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परिवर्तन की आस

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Nov 3, 2012, 12:00 am IST
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दृढ़ संकल्प सुनाएगापरिवर्तन की आहटबदलाव केवल सत्ता के लिए न हो-संत विजय कौशल महाराज, रामकथा मर्मज्ञ

दिंनाक: 03 Nov 2012 12:32:53

 

इस समय देश बदलाव की करवट ले रहा है। यह देश के भविष्य के लिए यह बहुत अनुकूल संकेत है। इस समय देश में दो बातें दिखाई दे रही हैं, पहली- पहले कोई कुछ भी करता था तो आम आदमी कहता था कि कुछ भी करने का कोई फायदा नहीं है। कुछ भी करने से कोई लाभ नहीं है। इस देश में कुछ नहीं हो सकता। अब दो बातें साफ उभरकर आई हैं। चाहे उसके पीछे अण्णा का आंदोलन कह लीजिए, चाहे बाबा रामदेव के आंदोलन की छाया या देश की जागरूकता कह लीजिए अथवा अनेक सामाजिक संस्थाओं के प्रयत्न। कुछ भी कहिए, दो बातें निकलकर आई हैं, एक तो इस देश में कुछ परिवर्तन होना चाहिए, अभी जो चल रहा है ऐसे नहीं चलना चाहिए। दूसरा- पहले कोई कितने भी आंदोलन कर ले, लोग कहते थे कि कितना भी कर लो, होना-जाना कुछ नहीं है। सब ऐसे ही चलेगा। अब दूसरी बात यह प्रकट हुई है कि आम व्यक्ति यह कहने लगा है कि अब कुछ होकर रहेगा। ये दो बातें इस देश के भविष्य के लिए बहुत अच्छे संकेत के रूप में उभरी हैं। परिवर्तन किसी संगठन से नहीं होता, किसी संगठनात्मक प्रक्रिया से नहीं होता, किसी संस्थागत व्यवस्था से नहीं होता। आम आदमी की आकांक्षा से परिवर्तन होता है।

