कैसे संभले देश?-डा.सतीश चन्द्र मित्तलवरिष्ठ इतिहासकार
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कैसे संभले देश?-डा.सतीश चन्द्र मित्तलवरिष्ठ इतिहासकार

by
Nov 5, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Nov 2012 15:41:27

'लोकतंत्र' दो शब्दों से बना है। लोक और तंत्र। भारतीय चिंतन तथा दर्शन में यह कोई नवीन विचार नहीं है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इसका विस्तृत वर्णन है तथा व्यावहारिक जगत में इसे प्रचुरता से अपनाया गया है। भारतीय चिंतन में इसका सच्चा स्वरूप सदैव विद्यमान रहा है। यद्यपि यह विश्व के किसी भी देश में संभव न हुआ। लोकतंत्र का अर्थ है सम्पूर्ण लोगों की विचारधारा और सम्पूर्ण लोगों के कल्याण को एक साथ लेकर चलना। इसमें लोक मंगल, लोक कल्याण तथा लोक भावना का प्रमुख स्थान है। लोकतंत्र भारत की सांस्कृतिक जीवन व्यवस्था का प्रमुख अंग, पंथनिरपेक्षता की अभिव्यक्ति, राष्ट्रीय जीवन तथा समाज हित का उद्बोधक रहा है। जीवन में उच्च नैतिकता, धर्ममय राजनीति, त्यागमूलक भोग तथा राजनीतिक विकेन्द्रीकरण इसके प्रमुख तत्व रहे हैं।

प्राचीन लोकतंत्र का स्वरूप

प्राचीन भारत में लोकतंत्र का स्वरूप राजतंत्रात्मक व प्रजातंत्रात्मक दोनों रहा, परंतु सभी व्यवस्थाओं में लोकमत की प्रभुता रही। वेदकालीन सभा और समिति, राम का रामराज्य, कृष्ण की नीति, महाभारत के पश्चात अनेक गणराज्य, लोक चेतना की अभिव्यक्ति रही है। प्राचीन राजतंत्रों का स्वरूप कभी भी यूरोपीय निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासकों जैसा न रहा। भारत में राजा को कभी भी दैवीय अधिकारों से युक्त नहीं माना गया। न ही भारत के शासक, टकर्ी के सुल्तान की भांति रहे जिसे यूरोप के विद्वानों ने ‘+ÉäÊ®úªÉÆ]õ±É bä÷º{ÉÉäÊ®úV¨É’ का नाम देकर, जान बूझकर भारत से जोड़ दिया। यह सोचना भी अज्ञानता का सूचक होगा कि विश्व में गणराज्यों का प्रारंभ यूनान के नगर राज्यों में हुआ। अकेले ऋग्वेद में ‘MÉhÉ÷’ शब्द छियालिस बार आया हे। उत्तर वैदिक काल में अनेक गणतंत्रों का उल्लेख मिलता है।

लोकतंत्र के आधार

प्राचीन लोकतंत्र का एक प्रमुख वैशिष्ट्य यह है कि यहां सर्वदा अधिकारों की बजाय कर्तव्यों पर बल दिया गया। लोकतंत्र की सबसे छोटी परंतु सबसे प्रमुख इकाई ग्राम पंचायतें होती थीं, ये लोकतंत्र की प्रभावी अभिव्यक्ति थीं। इन्हें पंच परमेश्वर या लघुगणराज्य भी कहते थे। पंचायत के गठन के बारे में पता चलता है कि इसकी सदस्यता के लिए कम से कम एक वेद का ज्ञान, 35 वर्ष की आयु तथा कुछ भूमि होना अनिवार्य था। इसका अर्थ है कि सदस्य का  सुशिक्षित, विचारों से प्रौढ़ तथा पारिवारिक स्वार्थों से ऊपर होना आवश्यक था। साथ ही अच्छा आचरण न रहने अथवा सार्वजनिक धन के दुरुपयोग पर दंड का विधान भी था। यह भी आवश्यक था कि वह सदस्य रहते किसी निकट संबंधी को किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्त नहीं करेगा। यही रचना विशिष्ट गुणों के साथ ऊंचे पदाधिकारियों के लिए भी थी। श्रेष्ठ प्रधानों की नियुक्ति भी इसी आधार पर होती थी। राजा का चुनाव करते समय भी यही लोकभावना तथा लोकमत की स्वीकृति आदर्श होती थी। राजा को विभिन्न कर्तव्यों का बोध कराया जाता था। राजनीति से धर्म नहीं, बल्कि धर्म से राजनीति का नियंत्रण होता था। राज्याभिषेक के समय राजा शपथ लेता था, ‘ªÉÊnù मैं प्रजा को कष्ट पहुंचाऊं, मैं स्वर्ग जीवन और संतान से विमुख हो VÉÉ>Æð’* इतना ही नहीं, राजा के दुराचारी तथा राजधर्म का पालन न करने पर प्रजा को यह कर्तव्य बतलाया गया कि वे उसका पागल कुत्ते की तरह वध कर दे।

