राम-सापेक्ष राष्ट्रवाद बने परिवर्तन का आधार
|
-जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज
श्रीचित्रकूट तुलसी पीठाधीश्वर
आजकल देश में भ्रष्टाचार, अपराध और असुरक्षा की बढ़ती भावना से लोगों में बेचैनी है। मेरा मानना है कि ऐसे में देश को राम-सापेक्ष राष्ट्रवाद मिलना चाहिए। राम शब्द का शाब्दिक अर्थ ऐसा भी समझें- 'रा'का अर्थ है 'राष्ट्र' और 'म' का अर्थ है 'मंगल'। अब तक तो लोग पंथनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना करते रहे हैं और उसके दुष्परिणाम 65 वर्ष से हम भोग रहे हैं। जो परिकल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी, वह इससे कहीं दूर हो रही है। मैं यहां उन सेनानियों की बात करता हूं जो हुतात्मा बने। महारानी लक्ष्मीबाई, बाल गंगाधर तिलक, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु इत्यादि सेनानियों ने स्वतंत्रता से पूर्व जिस भारत की कल्पना की थी, वह कल्पना साकार नहीं हुई।
धर्मनिरपेक्ष नहीं, पंथनिरपेक्ष राज्य
न जाने कहां से 'धर्मनिरपेक्ष' राज्य आ गया? भारतीय संविधान में भी इस 'धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र' की परिकल्पना नहीं थी। आपातकाल के बाद, संभवत: 24 दिसम्बर, 1976 को इंदिरा गांधी ने 'सेकुलरिज्म' को अपनाया। बाद के नेताओं ने 'सेकुलरिज्म' का अर्थ 'धर्मनिरपेक्ष' कैसे कर लिया, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। मैंने तो 'आक्सफोर्ड डिक्शनरी' में भी 'सेकुलरिज्म' का अर्थ 'पंथनिरपेक्ष' पढ़ा है। अर्थात किसी एक पंथ के आधार पर देश को नहीं चलाना है, पर धर्म के आधार पर तो देश को चलना ही चाहिए। देश का दुर्भाग्य यह है कि लोगों ने धर्म का अर्थ मजहब-पंथ-सम्प्रदाय से जोड़ लिया, जबकि शास्त्र का कहना है कि धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य।
प्रत्येक व्यक्ति को समाज, राष्ट्र या परिवार से जो भी कर्तव्य मिले हैं, उन्हीं को धर्म कहते हैं। अर्थात जो करना चाहिए वही धर्म है, और जो नहीं करना चाहिए वह अधर्म है। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसकी पूर्ण व्याख्या रामचरितमानस में मिलती है। मेरा तो यही विचार है कि जब तक राम-सापेक्ष राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार नहीं होगी तब तक इस राष्ट्र का संकट दूर नहीं होगा। गांधीजी भी रामराज्य की बात कर रहे थे। राम राज्य राम सापेक्ष राष्ट्रवाद ही तो है। मैं तो चाहता हूं देश में बदलाव हो। ऐसा बदलाव हो जिसमें गोवंश की रक्षा हो सके, गीता की रक्षा हो सके, गंगा की रक्षा हो सके, गायत्री की रक्षा हो सके और गोविंद (भगवान) की भावनाओं की रक्षा हो सके।
बदलाव होना चाहिए
सनातन धर्म के पांच प्राण हैं-
गीता: गंगा: गायत्री, गो गोविन्देश्चव:।
सनातनस्य धर्मस्य पंच प्राणौऽदीपिका:।
लोग कहते हैं कि भरत का निवास स्थान होने के कारण इस देश को भारत कहा जाता है। पर मैं भारत की परिभाषा इस प्रकार करता हूं- भारत का अर्थ है-'भ' अर्थात भगवान, 'आ' अर्थात आदर और 'रत' यानी है। अर्थात जिस देश में भगवान का आदर है, वह भारत है।
