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बदलाव की पद-चाप

by
Nov 3, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Nov 2012 12:15:02

पण्ति-पत्नी जंगल से घर लौट आये थे। सुबह होते ही दोनों घर से निकलते थे। झोपड़ी-झोपड़ी दस्तक देते थे। तब दोपहर बाद वनवासी किसी एक जगह एकत्रित होते थे। अब वे दोनों अकेले भी नहीं थे। उनके अभियान में नौजवान एवं बुजुर्ग भी जुड़ गये थे। फिर भी उन्हें अधिक परिश्रम करना पड़ता था। जंगल के गांव मैदानी इलाकों के गांव जैसे नहीं होते हैं। दो-चार कि.मी. के दायरे में बनी झोपड़ियां मिलकर एक गांव बनाती हैं। वन विभाग इन्हें गांव नहीं मानता। उसका मानना है कि ये लोग 'फारेस्ट' की जमीन पर अतिक्रमण किये हुए हैं। इसलिए ग्रामीणों और 'फारेस्ट' वालों के बीच तनातनी होती रहती है। गांव वाले लकड़ी काटकर बेचते और पेट पालते हैं। 'फारेस्ट' वाले उन पर अवैध कटाई का मुकदमा दर्ज कर गिरफ्तार करते हैं। कभी पुलिस आ जाती है, कहती है कि झोपड़ी नहीं बना सकते, क्योंकि 'फारेस्ट' की जगह है। वनवासी आये दिन बेदखल होते हैं और फिर कहीं और झोपड़ी बनाकर अपनी दुनिया बसाते हैं। पति-पत्नी वनवासियों को संगठित करने का अभियान चला रहे थे। उनका उद्देश्य इतना था कि उन्हें उनके पूर्वजों की भूमि से बेदखल न किया जाये। वे चाहते थे कि देश स्वतंत्र है तो स्वतंत्रता की एक किरण इन जंगलों तक भी आ जाये।
दिन-भर के अभियान के बाद वह अपने घर लौटा था। उसका सिर भारी हो रहा था। पत्नी खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। 'सोना नहीं! अभी दो रोटियां बन जायेंगी। खाकर सो जाना' – पत्नी ने कहा। चूल्हे में आग सुलगाते हुए वह बोली – 'हम इतनी भाग-दौड़ कर रहे हैं। लेकिन क्या होगा? इतने सालों से उपेक्षा सहते-सहते आदत पड़ गई है। इसलिए उनके खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता, तो दूसरे लोग साथ नहीं देते।' पति ने मुंह धोते हुए समझाया,  'हम उसी दिन के लिए परिश्रम कर रहे हैं जब सब एक साथ खड़े हो जायें। जब तक संगठित नहीं होंगे, यह सब चलता रहेगा।'
वह जानता था कि पत्नी की हताशा स्वाभाविक है। उन दोनों ने कड़ी मेहनत कर दो-पैसे जोड़े थे और घर बनाया था। जब घर में सामान को सलीके से रख लिया था तब वह एकाएक गले लग गयी थी। उसे जितनी खुशी विवाह के समय हुई थी, उससे अधिक आज हो रही थी। उस दिन जीवन का साथ मिला था और आज उसे जीने का विश्वास। पत्नी का माथा चूमकर उसने पूछा – 'खुश हो? जब शादी हुई और तुम्हें झोपड़ी में लाया था तब से मन में था कि तुम्हें पक्का घर बनाकर दूंगा। आज वर ने वह आरजू पूरी कर दी। तुम आज शादी वाले कपड़े पहनना। मैं तुम्हें देखूंगा।'
