन, एक परम्परा और संस्कृति'-इन तीन अवयवों के बिना किसी राष्ट्र का अस्तित्व संभव नहीं है। परम्परा और संस्कृति जन को एकता के सूत्र में गूंथती है, उसे पहचान या अस्मिता प्रदान करती है। जन में संस्कृति समायी होती है। जन के बिना संस्कृति अमूर्त होती है। उन दोनों का संबंध प्राण और शरीर जैसा होता है। इन दोनों का धारण करती है भूमि। भूमि ही उनका भौतिक अधिष्ठान होती है। इसीलिए भारतीय जन ने सहस्रों वर्षों से भारत भूमि को माता माना है, उसकी मातृवत् वंदना की है। प्रात:काल आंख खोलते ही 'समुद्र वसने देवी, पर्वत स्तन मण्डले। विष्णु पत्नी नमस्तुम्यं, पारस्पर्शं क्षमस्व में' कहकर सर्वप्रथम उसकी स्तुति की है, चरण रखने के लिए उससे क्षमा मांगी है। इस श्रद्धाभाव से ओत-प्रोत इस समाज के सामने जब उसी के एक अंग (मुस्लिम नेतृत्व अथवा समाज) ने देश विभाजन की मांग उठायी तो वह पहले तो विश्वास नहीं कर सका, फिर उस अंग को विभाजन की मांग से विरत करने के लिए तरह-तरह का मूल्य चुकाने के लिए तैयार हो गया। उसकी एकमात्र आकांक्षा मातृभूमि को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराना और भारतीय संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों के आधार पर सम्पूर्ण विश्व के लिए अनुकरणीय एवं श्रेष्ठ राष्ट्र जीवन खड़ा करने पर केन्द्रित हो गयी थी। इसी प्रखर राष्ट्रभावना से अनुप्राणित होकर वह गांधी, पटेल और नेहरू के नेतृत्व के पीछे एकजुट होकर खड़ा हो गया था। इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि विभाजन की मांग करने वाले अंग को छोड़कर पूरा भारतीय समाज भावनात्मक धरातल पर विभाजन के विरुद्ध खड़ा था। 1937 और 1945-46 के चुनाव परिणामों से यह प्रमाणित हो चुका था।
गांधी और पटेल
पर, इस अभूतपूर्व राष्ट्रीय एकता और गांधी-पटेल- नेहरू का प्रभावी नेतृत्व होते हुए भी देश विभाजन हो ही गया। रक्त के दरिया में तैर कर, लहूलुहान भारत को खंडित स्थिति में अपनी राजनीतिक स्वाधीनता की यात्रा आरंभ करनी पड़ी। विभाजन की इस विभीषिका की खूनी छाया में ही खंडित भारत ने अपने लिए संविधान की रचना की और उस संविधान में देश विभाजन के पाकिस्तान आंदोलन के पीछे खड़े मुस्लिम समाज को न केवल खंडित भारत में बराबरी का स्थान दिया बल्कि अल्पसंख्यकवाद के आवरण में उसकी अलग पहचान स्वीकार की व उसे कई प्रकार के विशेषाधिकार भी प्रदान किये। उस समय विभाजन जैसी भयंकर त्रासदी की कोई वस्तुपरक ऐतिहासिक समीक्षा नहीं की गयी, कोई ईमानदार कारण-मीमांसा नहीं की गयी। वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन के लिए केवल ब्रिटिश भेदनीति को दोषी माना और आर्थिक कार्यक्रमों के माध्यम से मुस्लिम पृथकतावाद को समाप्त करने का विश्वास अपने मन में पाल लिया। यथार्थवादी सरदार पटेल को मुसलमानों का शत्रु बताने वाले कम्युनिस्ट और मुस्लिम प्रचार पर भरोसा करके उन्होंने गांधी जी के मन में सरदार के प्रति अविश्वास का जहर बोया। यह उस समय के इतिहास का बहुत मर्मांतक प्रकरण है कि गांधी जी ने अपने एकनिष्ठ अनुयायी सरदार पटेल, जिसने कांग्रेस संगठन का पूर्ण समर्थन अपने पक्ष में होने के बाद भी केवल गांधी जी की इच्छा पूरी करने के लिए एक