भगस्य:भगवत:आदर:
रतं प्रेम च चाऽस्मिन तद् भारतं।
यह तो भगवान की भूमि है। इस पर भगवान का आदर भी है और प्रेम भी है। दुर्भाग्य से भगवान की इस भूमि पर भ्रष्टाचार और अनैतिकता बढ़ रही है। यह रोग 'ब्लड कैंसर' का रूप ले चुका है, इसलिए बदलाव तो चाहिए ही। फिर से क्रांति का नारा देना चाहिए। मेरी दृष्टि में हिंसक क्रांति नहीं, वैचारिक क्रांति होनी चाहिए। परिवर्तनकारी और सर्जनात्मक क्रांति होनी चाहिए। मैं सर्जनात्मक क्रांति पर विश्वास करता हूं, विसर्जनात्मक क्रांति पर नहीं।
यह बदलाव या सर्जनात्मक क्रांति का समीचीन माध्यम है राजनीति। शास्त्रीय व्याख्या है 'यथा-राजा तथा प्रजा।' राजा का अर्थ है शासन। जब सुशासन होगा तभी तो प्रजा सुसंस्कृत होगी। अभी तो दु:शासन है। दु:शासन के रहते द्रौपदी सुरक्षित रहेगी क्या? आज प्रजा की स्थिति द्रौपदी जैसी है और शासन की स्थिति दु:शासन जैसी। अभी प्रजा इसलिए निर्वस्त्र नहीं हो पा रही है क्योंकि भगवान उसकी रक्षा करते जा रहे हैं, पर भगवान कब तक रक्षा करेंगे? भगवान को भी संहार की लीला करनी पड़ेगी। मेरी दृष्टि में जब राजनीतिक परिवर्तन होगा तभी स्थिति सुधरेगी।
बदले संसद का स्वरूप
दिल्ली की संस्कृत है 'देहली'। देहली माने देहरी भी। जब 'देहली' पर दीपक होगा तब बाहर-भीतर सब तरफ उजाला होगा। इसलिए 'देहली' में परिवर्तन होना चाहिए। आप कहेंगे कि अभी जिस तरह की राजनीति हो रही है, क्या उससे बदलाव संभव है? मैं इस राजनीति की बात ही नहीं कर रहा हूं। मैं तो राम-सापेक्ष राष्ट्रवाद के आधार पर होने वाली राजनीति की बात कर रहा हूं। जो नेता लोकसभा या राज्यसभा में जा रहे हैं, उनके मन में 'राष्ट्र देवो भव:' का भाव होना चाहिए। जो राष्ट्र को देवता मानें, ऐसे ही लोग संसद में जाएं। जो गंगा भक्त हों, गाय भक्त हों, गीता भक्त हों, गायत्री भक्त हों- ऐसे लोगों की संसद चाहिए। जो अपने लिए कुछ न सोचें, राष्ट्र के लिए सोचें, जिसके जीवन में उत्सर्ग हो, ऐसे कम से कम 370 सांसद चाहिए, तभी निश्चित रूप से परिवर्तन होगा। सत्ता से ही सब कुछ परिवर्तित होगा। रावण के मरने के पश्चात जब भगवान राम राजसिंहासन पर बैठे तो तीनों लोक में हर्ष छा गया और सब दु:ख दूर हुए। तब लिखा गया-
रामराज बैठे त्रैलोका,
हर्षित भये गए सब शोका।
बैर न कर काहूं सन कोई,
राम प्रताप विषमता खोई।।
आज की परिस्थिति में बेचारी जनता कुछ नहीं कर सकती है। हां, इतना हो सकता है कि इस प्रकार के सांसदों को चुनने में जनता जागरूक हो। जनता संसद में अधर्मियों को न भेजे। जनता संसद में रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद को न भेजे। संसद में राम, कृष्ण जैसे लोगों को भेजा जाए। आप कह सकते हैं राम, कृष्ण तो आएंगे नहीं, पर उनके अनुयायी-अनुगामी तो आएंगे। उनके जैसे संस्कारवान लोग तो देश में कहीं न कहीं हैं। और यदि न हों तो उन्हें संस्कारवान बनाया जाए। क्या समर्थ गुरू रामदास ने शिवाजी को नहीं बनाया? क्या तात्या तोपे ने महारानी लक्ष्मी बाई को नहीं बनाया? यह तो बनाने पर है।