दरवाजे पर दस्तक हुई। कोई दरवाजा खटखटा रहा था। खटखट की आवाज से साफ झलक रहा था कि कोई बधाई देने या मिलने वाला नहीं है। वह दरवाजा खोलता उससे पहले ही तेज आवाज के साथ दरवाजा खुला। सामने दीवान आकर बोला – चल बाहर निकल। दीवान ने उसके सिर के बाल खींचे और बाहर ले गया।
उसके हाथ में नोटिस के कागज थमा दिये और कागज पाने के हस्ताक्षर करा लिए। दीवान के साथ जंगल विभाग के कर्मचारी आये थे। एक कर्मचारी ने कहा – 'नोटिस पढ़ लेना। धाराएं लगी हैं। तारीख पर आ जाना – नहीं तो….. मार-मार कर भूत बना देंगे।' दीवान ने उसकी पत्नी की ओर देखा – 'तू क्या देख रही है…. बड़ी हीरोइन बनी फिरती है।' कर्मचारी बीच में बोल पड़ा – 'अरे दीवान जी…. इसे पहचाना – ये वही है… इसने ही तो मेरी शिकायत करने की धमकी दी थी।' दीवान ने कहा – 'बेवकूफ है यार। 'फारेस्ट' कानून में अन्दर कर देता। चल…. कोई बात नहीं… इसके हीरो को चार दिन बाद उठाकर अन्दर कर देंगे।
'दीवान! तमीज से बात कर। घरवाली तेरी भी होगी' – उसने चिल्ला कर कहा। दीवान मिसमिसाया। वह डंडा हिलाते हुए बोला- 'जिस दिन तू मेरे चक्कर में आया – उस दिन तेरी हेकड़ी भी निकालूंगा और तेरी घर वाली की हड्डियां भी चटकाऊंगा। 'फारेस्ट' का कर्मचारी बोला – 'अभी इसे ले चलो…. साहब। बड़ी अकड़ दिखाता है।' दीवान मिसमिसा रहा था कि अभी कुछ किया तो इसकी बिरादरी के लोग इकट्ठे होकर हंगामा खड़ा कर देंगे। अनुसूचित जनजाति का केस बन गया तो आफत हो जायेगी। दीवान ने 'फारेस्ट' वाले को डंडा थमाते हुए कहा – 'तू मार। तेरी जात का है तो केस नहीं बनेगा।' पत्नी से रहा नहीं गया, वह एक लाठी लेकर आ गई और 'फारेस्ट' वाले पर टूट पड़ी – 'जाति बिरादरी का बनता है और जाति बिरादरी वाले को सताता है।' दीवान बीच-बचाव की मुद्रा में आ गया, लेकिन खुश था कि अब सरकारी कर्मचारी पर ड्यूटी करते समय हमला करने की एफआईआर हो जायेगी। लेकिन 'फारेस्ट' वाला एफआईआर को तैयार नहीं हुआ। उसके खिलाफ पहले से ही शिकायत की जांच हो रही है, जिसमें ये गवाह है। अन्तत: दीवान और 'फारेस्ट' वाले चले गये।
पत्नी सो रही थी। उसकी शादी वाले कपड़े रस्सी पर लटके हुए थे। कभी-कभी सपनों को टांग देना पड़ता है। कहने को कहा जाता है कि ऊंचे-ऊंचे सपने देखो, उन्हें पूरा करने की दृढ़ इच्छा शक्ति करो-लेकिन हकीकत क्या है? यही कि गरीब को सपने देखने का अधिकार नहीं है। उसे लगा कि वह अपने भीतर एक हार स्वीकार कर रहा है। वह हार कैसे मान सकता है। हार माननी होती तो उस दिन ही मान लेता जिस दिन उस जैसों से कहा था कि तुम जंगल पर अतिक्रमण कर रहे हो…. उसने हार नहीं मानी और गांव-गांव यात्रा कर लोगों को जगाया था।