बार नहीं, तीन-तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर नेहरू के लिए त्याग कर दिया। यहां तक कि 1946 में जब देश सत्ता के हस्तांतरण के नजदीक पहुंच गया था और कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर आसीन व्यक्ति के सामने प्रधानमंत्री बनने का आकर्षण मौजूद था तब 16 में से 13 प्रदेश कांग्रेस समितियों का समर्थन पाने के बाद भी सरदार ने गांधी जी के इशारे पर नेहरू के लिए अध्यक्ष पद से अपना नाम वापस ले लिया।
यह जानकर मन को बहुत पीड़ा होती है कि अपने जीवन के अंतिम चरण में भी गांधी जी ने सरदार पटेल सरीखे नि:स्वार्थ और त्यागी राष्ट्रभक्त सहयोगी के विरुद्ध नेहरू और मौलाना आजाद के विषवमन पर विश्वास किया और सरदार के लिए कठोर भाषा का प्रयोग किया। दिसम्बर, 1946 में नोआखाली से गांधी जी का एक अत्यंत स्नेहपूर्ण भावुक पत्र नेहरू के नाम और उतना ही कठोर भावना शून्य पत्र सरदार पटेल के नाम इसके ठोस उदाहरण हैं।
यह सच है कि उन दिनों गांधी जी अपने को बहुत उपेक्षित अनुभव कर रहे थे। अपनी मनोव्यथा उन्होंने उद्योगपति घनश्यामदास विड़ला के नाम एक पत्र में उड़ेली। उन्होंने लिखा कि, 'जो कुछ हो रहा है उससे मेरा मन दु:खी है।…मुझे सोचना है कि मेरी जगह क्या है? कार्यसमिति में मेरी आवाज का कोई वजन नहीं है। मैं मंच से हट जाऊं तो मेरा दु:ख चला जाएगा। चीजें जिस ढंग से हो रही हैं उसे मैं पसंद नहीं करता पर मैं खुलकर बोल भी नहीं सकता। इन परिस्थितियों में यदि मैं अलग हट जाऊं तो मैं चुपचाप कुछ कर सकता हूं। आजकल मेरी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो गयी है। क्या सचमुच मेरे हिमालय चले जाने का समय आ गया है? कई लोग मुझे यह सुझाव दे रहे हैं। वे अज्ञानतावश ऐसा कहते होंगे पर उनका कथन विचारणीय है।'…
पटेल और नेहरू
किंतु अपनी इस मन:स्थिति में भी उन्होंने सरदार जैसे यथार्थवादी, नि:स्वार्थ सहयोगी की बजाय सत्ताकांक्षी नेहरू को अपना विश्वास देना क्यों पसंद किया? इस प्रश्न का सही उत्तर पाने के लिए इस कालखंड पर गंभीर शोध की आवश्यकता है। पहला प्रश्न तो यह है कि यदि उस समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सरदार पटेल नहीं होते और उनके पास उप प्रधानमंत्री पद के साथ-साथ गृह मंत्रालय और देसी रियासतों का विभाग नहीं होता तो खंडित भारत का क्या चित्र बनता? हाल ही में 1947 बैच के एक आईएएस अधिकारी एम.के.नायर की आत्मकथा प्रकाशित हुई है। नायर को उस समय नव स्वतंत्र हैदराबाद रियासत में नियुक्ति का अवसर प्राप्त हुआ था। वहां उनकी निजाम के कई विश्वस्त लोगों से घनिष्ठता बढ़ी और शराब के नशे में धुत होने पर उनके मुख से निजाम की भावी योजनाओं की भनक मिली। निजाम ने एक ओर तो उत्तर भारत के कासिम रिजवी के नेतृत्व में 2 लाख शस्त्रधारी रजाकारों की फौज खड़ी कर ली थी, दूसरी ओर ब्रिटिश अधिकारियां के सहयोग से वह हैदराबाद की हिन्दूबहुल रियासत के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाकर उसे अन्तरराष्ट्रीय विवाद का रूप देकर स्वतंत्र यथास्थिति में रखना चाहता था, और बाद में राष्ट्र संघ से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र राज्य बनाने का सपना देख रहा