आज हिमालय से कन्याकुमारी तक सारा देश यह चाहता है कि अब कुछ हो। अब कुछ होकर रहेगा। यह दो बातें अब देश में व्याप्त हो चुकी हैं। हमारे दो आदर्श हैं, परिवर्तन के दो सूत्रधार हैं- भगवान राम और कृष्ण। इन्होंने जो घोषणा की, वह राजसत्ता का सहारा लेकर नहीं की। भगवान राम ने वनांचल में खड़े होकर जब संकल्प घोषित किया- 'निशिचर हीन करों मही…….।' तब राम वनवासी थे, राजसत्ता छोड़कर गए थे। रहने, खाने, बैठने का भी उनके पास कोई ठिकाना नहीं था। भगवान कृष्ण ने भी जब घोषणा की 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' उस समय वह सामान्य ग्वाले के पुत्र के रूप में थे और कंस जैसी महाशक्ति को उन्होंने पछाड़ा था। गोकुल से भी किसी सहायक को लेकर नहीं गए थे। कहने का अर्थ यह है कि परिवर्तन जब होता है तो वह साधनों से नहीं होता। युद्ध साधनों से नहीं जीते जाते, युद्ध संकल्प से जीते जाते हैं। शस्त्र सहायक हो सकते हैं, लेकिन जीत संकल्प की होती है। मनुष्य जब भीतर से संकल्प घोषित करता है तो उसकी वाणी में भगवान बोला करता है और यह बात बालासाहब देवरस भी कहा करते थे कि 'सात्विक शक्ति की वाणी में भगवान बोला करते हैं'। संकल्प जब आता है तो जीवन की सोई हुई सारी शक्तियां, सारी ऊर्जाएं व्यक्त होती हैं। एक सामान्य सा व्यक्ति भी असामान्य शक्तियां अपने अंदर प्रकट कर लेता है। कपि चंचल…….सब प्रकार से दैहिक, दीन-हीन और कामी, सबसे ज्यादा लोभी और कामी पशु बंदर माना गया है, लेकिन जब वह भी राम के साथ जुड़ गया और संकल्प की शक्ति उसके अंदर आ गई तो एक असामान्य सत्ता को भी धराशायी कर दिया उसने दांतों ओर नाखूनों से। आप पूरे लंका के रणांगन में देखेंगे तो हनुमान जी के हाथ में गदा नहीं है कहीं भी। हनुमान जी ने सभी को मारा मुष्टिका से। मुष्टि प्रहार……। मुष्टिका संकल्प का प्रतीक है। कहने का अर्थ यह है कि यदि इस देश का आम नागरिक संकल्प ले ले कि अब हम भ्रष्टाचार सहन नहीं करेंगे, अब तक जो रीति-नीति-गति चलती आई है, अब इसे स्वीकार नहीं करेंगे, न सहन करेंगे, अब हम इसको बदलकर रहेंगे। यह तब होगा जब सामान्य सा काम करने वाला मजदूर और ऊंचे आसन पर बैठने वाला अधिकारी, इन सबकी शक्तियां एक हो जाएंगी। सात्विक शक्तियां जब तक इस देश में कमजोर रहेंगी तब तक असात्विक शक्तियों का बोलबाला रहेगा। असात्विक शक्तियां षड्यंत्रपूर्वक यह चाहती हैं कि सात्विक शक्तियां किसी प्रकार से एक न हों। भगवान राम ने यही किया। ज्ञानी महाराज जनक और धर्म-धुरंधर दशरथ आपस में लड़े जा रहे थे। नैसर्गिक घटना करने वाले विश्वामित्र और ब्रह्मा के मानस पुत्र महाराज वशिष्ठ में आपस में बोलचाल बंद थी। जब अच्छे लोगों की बोलचाल बंद होगी तो असात्विक शक्तियों का ही राज्य होगा। भगवान राम ने पहला काम यह किया कि विवाह को माध्यम बनाया, गुरु बनाए। असात्विक शक्तियों को डिगा दिया और सारी सात्विक शक्तियों को मिला दिया। सभी सात्विक शक्तियों का आशीर्वाद लिया, सहयोग नहीं लिया। सात्विक शक्तियों का नैतिक आशीर्वाद ही काफी होता है। ये सात्विक शक्तियां युद्ध क्षेत्र में हमारे साथ खड़ी होंगी, ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए और यह संभव भी नहीं है। लेकिन सात्विक शक्तियों का नैतिक समर्थन ही बहुत बड़ा संबल होता है व्यक्ति का। राम के साथ यही था। सारे देश की शक्तियां चाहती थीं कि राम जीतें और रावण पराजित हो। लेकिन कोई लड़ने नहीं गया। देवताओं ने भी यह देख लिया था कि रावण की लगभग सारी सेना मारी जा चुकी थी और रावण अकेला रह गया था। भगवान देवताओं की रक्षा के लिए ही तो युद्ध कर रहे थे, फिर भी देवता नहीं लड़े। अब मुझे लगता है कि इस देश में राम और कृष्ण दोबारा से प्रकट होने जा रहे हैं सात्विक शक्ति के रूप में, धार्मिक शक्ति के रूप में, राष्ट्रीय शक्ति के रूप में, संकल्प की शक्ति के रूप में, परिवर्तन की शक्ति के रूप में। हो सकता है हाथ में सुदर्शन चक्र न हो, हो सकता है कोई तीर कमान न हो। लेकिन कोई न कोई संकल्प का शस्त्र इस देश की आम जनता के हाथ में होगा और वर्तमान में चलने वाली रीति-नीति, शासन और व्यवस्था धराशायी होगी और एक अच्छा व स्वस्थ, स्वच्छ और सुसम्पन्न, भारत की आत्मा को पोषित और रक्षित करने वाला, ऐसा कोई व्यवस्था पक्ष प्रकट होगा बदलाव का, जिससे भारत आनंद और उन्नयन के शिखर की ओर बढ़ेगा।

