मां की देहका विस्तारही हम सबकी काया है
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धर्म–अध्यात्म–दर्शन
हृदयनारायण दीक्षित
का विस्तार
ही हम सबकी
काया है
मां प्रत्येक जीव की आदि अनादि अनुभूति है। मां की देह का विस्तार ही हम सबकी काया है। हम सबका अस्तित्व मां के कारण ही है। मां न होती तो हम न होते। मां स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। मार्कण्डेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में 'या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता' बताकर 'नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:' कहकर अनेक बार नमस्कार किया है। मां का रस, रक्त और पोषण ही प्रत्येक जीव का मूलाधार है। ऋषियों ने इसीलिए मां को देवी जाना और देवी को माता कहा। हम मां का विस्तार हैं इसलिए मां के निकट होना आनंददायी है। हमारी भाषा में निकटता के लिए 'उप' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'उप' बड़ा प्यारा है। इसी से 'उपनिषद्' बना। उप से ही उपासना भी बना है। उपनिषद् का अर्थ है – ठीक से निकट बैठना। उत्तरवैदिक काल में इसका प्रयोग आचार्य और शिष्य की ज्ञान निकटता था। उपासना का अर्थ भी निकट होना है। उपवास का भी अर्थ 'उप-वास' निकट रहना है लेकिन प्रचलन में उपवास का मतलब भोजन न करना हो गया। भोजन न करने से शरीर पर ध्यान जाता है। उपवास का अर्थ दिव्यता की निकटता है। दिव्यता की निकटता से भोजन बेमतलब हो जाता है। भोजन न करने से दिव्य निकटता की कोई गारंटी नहीं। उपासना और उपवास एक जैसे हैं। व्रत का अर्थ नियमपालन है। तैत्तिरीय उपनिषद् में 'नियम से भोजन करने को व्रत' कहा गया। व्रत उपवास दरअसल आंतरिक अनुशासन है। ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण ऊर्जा से स्वयं को जोड़ने का अनुष्ठान ही देवी उपासना है। हम पृथ्वी पुत्र हैं। प्रगाढ़ भाव बोध में पृथ्वी भी मां जैसी है। वही मूल है, वही आधार है। इस पर रहना, कर्म करना, कर्मफल पाना और अंतत: इसी की गोद में जाना सतत् प्रवाही जीवनक्रम है। ऋग्वेद के ऋषियों के लिए पृथ्वी माता है। माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है। (5.84.1-3)
ऋग्वेद में रात्रि भी एक देवी हैं 'वे अविनाशी- अर्मत्या हैं, वे आकाश पुत्री हैं, पहले अंतरिक्ष को और बाद में निचले-ऊंचे क्षेत्रों को आच्छादित करती हैं। उनके आगमन पर हम सब, गो आदि और पशु पक्षी भी विश्राम करते हैं। प्रार्थना है कि मेरी स्तुतियां सुनो।' (10.127)
दुर्गा सप्तशती में निद्रा भी माता और देवी है। प्रकृति की शक्तियां स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं हो सकतीं। देवरूप मां की उपासना अतिप्राचीन है। सृष्टि का विकास जल से हुआ। यूनानी दार्शनिक थेल्स भी ऐसा ही मानते थे। ऋग्वेद में भी यही धारणा है। अधिकांश विश्वदर्शन में जल सृष्टि का आदि तत्व है। ऋग्वेद में 'जल माताएं' आप: मातरम् हैं और देवियां हैं। ऋग्वेद के अपो देवी: और आपो मातर: गम्भीर अर्थ वाले हैं। उन्हें बहुवचन रूप में याद किया गया है। भारत में सामाजिक विकास के आदिम काल से ही जल माताओं की उपासना जारी है। देवी उपासना अतिप्राचीन है। संसार के प्रत्येक जड़ चेतन को जन्म देने वाली यही आप: माताएं हैं : विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्री: (6.50.7)।
ऋग्वेद के बड़े प्रभावशाली देवता हैं अग्नि। इन्हें भी आप: माताओं ने जन्म दिया है – तमापो अग्निं जनयन्त मातर: (10.91.6)। सविता ऋग्वेद के एक अन्य प्रभावशाली देवता हैं। इनकी भी स्तुति अपां नपातम् कहकर की गई है। (1.22.6)
ऋग्वेद, अथर्ववेद में अदिति भी देवी हैं। आदित्य-सूर्य उनके पुत्र हैं। अदिति माता-पिता हैं और अदिति ही पुत्र भी हैं। अदिति जैसा देव प्रतीक (या देवी) विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं है 'जो कुछ हो चुका – भूत और जो आगे होगा भविष्य वह सब अदिति हैं।' ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10.125) हैं। वे रुद्र और वसुओं के साथ चलती हैं। ऋग्वेद के वाकसूक्त (10.125) में कहती हैं – 'मैं रुद्रगणों वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूं। मित्र, वरुण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूं। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है। प्राणियों की श्रवण, मनन, दर्शन क्षमता का कारण मैं ही हूं। मेरा उद्गम आकाश में अप् (सृष्टि निर्माण का आदि तत्व) है। मैं समस्त लोकों की सर्जक हूं आदि।'