था। जवाहरलाल नेहरू अन्तरराष्ट्रीयता के लोभ में इस जाल में फंसते जा रहे थे, पर राष्ट्रीय एकता के उपासक यथार्थवादी सरदार पटेल ने नेहरू की इच्छा के विरुद्ध निजाम की इस कुटिल योजना को समय रहते ध्वस्त कर दिया। नेहरू को सूचित किये बिना उन्होंने हैदराबाद राज्य में पुलिस कार्रवाई के आवरण में सैन्य कार्रवाई की व्यवस्था कर दी। यह कार्रवाई 13 सितम्बर, 1948 को आरंभ होकर 18 सितम्बर को पूरी हुई। नेहरू को इसकी जानकारी 18 सितम्बर को ही हो पायी। उस दिन 'कैबिनेट मीटिंग' में नेहरू ने अपना आक्रोश प्रदर्शित किया, पर सरदार चुपचाप सुनते रहे। इस पूरे प्रसंग का आंखों देखा वर्णन उस बैठक में उपस्थित एन.वी.गाडगिल ने अपनी पुस्तक 'गवर्नमेंट फ्राम इनसाइड' में और सरदार द्वारा हैदराबाद में नियुक्त के.एम.मुंशी ने एक पुस्तक में किया है। नायर ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में न केवल गाडगिल और मुंशी के कथनों की पुष्टि की है अपितु उन्हें और अधिक तीखा बना दिया है। नायर के अनुसार नेहरू ने आपा खोकर सरदार के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया, पर वे चुपचाप उठकर चले गये। नेहरू का दिल कितना छोटा था, यह 15 दिसम्बर, 1950 को बम्बई में सरदार की मृत्यु के बाद प्रगट हुआ। नायर के अनुसार नेहरू ने केन्द्रीय सरकार के सचिवों को सरदार के अंतिम संस्कार में अपने खर्चे पर जाने का आदेश दिया, पर उनके प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाले वी.पी.मेनन ने ऐसे सब अधिकारियों की बम्बई यात्रा की व्यवस्था अपनी ओर से की। नायर के अनुसार, 'नेहरू ने राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद को वहां जाने से मना किया, पर वे गये। इसी प्रकार वे (नेहरू) वहां गये तो दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धाञ्जलि के दो शब्द भी नहीं बोले। यह काम चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को करना पड़ा। किसी अन्य लेखक के अनुसार नेहरू ने इसे भी पसंद नहीं किया था'।
नेहरू को अपनी राजनीतिक चतुराई और अपने मुस्लिम मित्रों पर इतना अधिक भरोसा था कि उन्होंने छह सौ देसी रियासतों का भारत संघ में विलीनीकरण कराने वाले सरदार पटेल के अधिकार क्षेत्र से मुस्लिमबहुल जम्मू-कश्मीर राज्य को अलग करके अपने पास रखा और उसे राष्ट्र संघ ले जाकर भारत के लिए स्थायी सिरदर्द बना दिया। पिछले 65 वर्षों में कश्मीर को भारत का अटूट अंग बनाये रखने के लिए अपार धन-जन गंवाना पड़ रहा है।
पटेल और इंदिरा
एक राष्ट्र के नाते हमारा इतिहास बोध कितना विकृत है और हम कितने कृतघ्न हैं, इसका अनुभव आज 31 अक्तूबर के दैनिक पत्रों को देखकर पता चलता है। 31 अक्तूबर सरदार पटेल का जन्म दिवस है तो इंदिरा गांधी का बलिदान दिवस। इस दृष्टि से यह दिवस समूचे राष्ट्र के लिए अत्यंत स्मरणीय दिवस है। यदि इंदिरा गांधी ने 5 जून, 1984 को सेना को स्वर्ण मंदिर में 'आपरेशन ब्लूस्टार' नामक सैन्य कार्रवाई करने की अनुमति न दी होती तो सशस्त्र आतंकवादियों ने पंजाब राज्य को खालिस्तान बनाने की पूरी तैयारी कर ली थी। गुरचरण सिंह तोहड़ा एवं संत लोंगोवाल स्वर्ण मंदिर में खालिस्तानियों की कैद से मुक्त होने के लिए