विकलांगों की पीड़ा
मैं स्वयं जगद्गुरू था। चाहता तो बड़े आराम से रह सकता था। क्या आवश्यकता थी अधिक परिश्रम करने की? परंतु विकलांगों के प्रति मेरे मन में पीड़ा थी। इसी पीड़ा के कारण मैंने चित्रकूट में विश्व का पहला 'विकलांग विश्वविद्यालय' प्रारंभ किया। यह पहला भी है और एकमात्र भी है। विकलांगों के लिए किसी ने कुछ नहीं सोचा, क्योंकि वे किसी के 'वोट बैंक' नहीं हैं। जबकि आंकड़ों के अनुसार भारत में कम से कम 10 करोड़ विकलांग हैं। इनके लिए न सत्ता ने कुछ किया और न ही संतों ने। विकलांगों के लिए कुछ करके मुझे बड़ा संतोष होता है। इतना संतोष है कि विकलांगों की समस्याओं के समाधान के लिए यदि मुझे नरक में भी जाना पड़े तो मैं तैयार हूं।
इसलिए मैं विकलांगों के लिए भीख तक मांगता हूं। दस से मांगता हूं तो दो देते हैं, आठ नहीं देते हैं। लेकिन मन में संतोष है कि हम एक अच्छा काम कर रहे हैं। अभी हमारे विश्वविद्यालय में 1050 विकलांग अपना जीवन संवार रहे हैं। उनको हम नि:शुल्क शिक्षा, नि:शुल्क भोजन और नि:शुल्क आवास दे रहे हैं। यहां पढ़ाई भी उन विषयों की होती है जिसके पाठ्यक्रम को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने मान्यता दी है। हम बीबीए, एमसीए, एमबीए, बीटेक, एमटेक, बीएसडब्ल्यू, एमएसडब्ल्यू, बीएड (जनरल), बीएड (स्पेशल), एमएड (जनरल), एमएड (स्पेशल) इत्यादि की पढ़ाई करवा रहे हैं। अब तक हमने लगभग पांच हजार विकलांगों को रोजगार भी दिलाया है।
मेरी मान्यता है कि विकलांग भी इस राष्ट्र के अंग हैं। यदि वे सुखी नहीं रहेंगे तो यह राष्ट्र कैसे खुशी रहेगा? भगवान राम और भगवान कृष्ण के चरित्र को देखिए। जब सुधार की बात आई तो उन दोनों ने पहले विकलांगों पर दृष्टि डाली। अहिल्या उद्धार के पीछे भगवान राम की तो यही परिकल्पना थी कि उसका उद्धार होना चाहिए, क्योंकि वह विकलांग थी। आज की भाषा में बोलो तो उसे 'माउथ कैंसर' भी था और 'पैरालाइसिस' भी था। अहिल्या का उद्धार भगवान राम ने किया तो कुब्जा का उद्धार भगवान श्रीकृष्ण ने किया। जब रावण ने जटायु को विकलांग बना दिया तो क्षत-विक्षत जटायु को भगवान ने अपनी गोद में ले लिया। इस दृष्टि से मैं मानता हूं कि संवेदना और मानवता की दृष्टि से संत की एक महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।
संत आगे आएं
संतों को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कारित होना पड़ेगा। संत अपनी संकीर्णता और विलासिता छोड़कर राष्ट्र के लिए काम करें। संत को किसी राजनीति में नहीं आना चाहिए। संत को किसी पार्टी विशेष का सदस्य नहीं बनना चाहिए। संत की तो एक ही पार्टी होनी चाहिए-मानवता। संतों को दीन-हीनों के प्रति सदैव आगे आना चाहिए। संत को एक सकारात्मक सोच की ओर बढ़ना चाहिए। जब संत सकारात्मक सोच के साथ आएंगे तो निश्चित रूप से वे समर्थ गुरू रामदास की भूमिका निभाकर शिवाजी जैसे लोग बना सकेंगे। और जब शिवाजी जैसे लोग संसद में होंगे तो परिवर्तन अवश्य होगा। हां, इसमें समय लगेगा, पर इस दिशा में कार्य प्रारंभ हो जाए तो यह अवधारणा पूरी हो सकती है।