बेदाग नेतृत्व चाहिए

यह जो प्रश्न उठता है कि इस देश में कई बार परिवर्तन के लिए आंदोलन चले, देश ने करवटें बदलीं, उबाल आए-1967 में, 1977 में, 1989 के आसपास। तब परिवर्तन के दौर चले, जैसे इस समय चल रहा है। लेकिन जो कुछ घटित हुआ, उससे विश्वास उठ जाता है जनता का। लगता है परिवर्तन से कुछ नहीं हो पाता, ये बदलाव क्यों असफल होते हैं? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारा देश अशिक्षित तो है, अज्ञानी नहीं है। इस देश में अभी तक ऐसा व्यक्ति प्रकट नहीं हुआ जो विश्वास दिला दे देश को कि ये मारे तो जा सकते हैं, खरीदे नहीं जा सकते। इनको विचलित नहीं किया जा सकता, इनको लोभ नहीं दिया जा सकता। सत्ता इनको दीवार में तो चुनवा सकती है, लेकिन डिगा नहीं सकती। अभी तक ऐसा कोई व्यक्तित्व प्रकट नहीं हुआ। राम इसी स्तर के व्यक्ति थे। कृष्ण इसी स्तर के व्यक्ति थे। कृष्ण ने जब कहा कि गिरिराज उठाना है तो सारा ब्रज मंडल अपने बाल-बच्चों को लेकर उसे उठाने के लिए चला गया। चूंकि उनको यह भरोसा था कि जो यह बालक बोल रहा है उसे यह पूरा करेगा। राम जो बोल रहे हैं, 'निशिचर हीन करों मही……' वह उसे पूरा करेंगे। यह मारे जा सकते हैं, लेकिन डिगेंगे नहीं। अभी तक इस देश में किसी व्यक्ति के प्रति किसी को इतना विश्वास नहीं है। कहीं न कहीं आंदोलन करने वाले नेतृत्व की नींव चटकी हुई है। कहीं न कहीं उनमें भी धब्बे हैं, चाहे पद के हों, चाहे पद-लिप्सा के हों, चाहे अर्थ के हों, चाहे विदेशी एजेंसी के एजेंट के रूप में हों। कहीं न कहीं कुछ दाग-धब्बे हैं। इसके कारण देश धोखा खाता है, देश ने धोखा खाया है। अभी भी धोखा खाने की संभावनाएं हैं। ऐसा व्यक्ति जिस दिन देश देख लेगा कि ये मारे जा सकते हैं, लेकिन खरीदे नहीं जा सकते उसी दिन परिवर्तन हो जाएगा, फिर गड़बड़ नहीं हो सकती।        

व्यवस्था में हो बदलाव

अभी तक हम लोग बदलाव करते थे केवल सत्ता के लिए। हमारे गांव में मृत व्यक्ति को संस्कार के लिए बहुत दूर स्थित श्मशान घाट ले जाते थे। मृत व्यक्ति की देह भारी होती थी, तो उसे कभी इस कंधे पर कभी उस कंधे पर बदलते थे, लेकिन वजन उतना ही रहता था। तो सन् 1947 से लेकर आज तक हमने केवल कंधे बदले हैं, भार उतना ही है। दल बदलने से, दलों की सत्ता बदलने से और शासक बदलने से इस देश में कुछ भी बदला नहीं जाएगा। क्योंकि चेहरे बदलते हैं, नीतियां, विधान, संविधान, वे सब प्रवृत्तियां वैसी की वैसी रहती हैं। हमने 1967 में एक बार यह परिवर्तन किया, हमने 1977 में परिवर्तन किया, 1989 में एक बार फिर परिवर्तन किया। अनुभव यह आया कि देश की जनता बार-बार छली गई। जनता ने अपना पूरा काम किया, लेकिन शासकों ने उसको छल लिया। द्रौपदी हर बार छली गई है इस देश के अंदर। मैं समझता हूं कि केवल व्यक्ति बदलने से, सत्ता बदलने से, शासन बदलने से और सत्ताधीश बदलने से काम नहीं चलेगा। पूरी की पूरी व्यवस्था बदली जाए। अभी दुर्भाग्य क्या है? इस देश में ऐसा नहीं है कि सभी भ्रष्ट हो चुके हैं, ऐसा नहीं है कि सभी अफसर रिश्वत लेते हैं। लोग अभी भी अपना कार्य प्रामाणिकता से करना चाहते हैं। लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि प्रामाणिक व्यक्ति का जीना मुश्किल हो रहा है। उसकी मजबूरी हो रही है। या तो आप अप्रामाणिक बनिए या फिर अपना बिस्तर बांधकर घूमते रहिए, ग्लानि का जीवन जीते रहिए। आपको तंग किया जाएगा। इस देश में व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि अशिष्ट से अशिष्ट व्यक्ति भी शिष्ट होने के लिए मजबूर हो। जबकि आज शिष्ट भी अशिष्ट होने के लिए मजबूर हो रहा है। ईमानदार भी बेईमान होने के लिए मजबूर हो रहा है। हम नहीं चाहते कि हम बेईमान हों, लेकिन शासन की नीति ऐसी है कि हमको बेईमान होने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। होना यह चाहिए कि बेईमान बेईमानी करने की कोशिश करे, लेकिन वह कर न पाए। तो यह पूरा का पूरा 'सिस्टम' बदलना पड़ेगा, पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा, पूरी नीतियां बदलनी पड़ेंगी, नीयत बदलनी पड़ेगी, वातावरण भी बदलना पड़ेगा। आम जनता जब तक स्वयं को दंडित करने की मानसिकता में नहीं आएगी, तब तक कोई भी बदलाव सुपरिणामकारी नहीं होगा। हम यह तो चाहते हैं कि हर अफसर ईमानदार हो, लेकिन जब अपना बेटा रिश्वत में फंसा होता है तो हम उसे बचाना चाहते हैं। जब तक अपराध के नाम पर पिता पुत्र को दंडित नहीं करेगा, पुत्र पिता को दंडित नहीं करेगा, गुरु शिष्य को दंडित नहीं करेगा, शिष्य गुरु को दंडित नहीं करेगा, तब तक कुछ ठीक नहीं हो सकता। कृष्ण के समय में तो यही हुआ था। शिष्य को गुरू मारना पड़ा था, साले को बहनोई मारना पड़ा था, भाई को भाई मारना पड़ा था। क्योंकि ये लोग अधर्म का पालन कर रहे थे, अधर्म का संरक्षण कर रहे थे। धर्म रक्षा तब होगी जब अपने द्वारा अपने ही मारे जाएंगे। जब तक इतने कठोर कदम नहीं उठाए जाएंगे, तब तक प्रवचनों से, सम्मेलनों से, दुख व्यक्त करने से कोई लाभ नहीं होगा।