प्रधानमंत्री से गुहार लगा रहे थे। पूर्व सेनाधिकारी जनरल सुभेग सिंह जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व में स्वर्ण मंदिर पर खालिस्तानी झंडा फहराने को तैयार बैठे थे। उस समय का एक व्यक्तिगत संस्मरण मुझे याद आ रहा है। संयोग ऐसा हुआ कि इंदिरा जी की हत्या के दिन मैं अपने जन्मस्थान गया हुआ था। बस से लौटते हुए मैं और मेरा एक चचेरा भाई गजरौला नामक स्थान पर एक ढाबे में चाय पीने के लिए उतरे और एक मेज पर जाकर बैठ गये। उसी बस में दो सिख बंधु भी सफर कर रहे थे। उनमें एक अधेड़ उम्र का था और एक नौजवान। वे भी चाय पीने के लिए हमारे पास हमारी मेज पर आकर बैठ गये। चाय पीते हुए वार्तालाप शुरू हो गया। अधेड़ सरदार एक सेवानिवृत्त सैनिक था जो जनरल सुभेग सिंह का साथी था और आपरेशन ब्लू स्टार के समय स्वर्ण मंदिर में उपस्थित था। इंदिरा गांधी की हत्या के समाचार की चर्चा होने पर वह बहुत उत्तेजित स्वर में बोलने लगा। पहले तो उसने इंदिरा गांधी को गालियां दीं। फिर बोला कि वह अगर उस दिन सैन्य कार्रवाई न करती तो पंजाब पर हमने खालिस्तान का झंडा फहरा दिया होता। हमने गांव-गांव में अपने मरजीवड़े तैनात कर दिये थे। पर इंदिरा ने हमारा पूरा खेल बिगाड़ दिया। उस सरदार का कथन सुनकर मुझे इंदिरा गांधी के साहसी निर्णय और उनके बलिदान के ऐतिहासिक महत्व का बोध हुआ। इसलिए इंदिरा गांधी के बलिदान का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।
किंतु यदि सरदार पटेल न होते, उन्होंने 602 रियासतों का विलीनीकरण करके राष्ट्र को एकता के सूत्र में न गूंथा होता तो क्या इंदिरा जी को प्रधानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त होता? क्या भारत एक स्वतंत्र, समर्थ राष्ट्र के नाते विश्व मंच पर अपनी भूमिका निभा पाता? अत: स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे श्रेष्ठ नायक और स्वाधीन भारत की एकता के निर्माता की जयंती को समुचित महत्व देना क्या हमारा धर्म नहीं है? पर आज के दैनिक पत्रों में भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्य सरकारों द्वारा इंदिरा जी के बड़े बड़े चित्रों के साथ स्तवन विज्ञापनों को देखकर जो प्रसन्नता हुई, जो सरदार पटेल के लिए केवल एक विज्ञापन देखकर पीड़ा में बदल गयी। स्पष्ट है कि सरकारी विज्ञानों की इस बाढ़ के पीछे राष्ट्रभक्ति और कृतज्ञता भावना से अधिक सोनिया-वंश के प्रति चापलूसी की भावना अधिक है। यह चापलूसी प्रदर्शन और भेदभाव सर्वथा निंदनीय है।
फिर वही चुनौती
इस विवेकहीन व्यक्ति पूजा का ही परिणाम है कि एक ओर पाकिस्तान लगभग हिन्दूविहीन हो गया है, बंगलादेश में हिन्दू जनसंख्या नगण्य रह गयी है, दूसरी ओर भारत में मुस्लिम जनसंख्या इस कदर बढ़ गई है कि कुछ क्षेत्रों के मुस्लिमबहुल होने का दावा किया जा रहा है। मुस्लिम समाज की मानसिकता आक्रामक व हिंसक हो रही है। दिल्ली में एक मुस्लिम विधायक के नेतृत्व में मुस्लिम भीड़ ने मेट्रो के लिए मार्ग बनाने के लिए खुदाई करते समय एक पुराना अवशेष निकलने पर उसे अकबराबादी मस्जिद घोषित कर दिया और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नगर निगम व दिल्ली पुलिस की उपेक्षा करके वहां रातोंरात एक मस्जिद खड़ी कर दी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 30 जुलाई को निर्णय दिया कि इस अवैध ढांचे को तुरंत हटा दिया जाए। पर नगर निगम को पुलिस सहायता नहीं मिल रही है, पुलिस पुरातत्व विभाग पर टाल रही है और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग पुलिस पर। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 19 अक्तूबर को उस मुस्लिम विधायक को ही उस अवैध ढांचे को हटाने का आदेश दिया तो वह सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। सर्वोच्च न्यायालय के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने विधायक को निर्देश दिया कि वह अपनी याचिका की प्रतियां पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, दिल्ली पुलिस व नगर निगम को पहुंचा दें ताकि 1 नवम्बर को होने वाली सुनवाई में वह भी अपना पक्ष प्रस्तुत कर सकें और तब तक के लिए यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश भी दे दिया। साथ ही न्यायमूर्ति कबीर ने इस अवशेष की ऐतिहासिकता पर अपना विश्वास प्रगट किया है। विधायक की पूरी ताकत मुस्लिम समाज की मतान्धता में है। उनके हिंसक उन्माद में है। उसकी दृष्टि में दिल्ली पुलिस, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते जब तक कि मुस्लिम समाज उसके पीछे खड़ा है। न्यायपालिका, पुलिस और प्रशासन के साथ इस खुले टकराव में उसे अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित दिखाई दे रहा है। आन्ध्र प्रदेश में हैदराबाद, उत्तर प्रदेश में बरेली, मथुरा, प्रतापगढ़ और मसूरी (गाजियाबाद) के बाद अब फैजाबाद जिले में साम्प्रदायिक हिंसा की लपटें उठ रही हैं। कारगिल के जंस्कार क्षेत्र में बौद्धों का सामूहिक मतान्तरण हुआ है तो कश्मीर घाटी में कुछ मुसलमानों के स्वेच्छा से ईसाई बनने पर भारी उपद्रव हुआ। उन ईसाई मिशनरियों को कश्मीर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। दिल्ली के निकट गाजियाबाद जिले के मसूरी नामक स्थान पर कुरान शरीफ के पन्ने जलाने की निराधार अफवाह को लेकर पुलिस थाने पर हमला कर दिया गया। थाना जला दिया, कई पुलिसकर्मी घायल हुए। पर उ.प्र. की मुलायम-आजम-अखिलेश सरकार द्वारा उपद्रवियों को दंडित करने की बजाय पुलिस वालों को ही लांछित और प्रताड़ित किया जा रहा है। इस समय जम्मू कश्मीर के किश्तवाड़ में 'फेसबुक' पर कुरान शरीफ के अपमान के विरोध में दो दिन से बंद जारी है। हैदराबाद में इस्लाम के हरे झंडे को जलाने के विरोध में दुकानें जलाई जा रही हैं, हिन्दुओं की बड़े पैमाने पर धरपकड़ की जा रही है, क्योंकि सोनिया पार्टी का सत्तारूढ़ गुट मुस्लिम वोट बैंक को नाराज करने का साहस नहीं जुटा सकता। पूर्वोत्तर भारत, पं.बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और केरल में अनेक क्षेत्रों को मुस्लिमबहुल कहा जा रहा है। आज 65 वर्ष बाद भारत के सामने पुन: यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि क्या खंडित भारत अखंड रह पाएगा? और यदि इसी प्रकार भूमि का भौतिक अधिष्ठान सिकुड़ता गया तो संस्कृतिनिष्ठा के साथ जन कहां खड़ा रहेगा?
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