वे 'राष्ट्री संगमनी वसूनां'- राष्ट्रवासियों और उनके सम्पूर्ण वैभव को संगठित करने वाली शक्ति – राष्ट्री है'। (10.125.3) यहां वाणी ही रुद्र ब्रह्म आदि सब कुछ है। उसका उद्गम आकाश है। यही बात ऋग्वेद में अन्यत्र (1.164.39) भी है ऋचो अक्षरे परमे व्योमन – अक्षर- ऋचाएं परम व्योम में रहती हैं। वाणी ही व्यक्त संसार में प्रकट रूपों, प्रतिरूपों को 'नाम' देती है।
ऋग्वेद में ऊषा भी देवी हैं। सूर्योदय के पूर्व का सौन्दर्य हैं ऊषा। ऋग्वेद के एक सूक्त (1.124) में ऊषा की स्तुति में कहते हैं 'ये ऊषा देवी नियम पालन करती हैं।' नियमित रूप से आती हैं और मनुष्यों की आयु को लगातार कम करती हैं।' (वही मन्त्र 2) फिर कहते हैं, 'ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी मर्यादा मार्ग से ही चलती है।' (वही, 3) ऊषा देवी हैं, इसीलिए उनकी स्तुतियां हैं, 'वे सबको प्रकाश आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं, छोटे से दूर नहीं होतीं, बड़े का त्याग नहीं करती।' (वही, 6)
यहां समत्व दृष्टि की सीधी चर्चा है। ऊषा देवी हैं। समद्रष्टा हैं। भेदभाव नहीं करतीं। ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हैं। (1.123.2) फिर उन्हें भग और वरण की बहिन बताते हैं और सभी देवों में प्रथम स्तुति योग्य- 'सूनृते प्रथम जरस्व'। (वही, 5) प्रार्थना है कि 'हमारे मुख दिव्य स्तुति गान करें। बुद्धि सत्कर्मों को प्रेरित करे।' (वही, 6) ऊषा सतत् प्रवाह है। आती हैं, जाती हैं फिर फिर आती हैं। जैसी आज आई हैं, वैसे ही आगे भी आएंगी और सूर्य देव के पहले आएंगी। (वही, 8)
भारत का लोकजीवन देवी उपासक है। वह सब तरफ माता ही देखता है। देवी उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद के ऋषि समाज व्यवस्था से ही सामग्री लेते हैं, जो देखते हैं, वही गाते हैं। वे द्रष्टा ऋषि हैं। यहां पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये ऋग्वेद में तीन देवियां कही गयी हैं – इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव। (1.13.9)एक मंत्र (3.4.8) में भारती को 'भारतीभि:' कहकर बुलाया गया है – आ भारती भारतीभि:। यहां भारतीभि: भरतजनों की इष्टदेवी हैं। फिर कहते हैं- सजोषा इडा देवे मनुष्ये– इडा देवी मनुष्यों, देवों के साथ यज्ञ अग्नि के समीप आयें और सरस्वती वाक्शक्ति के साथ पधारें। सरस्वती पहले नदी हैं, माता हैं। बाद में वे ज्ञान की देवी हैं, माता तब भी हैं। यज्ञ में मन्त्र पाठ के कारण ऋषियों की वाणी को भारती कहा गया। यज्ञ की विभिन्न क्रियाओं को देवी रूप कल्पित करके उन्हें होत्रा, इडा आदि नाम दिए गये। इडा यज्ञ कर्म की प्रतीक है, यज्ञ की अग्नि भारत है, यज्ञ में काव्य पाठ करने वालों की वाणी भारती है।
मन की चंचलता कर्म साधना में बाधक है। मन की शासक देवी का नाम 'मनीषा' है। ऋषि उनका आवाहन करते हैं 'प्र शुकैतु देवी मनीषा'। (7.34.1) प्रत्यक्ष देखे, सुने और अनुभव में आए दिव्य तत्वों के प्रति विश्वास बढ़ता है, पक्का विश्वास प्रगाढ़ भावदशा में श्रद्धा बनता है। ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवी हैं, 'श्रद्धा प्रातर्हवामहे, श्रद्धा मध्यंदिन परि, श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न:' – हम प्रात: काल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह में श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) यहां श्रद्धा जीवन और कर्म की शक्ति हैं, श्रद्धा से ही श्रद्धा की याचना में गहन भावबोध है। श्रद्धा का मतलब अंधविश्वास नहीं है। श्रद्धा विशेष प्रकार की दिव्य चित्त दशा है और प्रकृति की विभूतियों में शिखर है – श्रद्धां भगस्तय मूर्धनि। (10.151.1) देवी उपासना प्रकृति की विराट शक्ति की ही उपासना है। मूर्ति, बिम्ब और प्रतीक नाम ढेर सारे हैं – दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्धिदात्री आदि कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। मां हैं। सो पालक हैं।
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