उसको अपने पिता की याद आ रही थी, जिसके पास पहनने को कपड़े और खाने को अनाज नहीं था। उसके लिए जंगल ही सहारा था। पिता लकड़ियां काटकर हाट-बाजार में बेचने जाते थे तो 'फारेस्ट' और पुलिस वाले वसूली करते थे। जब पिता वसूली नहीं देते थे तब उन्हें कभी 'फारेस्ट' और कभी पुलिस चौकी में बैठाया जाता था। उन्हें जितने दिन बैठाया जाता उतने दिन घर में खाने के लाले पड़ जाते। उसकी मां महुआ बीन कर जमा कर लेती या घास काटकर लाती तो उन्हें चौकी ले जाया जाता था। यदि कोई विरोध करता तो केस बनाकर गिरफ्तार कर लेते थे। युवतियों को दो वक्त की रोटी के लिए मान लेना पड़ता था कि उन पर हो रही जबरदस्ती उनका भाग्य है। इनकी इस स्थिति का मिशनरी लाभ उठाते थे। वे कहते थे कि पंथ बदल लो तो खाने को भी मिलेगा और पुलिस या 'फारेस्ट' वाले भी तंग नहीं करेंगे। कुछ लोग पंथ बदल लेते थे, लेकिन ऐसे  बहुत लोग थे जो अत्याचार सहन करने को तैयार थे, किन्तु पंथ बदलने को तैयार नहीं थे।
उसने पत्नी से कहा कि स्वतंत्रता मिल गई लेकिन अंग्रेजों के उत्तराधिकारियों को ही मिली। गरीब तक कहां आई? बस, वोट मांगने के समय सब्जबाग दिखाये जाते हैं, फिर नेता गायब हो जाते हैं। हमारे लिए सीटों का आरक्षण है, लेकिन उसका लाभ उठाने वाले हमारी बिरादरी के लोग भी हमें छोटा समझते हैं। अब हमें कुछ करना पड़ेगा। पत्नी कुछ सोचती रही, वह सोचने लगी कि मुगलों से लेकर आज तक सरकारें बदलीं, लेकिन उस जैसे लोगों के लिए हालात वही बने हुए हैं। शायद इसलिए कि हम सब एकजुट नहीं हैं। शराब पीकर पड़े रहने से फुर्सत कहां मिलती है। शहरों में सब है – सड़क किनारे के गांवों में भी कुछ-कुछ है, लेकिन जंगल में न सड़क, न पानी, न स्कूल, न अस्पताल। यहां जीने के लाले पड़े हैं। उसने पति की ओर देखा – 'अकेले हम क्या कर सकते हैं?'
उसने कहा कि वह समाज में जाकर सब को जगाएगा ताकि सब एकजुट हो जायें। तुम महिलाओं को समझाओ कि इज्जत से जीना है तो एक होना पड़ेगा। हम कब तक 'फारेस्ट' और पुलिस का अत्याचार सहते रहेंगे? हमारे बाप-दादे हजारों साल से जंगल में रहते आये हैं और हर राज में हमें अतिक्रमणकर्ता कहकर अपमानित किया है। पत्नी ने कहा कि फिर भी अकेले हैं तो समय लगेगा। आप पार्टियों के नेताओं के पास कुछ लोगों के साथ जाकर बात करो। अगर हमें जमीन का कानूनी अधिकार मिल जायेगा तो न 'फारेस्ट' कुछ करेगा और न पुलिस।
उसने सोचा कि नेताओं से जाकर मिलूं। यह सोचकर वह एक कामरेड के पास गया। कामरेड ने पूछा – 
पढ़े लिखे हो?
हां, साहब।
धर्म मानते हो?
जी, साहब! बड़ा देव मानते हैं।
हम विचार मानते हैं – देश नहीं। तुम क्या मानते हो?