जनता की भूमिका

परिवर्तन में भूमिका तो जनता की ही होगी, क्योंकि जनता का ही देश है, जनता का ही शासन है, जनता के ही शासक हैं और जनता को ही, उन शासकों की नीतियां पालन करनी पड़ती हैं। जनता यह तय कर ले कि हम सब सहन कर लेंगे, लेकिन गलत नीतियों के आधार पर सुविधाएं नहीं भोगेंगे। यहां पर जनता को शुरुआत करनी होगी कि यदि हमारे पास अन्याय करने वाला, अनीति करने वाला शासन हो तो हम उसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसकी शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी। हर पिता को कहना होगा-बेटा, हमारे घर में अब अनीति का पैसा प्रवेश नहीं करेगा, रिश्वत का पैसा हम स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसा होना चाहिए। लेकिन हो क्या रहा है, हमारे यहां? गोस्वामी जी ने कहा, हमारे यहां धर्म की शिक्षा तो दी जाती है- 'मात-पिता बालक न बुलावे, उदर भरै सो धर्म सिखावे'। जिस प्रकार भी पेट भरता हो, उस धर्म की शिक्षा देते हैं। नहीं, जिस प्रकार से नैतिकता भरती हो, जिस प्रकार से जीवन में चरित्र भरता हो, जिस प्रकार से जीवन में धर्म भरता हो, जिस प्रकार से जीवन में संस्कृति भरती हो, जिस प्रकार से जीवन में सदाचार भरता हो, जिस प्रकार से जीवन में संवेदनशीलता भरती हो, जिस प्रकार से जीवन में राष्ट्रीयता भरती हो, जिस प्रकार से जीवन में परोपकार भरता हो, उस धर्म की शिक्षा अब माता-पिता को देनी पड़ेगी। केवल धर्माचार्यों के शिक्षा देने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा नीति में भी ऐसा परिवर्तन करना पड़ेगा। सबसे बड़ा शिक्षा केन्द्र है हमारे घर का आंगन, जहां पहले माता-पिता बैठकर सिखाते थे। आज बेटा रिश्वत लाता है तो पिता को प्रसन्नता होती है, पिता उस दिन रोए जिस दिन पुत्र रिश्वत के पैसे लेकर घर आए। यहां से जनता की भूमिका शुुरू होगी। मुझे लगता है कि तब सब ठीक होगा। दंड के कड़े कानून भी हों। अभी क्या हो रहा है कि जिन लोगों ने घोटाले किए उन्हें जेल तो हो गई लेकिन घोटाले वैसे के वैसे ही हैं। जो पैसा खा गए उनसे बाकायदा पैसा वसूल किया जाए और उनको सार्वजनिक रूप से दंडित किया जाए। जो अपराधी है, उसे कठोर से कठोर दंड दिया जाए। सभ्य व्यक्ति भयभीत है, सुशिक्षित भयभीत है। आज गुंडे, अपराधी, लुटेरे, ये लोग अभय प्राप्त हैं। इनको किसी प्रकार का भय नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन ने इनको संरक्षण दिया हुआ है। जब सभ्य, सज्जन की सुरक्षा होगी और गुंडे, अपराधी दंडित होंगे और सार्वजनिक रूप से दंडित होंगे तो मुझे लगता है कि सबको दंडित करने की आवश्यकता नहीं होगी। 2-4 जगह जब सार्वजनिक रूप से कुछ लोग दंडित हो गए तो बहुत सारे तो अपने आप ही ठीक हो जाएंगे।