इस अवधारणा को पूरा करने में हमारे संविधान की भी प्रमुख भूमिका है। इसी संविधान के अंतर्गत देश चलता है। परंतु मेरा मानना है कि संविधान के निर्माता ही राम-सापेक्ष राष्ट्रवादी नहीं थे। मुझको तो भारतीय संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद कंठस्थ है। नाम है इसका भारतीय संविधान, पर वास्तव में यह भारतीय संविधान नहीं है। यह जर्मन, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका- चार संविधानों की कतरन है। कोई मुझे बताये कि मनुस्मृति के किस अनुच्छेद के आधार पर यह संविधान बनाया गया? संविधान निर्माण की हमारी कोई सोच ही नहीं थी। संविधान की पहली ही भूल है 'इंडिया दैट इज भारत'। क्या संविधान निर्माताओं को यह ज्ञान नहीं था कि इस देश का नाम पहले 'इंडिया' था या भारत? यहीं से भूल प्रारंभ हुई। इसमें परिवर्तन तब हो सकता है जब 370 सांसद राम-सापेक्ष राष्ट्रवादी हो जाएं।
मनुस्मृति को समझें
कोई कहेगा कि मनुस्मृति को संवैधानिक मान्यताओं का आधार कैसे माना जाएगा। वह तो एक जाति विशेष का है, धर्म विशेष की ही बात है। इस संदर्भ में मैं पूरी जिम्मेदारी से कहना चाहूंगा कि ऐसी बातें वही लोग करते हैं जिन्हें राम शब्द का भी ज्ञान नहीं है। जिनको भारतीय संस्कृति का एक अक्षर भी नहीं आता है, वही मनुस्मृति के बारे में भ्रम फैलाते हैं। मनुस्मृति को कौन जानता है? किसने मनुस्मृति की कुलुक भट्ट की टीका देखी है -'मन्वर्थ मुक्तावली'? भारतीय ग्रंथों को सरसरी दृष्टि से नहीं पढ़ा जा सकता है। उन्हें गुरुजनों के चरणों में बैठकर पढ़ा जा सकता है। मनुस्मृति को पढ़ने वाले कितने लोग हैं? बिना पढ़े आप उस पर क्या बोलेंगे? मनुस्मृति आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक है। परीक्षा में जब कोई छात्र अनुत्तीर्ण हो जाता है तो उसके चाहने पर उसकी पुस्तिका का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है। मैं मानता हूं कि हम भी अनुत्तीर्ण हो गए हैं। एक बार भारतीय वाड्.मय का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए, पुनर्व्याख्या होनी चाहिए। वेद ने एक वाक्य कहा है, मनु ने जो कह दिया है वही जीवन की महौषधि है। पर हम इस बात को भूल रहे हैं। मनु ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है जो विष बने। हम उनके वाक्यों को समझ नहीं पा रहे हैं। इसलिए उपनिषद ने कहा, 'अपने मन से भारतीय ग्रंथों को मत समझो।' महापुरुषों के चरणों में बैठकर भारतीय ग्रंथों को समझना होगा। आजकल तो जो वेद, पुराण नहीं मानते हैं उन्हीं को संत कहा जा रहा है। पहले जिसे भारतीय वाड्.मय का पूरा ज्ञान होता था, उसे संत कहा जाता था। पहले हम लोग चमत्कार को नमन नहीं करते थे, न ही आस्था चमत्कार पर आधारित होती थी। पर आज हम सब यही कर रहे हैं। देश की वर्तमान चुनौतियों और समस्याओं के समाधान के लिए मैं देशवासियों से यही कहना चाहूंगा कि उसे एक बार राम-सापेक्ष राष्ट्रवादियों का चुनाव करना चाहिए। राम ही इस देश को बचा सकते हैं। अरुण कुमार सिंह
टिप्पणियाँ