अंग्रेजों द्वारा लोकतंत्र का हनन

भारत में मुस्लिम तथा ब्रिटिश शासन काल में भारतीय लोकतंत्र को जड़-मूल से उखाड़ने के प्रयत्न हुए। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था तथा ग्राम पंचायतों को नष्ट किया। केन्द्रीयकरण की व्यवस्था अपनाकर ग्रामों की न्याय तथा कार्यकारिणी शक्तियां समाप्त कर दीं। ग्रामों में सरकारी पुलिस छोटी-छोटी सरकारी अदालतें स्थापित कीं, भूमि को व्यक्तिगत सम्पत्ति माना, कृषि का वाणिज्यकरण आदि से लोकतंत्रीय व्यवस्था तथा लोकमत का कठोरता से दमन किया।

स्वाधीनता संघर्ष तथा भावी तंत्र

भावी लोकतंत्र के स्वरूप की संकल्पना सर्वप्रथम 1909 में गांधी जी ने हिंद स्वराज्य में रखी। उन्होंने लोकतंत्र का आधार ग्रामीण स्वराज्य बताया, परंतु पंडित जवाहरलाल नेहरू उनके विचारों से सहमत न थे। इस संदर्भ में गांधी जी तथा पंडित नेहरू का पत्र व्यवहार अत्यंत महत्वपूर्ण तथा भारत के भविष्य का सूचक है।

गांधी जी ने 5 अक्तूबर, 1945 को पं.नेहरू को पत्र में लिखा 'मैं यह मानता हूं कि हिन्दुस्तान को कल गांवों में ही रहना होगा। झोपड़ियों में, महलों में नहीं। कई करोड़ आदमी शहरों और महलों में सुख और शांति से कभी नहीं रह सकते।..मेरे इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा, शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिंदगी बसर नहीं करेगा। मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत में मुकाबला करने को तैयार ®ú½åþMÉä’* गांधी जी ने पुन:लिखा, 'स्वराज्य से अभिप्राय है लोक सम्मति के अनुसार व्यवस्था हो, अपना शासन हो और अन्तर्निहित शक्तियों को लोकहित में लगाने तथा गांव के विभिन्न वर्गों के हितों का ध्यान रखकर उन्हें उनके अनुरूप स्वधर्म का पालन करते हुए उच्च आदर्शों के प्रति दृढ़ संकल्प ½þÉä*’

पं.नेहरू ने गांधी जी के बिल्कुल प्रतिकूल उत्तर देते हुए 1 अक्तूबर, 1945 को लिखा, 'मुझे समझ नहीं आता किसी गांव में सच्चाई और अहिंसा पर इतना बल क्यों दिया जाता है। आमतौर पर माना जाता है कि गांवों में रहने वाले लोग बुद्धिमत्ता और सांस्कृतिक तौर पर पिछड़े हुए होते हैं और एक पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती, बल्कि संकुचित विचारों वाले लोगों के झूठ व हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है।…हमें यह देखना है कि हम कितनी तेजी से लक्ष्य हासिल कर सकते हैं..क्या यह ग्रामीण परिवेश में संभव है?'