संविधान की समीक्षा हो

हमने लगभग 65 साल तक 'विदेशी' संविधान के आधार पर शासन चलाकर देख लिया। आजादी से पहले देश में जो नैतिकता थी, सदाचार था, 65 वर्षों में उसका ग्राफ काफी नीचे आ चुका है। इसका अर्थ है कि यह संविधान हमारे लिए उपयुक्त नहीं है। अब एक बार संविधान की समीक्षा की जाए कि यह भारत के अनुकूल कैसे बने। संविधान का मैं विरोध नहीं कर रहा, बाबासाहब अंबेडकर का मैं विरोध नहीं कर रहा। बल्कि यह अनुभव में आ रहा है कि यह संविधान विदेशी सत्ता को और ज्यादा मजबूती से स्थापित करने वाला दस्तावेज था। हम आजाद हुए तो हमारे इस देश की आत्मा, प्रकृति, रुचि, स्वभाव और आवश्यकता के अनुसार नीतियों का दस्तावेज बनना चाहिए था, जो नहीं बना। इसके लिए दलों की दीवारों से ऊपर उठकर हम भारत के हित में इसी दस्तावेज में कुछ चीजें जोड़ सकते हैं। संविधान में संशोधन करने का अधिकार और नियम बनाने का अधिकार संसद के पास है। संसद को नियम बनाने का अधिकार नहीं होना चाहिए। संसद को नियम पालन कराने का अधिकार हो। नियम बनाने के लिए कोई और संस्था बननी चाहिए। संसद नियम पालन कराएगी। अगर आप नियम पालन नहीं करेंगे तो हटा दिए जाएंगे। संसद ही नियम बनाएगी तो स्वाभाविक है कि हर संसद अपने पक्ष में नियम बनाएगी। जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जनता के पास 5 वर्ष में एक बार वोट देने का अधिकार है, उसके बाद उनको रोकने का कोई अधिकार नहीं है। 'नौकर' ही 'मालिक' के लिए नियम बना रहा है। जैसे नौकर को वेतन बढ़वाना होता है तो वह मालिक से वेतन बढ़ाने के लिए कहता है। यहां तो 'नौकर' अपना वेतन खुद बढ़ा रहा है और 'मालिक' कुछ नहीं कर पा रहा। संविधान संशोधन और नियम बनाने का अधिकार संसद को न हो। इसके लिए नीति निर्माण समिति बने, वह तय करे, जिसमें देश के अच्छे गैर राजनीतिक, सज्जन लोग हों। वे निर्णय करें कि देश के लिए कैसे नियम बनने चाहिए और उनका कड़ाई से पालन हो। संसद का काम नियमों का पालन कराना हो। जो दल पालन न कराए उसको हटाया जाए और दूसरे दल को मौका दिया जाए। संविधान भारत के अनुसार चाहिए। यह तो विदेशी दस्तावेज है, जो विदेशी सत्ता को अधिक मजबूती से स्थापित करने के लिए है।

विकसित भारत का एजेंडा चाहिए

हमें विकसित भारत के मॉडल का 100 वर्ष का एजेंडा तैयार करना होगा। अभी हमारे पास किसी भी प्रकार का मॉडल नहीं है। हम केवल प्रयोग कर रहे हैं। विदेश में देख आते हैं और यहां प्रयोग करने लगते हैं। विदेशी कम्पनियां आती हैं, प्रयोग करने लगती हैं। हम उनके पीछे लग जाते हैं। परिवर्तन केवल सत्ता और सत्ताधीश तक सीमित न रहे। परिवर्तन समाज रचना में, समाज व्यवस्था में, समाज की दिशा और दशा में होना चाहिए। उसका कोई मॉडल हमारे पास नहीं है। इसलिए दलों का एजेंडा नहीं चाहिए, देश का एजेंडा चाहिए। 100 वर्ष के भारत का एजेंडा चाहिए। कृषि, शिक्षा, उद्योग आदि के एजेंडे हों। छोटी से छोटी बात का एजेंडा हो। देश का सामान्य से लेकर सामरिक सुरक्षा तक पूरा एजेंडा चाहिए। इस पर सब दल काम करें, जो दल ज्यादा गारंटी देता है उसका देश समर्थन करे। नहीं करता तो दूसरे दल को समर्थन दें, फिर कोई दिक्कत नहीं आएगी। अभी देश का एजेंडा नहीं है, दलों के एजेंडे हैं। एक सत्ता जाती है, दूसरी आ         जाती है।