हम भारतीय हैं, साहब। भारतीय धर्म, संस्कृति और धर्म मानते हैं। इसके लिए हमारे पुरखों ने जुल्म सहे हैं। – उसने गर्व से कहा।
क्रांति कर सकते हो? – कामरेड ने पूछा।
जरूरत हुई तो वह भी करेंगे, साहब – उसने कहा।
तीर-भालों से अब कुछ नहीं होगा, बन्दूक उठानी पड़ेगी।
स्वतंत्र देश में हिंसा गलत है। उसने दृढ़ता से कहा।
कामरेड ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। गांधी जी का अवतार बनना चाहता है। नेता ने कहा- 'देखो भाई। तुम राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक नजर आते हो। हम दोनों के कट्टर विरोधी हैं। तुम बन्दूक भी उठाना नहीं चाहते तो हम क्या मदद करें।'  उसे समझ नहीं आया कि कामरेड को देश, धर्म, संस्कृति से क्या तकलीफ है। उसने सधे स्वर में कामरेड से कहा – 'हम  तो समझते थे कि गरीबों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ ईमानदार संघर्ष  वामपंथ है।
हम अपने मकसद के लिए संघर्ष करते हैं- कामरेड ने रूखी आवाज में जबाव दिया।
उसकी पत्नी ने कहा कि 'मैंने पहले ही कहा था, गरीब का वोट चाहिए, बस। कामरेड हमें बन्दूक उठाने के लिए कह रहा था – मतलब हम विद्रोही हो जायें। बन्दूक हम लोगों की दुनिया ही उजाड़ देगी। जिस पुलिस के अत्याचार से मुक्ति चाहते हैं उसे हम पर गोली चलाने के अधिकार मिल जायेंगे।' पत्नी ने पति की ओर देखा। वह कुछ सोचता हुआ चल रहा था।
'क्या सोच रहे हो?' पत्नी ने पूछा और सामने आकर खड़ी हो गई। उसने पत्नी की आंखों में झांकते हुए कहा – 'पिछले जन्म में कुछ अच्छे कर्म किए थे जो भारत में मानव शरीर लेकर जन्मा। कुछ पाप किये होंगे जो हमें हमारे ही देश में अपनी ही जमीन से उखाड़ा जा रहा है। कुछ पुण्य किया जो तुम जैसी जीवनसाथी मिली। मेरे साथ हमेशा खड़ी रही हो…. और मैं…. तुम्हें कुछ नहीं दे पाया। घर देना चाहा – वह भी 'फारेस्ट' वाले तोड़ देंगे।' पत्नी ने उसके दोनों हाथ पकड़ते हुए कहा – 'मुझे प्यार करने वाला जीवनसाथी चाहिए था – वह मुझे मिल गया। बकाया जिन्दगी है, इससे तो हम लड़ लेंगे।'
वे दोनों दूसरी पार्टी के नेता के घर पहुंच गये। नेताजी ने उसकी समस्या को ध्यान से सुना। फिर कहा – 'फारेस्ट की जमीन पर घर बनाओगे तो पुलिस हटायेगी ही। इसमें अन्याय कहां है? आपको फारेस्ट में अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।' नेता ने मौजूद भीड़ को देखा और कहा – 'सरकार वन संरक्षण करती है। उसे वन प्राणियों की सुरक्षा भी देखनी है। ये लोग जंगल में पेड़ काटते हैं, जानवरों को मारते हैं – अवैध कब्जा करते रहते हैं।' नेताजी की बातों का समर्थन करती हुई मुंडियां हिल रही थीं। नेताजी मुस्करा दिए। पत्नी से रहा नहीं गया। उसने जोर से कहा – 'सरकारी ताकत से हमें बेदखल करते हैं, इज्जत लूटते हैं – वे क्या देशभक्त हैं?' पत्नी का तेवर देखकर सब चुप रह गये।
'हमसे जो बनता है हम करते आये हैं…. कितनों को थाने से छुड़वाया हमने…. तुम्हारा भी साथ दिया, लेकिन तुम दोनों हमारे खिलाफ लोगों को इकट्ठा करते हो' – नेता ने कहा।