संक्षेप में दोनों के मार्ग भिन्न थे। गांधी जी ग्रामीण स्वराज्य के पक्षपाती थे और नेहरू भारत को दूसरा यूरोप बनाना चाहते थे। इतना ही नहीं, गांधी जी ने एक ग्रामीण आधारित संविधान की रचना की तथा कांग्रेस को समाप्त करने की बात की, परंतु राजसत्ता के अहंकार में डूबे किसी ने भी उनकी अंतिम इच्छा की ओर ध्यान न दिया।

भारतीय संविधान और लोकतंत्र

1946 में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार केवल 11 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा बनी संविधान सभा का निर्माण हुआ। पं. नेहरू प्रारंभ में संविधान निर्माण का कार्य ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध संविधानशास्त्री सर आइवर जेन्गिंस को देना चाहते थे। प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ एम.वी.पाइली ने नव निर्मित भारत के संविधान को ‘½þÉlÉÒ जैसा भारी ¦É®úEò¨É’ बताया। माइकेल ब्रीचर ने इस संविधान में भारतीय विचारों का पूर्णत: अभाव बताया। इसे शुद्ध रूप से पाश्चात्य चार्टर कहा गया। इस संविधान में भारतीय संस्कृति तथा परंपराओं का पूर्ण अभाव है। 1976 में आपातकाल में इसमें समाजवादी तथा पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़े गए। इसमें लोकतांत्रिक गणराज्य मूलत: ब्रिटिश व्यवस्था से लिया गया। स्वयं 26 जनवरी, 1950 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली ने भारतीय संविधान को ब्रिटेन की देन बताया।

लोकतंत्र के 65 वर्ष

भारतीय संविधान में प्रभुसत्ता न देश की संसद, न कार्यपालिका और न न्यायपालिका के हाथ में दी गई, बल्कि इसे भारतीय जनता के हाथों में दिया गया। परंतु इस लम्बे कालखंड में लोकमत, लोकमंगल तथा लोक कल्याण का तेजी से हृास हुआ। भारतीय आध्यात्मिक धर्म (कर्तव्य), संस्कृति तथा नैतिकता को अधिकतर राजनीतिक दलों ने पहले से ही अपने-अपने चुनावी एजेंडों से निकाल बाहर कर दिया था। बल्कि साम्प्रदायिकता, सेकुलरवाद, अल्पसंख्यक आदि शब्दों की मनमानी परिभाषा गढ़ी तथा जनमानस के साथ खिलवाड़ की नीति अपनाई।

लोकतंत्र की हत्या के दो अस्त्र-अशिक्षा तथा गरीबी ज्यों के त्यों बने रहे। गांधी जी का ग्राम स्वराज्य, आत्मनिर्भर गांव, स्वावलम्बी किसान बेचारा बनकर रह गया। पं. नेहरू ने भारत को दूसरा यूरोप बनाने की होड़ में आर्थिक विकास का नारा दिया। रूसी नकल पर पंचवर्षीय योजनाओं का ऐसा मकड़जाल प्रारंभ हुआ कि गरीब अपना तन क्या ढके, उसकी गरीबी पर एक भी पैबंद नहीं लगा। हां, भारत का योजना आयोग स्वयं ही अपने गरीबी के आंकड़े तथा मापदंड बदलता रहा। हजारों किसानों की आत्महत्याओं तथा लाखों युवकों की बेकारी, बेरोजगारी ने उसे बेहाल कर दिया। इसके विपरीत भारत ने, विदेश के किसी भी देश से आगे बढ़कर भ्रष्टाचार, घोटालों तथा विदेशों में काला धन जमा करने में भ्रष्ट देशों की सूची में अपना स्थान प्रमुख बनाया। आज भारत विश्व के सबसे गरीब देशों में भी आगे है।

स्वाभाविक है स्वास्थ्य में भी भारत की स्थिति अत्यंत भयावह तथा चिंताजनक है। दुनिया में बच्चों के कुपोषण में भारत अफ्रीकी देशों तथा पाकिस्तान से भी आगे है। यही स्थिति गर्भवती महिलाओं की है। विश्वभर में भारतीय बच्चों की मृत्युदर अत्यधिक है। स्वयं प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय शर्मिंदगी कहा है।

यही हाल शिक्षा का है। भारत सरकार शिक्षा-परीक्षा में उलझकर रह गई है। हजारों करोड़ रुपया व्यय होने पर अनेक शिक्षा कमीशन बने। उच्च शिक्षा में 400 विश्वविद्यालयों की योजना बनाकर बेशक सरकार ‘ÊMÉxÉÒVÉ ¤ÉÖEò’ में अपना नाम लिखवा ले, परंतु उच्च शिक्षा संकट में है। शिक्षा का निम्नतम स्तर पर भी बुरा हाल है। 2011 के शिक्षण वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार यह केवल बहुत खराब नहीं, बल्कि इससे भी आगे है। सीखने का स्तर तेजी से गिर रहा है। आखिर उस देश का क्या होगा जहां एक प्रांत का शिक्षा मंत्री दसवीं की परीक्षा में अपनी जगह किसी अन्य को बिठाकर पास होना चाहे।