यदि हम भारत के प्राचीन रूप को देखें तो हमारे पास शासन व्यवस्था का एक अच्छा मॉडल था-रामराज्य। रामराज्य में, कहते हैं, 'दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज काहुहिं नहिं व्यापा'। यह उसका एक मॉडल है। एक मॉडल तो रावण के यहां भी था। सब प्रकार की संपन्नता का, लेकिन रामराज्य को हम इसलिए याद करते हैं, क्योंकि वहां किसी व्यक्ति में कोई दोष नहीं था। वहां का समाज दोषमुक्त था। आज का समाज दोषयुक्त हो गया है। इस समाज को दोषमुक्त करने की कोई न कोई प्रक्रिया चाहिए। वह प्रक्रिया तब होगी, जब इस देश का शासक दोषमुक्त होगा, शासन दोषमुक्त होगा, व्यवस्था दोषमुक्त होगी, नीति दोषमुक्त होगी, नीयत दोषमुक्त होगी। जब आम आदमी दोषमुक्त हो जाएगा, तो फिर आदमी गरीब भी होगा तो सम्पन्नता का जीवन जिएगा। आज अमीर भी अभाव का जीवन जी रहा है, असंतोष का जीवन जी रहा है। ऐसा शासन चाहिए जिससे व्यक्ति दोषमुक्त हो। आज ऐसा शासन है कि व्यक्ति दोषयुक्त हो रहा है। पहले देखते थे कि व्यक्ति विद्यालय से सुशिक्षित हो रहा है लेकिन आज देख रहे हैं कि वह बिगड़ कर आ रहा है। कहीं भी भेजते थे तो लगता था सुशिक्षितों में बैठेगा, पढ़े-लिखों में बैठेगा, कुछ सीखेगा। लेकिन आज वह बिगड़ कर आ रहा है। आज समाज की व्यवस्था दोषमुक्त चाहिए, जबकि वह दोषयुक्त हो रही है।

संत शक्ति चिंतन करे

संत शक्ति की इसमें बहुत बड़ी भूमिका है, बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। संतों को यह निर्णय लेना होगा कि हम इस समाज के कारण से ही साधु और संत हैं। जब समाज में राक्षसी प्रवृत्ति बढ़ी तो इन्हीं संतों को मारा गया था। हड्डियों के ढेर लगा दिए थे, मंदिर तोड़े थे। इस देश के साधु-संतों को आश्रम के वैभव से निकलकर राष्ट्र के वैभव का चिंतन करना पड़ेगा। राष्ट्र का वैभव विकसित होना चाहिए, बढ़ना चाहिए, मेरा आश्रम या मंदिर छोटा रह जाए तो चलेगा। गांव-गांव में सदाचार, आचरण, व्यवहार आदि पर आग्रहपूर्वक प्रवचन करें। जिस परिवार में रुकते हैं, उसमें चर्चा करें। इधर शासन भी व्यवस्था करे, माता-पिता भी आग्रह करें, शिक्षक भी भूमिका निभाएं। जैसे-शेरनी जब चारों तरफ से घिर जाती है तो उसे आसानी से पिंजरे में बांधा जा सकता है। उसी तरह भ्रष्टाचार रूपी शेर, अराजकता रूपी शेर, अशिक्षा रूपी शेर को सारी जनता छोटी-छोटी डंडियां लेकर घेर लेगी तो उसे बांधेगी ही नहीं, मार डालेगी।

पिछले दिनों हमने दशहरा मनाया। दशहरा इस देश की विजिगिषा का प्रतीक है। दशहरा अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। रामराज्य की भावना का बहुत बड़ा संबल है दशहरा। एक साधनहीन व्यक्ति ने संकल्प के बल पर इतनी बड़ी सत्ता को उखाड़ फेंका और धर्म की स्थापना की। यह संकल्प लेकर हमारे जीवन में धर्म के, संस्कृति के, संस्कारों के, संवेदनशीलता के, सुशिक्षा के, सेवा के, चरित्र के, देशभक्ति के दीप जलें ताकि केवल हम नहीं, हमारा देश नहीं तो सारा विश्व उसमें जगमगाए।

 |ɺiÉÖÊiÉ : तरुण सिसोदिया

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