'हम आपके खिलाफ नहीं हैं – हम व्यवस्था के खिलाफ हैं – आप व्यवस्था का हिस्सा हैं… इसलिए आपको लगता है कि हम विरोधी हैं आपके। हम क्या चाहते हैं? बस, जंगल में रहने के लिए जमीन और जीने के लिए वन। ये हमारे लिए नहीं हैं, लेकिन उन ठेकेदारों के लिए हैं जो अवैध कटाई करते हैं… आपके लिए हैं जो अवैध खनन करते हैं' – पत्नी बरस पड़ी। नेता जी ने उसे बाहर जाने का हुकुम दिया। उनके चेलों ने पति-पत्नी को दरवाजे के बाहर निकाल दिया। पत्नी ने पति को संभालना चाहा, लेकिन वह नेता पर बिफर पड़ा- 'नेता जी। आप जैसे प्रतिनिधि, नौकरशाही, मिशनरी मिलकर देख की धरती से जुड़े आम आदमी के मन को तोड़ रहे हैं।'
'कर आंदोलन – खूब कर। गला फाड़ कर चिल्ला। पद-यात्रा निकाल – क्या होगा इससे? कौन सुनता है तुम जैसों की। भाग यहां से। भाषण देता है'। नेता ने कहा।
'हम जाते हैं नेता। लेकिन एक दिन तुम भागते नजर आओगे। याद रखना।' उसने पत्नी का हाथ थामा और नेता से आंख मिलाता हुआ लौट गया।
दोनों रात भर जागते रहे थे। रात भर जंगल भी सोया नहीं था। आसपास के लोग उनके पास आते-जाते रहे। आने-जाने वालों का मत है कि नेताओं से लेकर पुलिस और 'फारेस्ट' वालों में भय पैदा करना पड़ेगा। तब सरकार सुनेगी। लेकिन पति-पत्नी हथियार उठाने के खिलाफ थे। वे अडिग रहे। उसने सब से कहा कि अभी रास्ता बचा है।
पति-पत्नी ने हार नहीं मानी। वे सुबह ही पैदल चलते हुए सड़क तक पहुंचे और ट्रैक्टर की सवारी कर सेवा केन्द्र तक पहुंच गये।  वहां देशबंधु रहते थे। उन्होंने अपना जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया था। देशबंधु दोनों को अपने कक्ष में ले गये। उन्होंने चाय पिलाते हुए परिचय पूछा।
'हम वनवासी हैं।' उसने कहा।
आदिवासी क्यों नहीं?  – देशबंधु ने प्रति प्रश्न किया।
'क्योंकि हम शोषण और नुमाइश के लिए नहीं बने हैं। हमारे बाप-दादों ने मतान्तरण स्वीकार नहीं किया था – वे स्वयं को बचाने के लिए घने वनों-पर्वतों में छिपे थे।' उसने कहा।
' आक्रोश है और स्वाभिमान भी। अच्छा है – राष्ट्रवादी होना चाहिए।' देशबंधु बोले।
'यही अपराध है हमारे लिये। हम राष्ट्रवादी हैं, हमें धरती में मां नजर आती है – हम धर्म नहीं छोड़ सकते – यही अपराध है। हम आपसे सहयोग चाहते हैं '- उसने कहा।
'ठीक है, लेकिन आप वैसे नहीं हैं, जैसा हम मानते हैं'। उसने माथा ठोका, 'किस देश में जन्म दिया  ईश्वर। यहां देशभक्त की भी अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं। हम भारतीय हैं या विदेशी? यहां कैसी व्यवस्था है? कहां है स्वतंत्रता, कहां है लोकतंत्र? क्या करें हम?'
पत्नी ने हाथ थामते हुए कहा – 'सब देख लिए हमने। अब हमें ही रास्ता निकालना है – हमारे पूर्वजों को देखा – उन्होंने स्वयं रास्ता चुना था – जमाना बदल डाला था। चलो समाज को संगठित करो – जब समाज एकजुट होगा तब व्यवस्था भी बदलेगी।'
शासन और प्रशासन में हड़कम्प मचा हुआ था। जंगलों से वनवासियों की टोलियां पद यात्रा करते हुए शहर की ओर आ रही थीं। उनके पैरों में चप्पलें तक नहीं थीं। हाथ में एक मैला-कुचेला थैला और पानी की बोतल थी। मैदान की ओर बढ़ने वाले वनवासी अनुशासित थे। वे भारत माता की जय तथा वन्दे मातरम् के नारे लगा रहे थे। 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं)

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