संकटग्रस्त लोकमत

भारत का लोकमत चारों ओर से संकटग्रस्त है। इस काल में जो भी प्रमुख जनांदोलन जैसे- दो करोड़ भारतीयों का हस्ताक्षर युक्त गोहत्या विरोधी आंदोलन, जेपी आंदोलन, रामजन्मभूमि आंदोलन अथवा अण्णा हजारे आंदोलन सभी को राज्यशक्ति ने उपहास में उड़ाने का प्रयास किया।

वैसे तो 25 जून, 1975 को भारतीय लोकतंत्र पर कलंक का टीका लग गया था जब लोकतंत्र की हत्या कर श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए देश में आपातकाल घोषित कर दिया था, इसे श्री जगजीवन राम ने ‘näù¶É के लिए nÖù¦ÉÉÇMªÉ’ तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘Ê´ÉxÉɶÉEòɱÉä विपरीत ¤ÉÖÊrù’ कहा था। चुनाव की क्षुद्र राजनीति, राष्ट्रनीति को धता बताती रही है। मुस्लिम तुष्टीकरण तथा आरक्षण की नीति ने राजनीतिज्ञों को अंधा बना दिया है। सत्ताधारियों ने देश से ऊपर दलों के हितों तथा व्यक्तिगत स्वार्थों को प्रमुखता दी। राजनीतिक अहंकार में सत्ता पक्ष का न्यायपालिका के आदेशों तथा कानूनों की पालना न करना अथवा अवहेलना करना नित्यक्रम बनता जा रहा है। चुनाव आयोग के सुधारों के सुझावों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है। ऐसी अवस्था में कैग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को भी झूठा कहा जा रहा है।

अशिक्षा तथा गरीबी दूर करने में असफल शासकों ने अब एक ओर विदेशी विश्वविद्यालयों की शिक्षा पाठयक्रम के लुभावने स्वरूप जनमानस को दिखाने का प्रयास किया, वहीं देश की गरीबी दूर करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खुदरा कारोबार (एफ.डी.आई.) को एक अधिसूचना द्वारा भारतीयों पर थोप दिया। आश्चर्य है कि खुदरा व्यापार की बदनाम बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘´ÉɱɨÉÉ]Çõ’ को स्वयं न्यूयार्क वासियों ने ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके विरोध में हजारों लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। महिलाएं वालमार्ट में कर्मचारियों के प्रति भेदभाव की नीति अपनाने पर कानूनी मुकदमे लड़ रही हैं। वालमार्ट पर रिश्वत के आरोप लग रहे हैं। इसमें भारतीय किसान के लिए किसी प्रकार की गारंटी की व्यवस्था नहीं है। छोटे व्यापारियों के शीघ्र उखड़ने की आशंका है। क्या हमने इतिहास से जरा भी सबक लिया, जब ईस्ट इंडिया कंपनी 1600 ई. में भारत में स्थापित हुई, इसके कुल नाममात्र के 217 शेयर होल्डर थे जो बहुत मामूली किस्म के चमड़ा बनाने वाले, परचून की दुकान वाले, मोजे बनाने वाले आदि ने मिलकर कुल 68,373 पौंड से व्यापार प्रारंभ किया तथा प्रत्येक सदस्यता के लिए नियम था कि वह ईमानदार न होगा, बल्कि धनाढ्य होगा। आज तो वालमार्ट 51 प्रतिशत शेयर होल्डरों तथा अरबों रुपयों के साथ व्यापार चाहता है। कंपनी का पहले भी एकमात्र उद्देश्य था आर्थिक लूटमार। क्या लोकमत की उपेक्षा कर सरकार का यह पग भारत में आर्थिक दासता के द्वार न खोल देगा?

क्या कभी गांधी जी ने ऐसे ग्राम स्वरूप के स्वप्न की संकल्पना की थी? काश! यदि गांधी जी जीवित होते तो निश्चय ही इस लोकमत, लोकमंगल तथा लोक कल्याण के विपरीत शासकीय आदेश से बड़े दुखी होते।

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