भारत का कश्मीर
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भारत का कश्मीर

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Oct 27, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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स्वदेश चिन्तन

दिंनाक: 27 Oct 2012 16:57:12

 27 अक्तूबर विलय दिवस पर विशेष

 

पाकिस्तान, नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, अलगाववादियों और आतंकियों के निशाने पर

पूर्वोत्तर और पंजाब की तरह जम्मू–कश्मीर के

देशद्रोहियों पर सख्ती क्यों नहीं?

'कश्मीर कभी भारत का अंग रहा ही नहीं।' 'हमें मुकम्मल आजादी चाहिए।' 'जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का भाग है।' 'जम्मू-कश्मीर का भारत में हुआ विलय अधूरा है।' 'हमें स्वशासन दो'। 'हमें स्वायत्तता चाहिए।' 'आत्मनिर्णय वाले सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव पर अमल हो।' 'कश्मीर मसले पर वार्ता में पाकिस्तान को भी शामिल करो'। 'बंदूक के जोर पर लेकर रहेंगे निजामे मुस्तफा की हकूमत।' इस सारी पाकिस्तान समर्थक भयावह आतिशबाजी के बीच भारत सरकार द्वारा यदा-कदा होने वाली यह बयानबाजी नकारखाने में तूती साबित हो रही है कि 'जम्मू- कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है।' कश्मीर घाटी में पूरी शक्ति के साथ सक्रिय अलगाववादी संगठनों, आतंकी गुटों, कट्टरपंथी मजहबी जमातों, कश्मीर केन्द्रित राजनीतिक दलों और इन सबके आका पाकिस्तान की आवाज के पीछे संगीनों वाले जिहादी आतंकियों की ताकत है, जबकि भारत सरकार की घोषणाएं इच्छा-शक्ति और शक्ति-प्रदर्शन के अभाव में कोरी गीदड़ भभकियां साबित हो रही हैं।

सच्चाई तो यह है कि हमारी सभी सरकारों ने 'जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय' इस विषय को कभी भी प्रभावशाली ढंग से पाकिस्तान और कश्मीर में सक्रिय उसके वफादार संगठनों और राजनीतिक दलों के साथ उठाया ही नहीं है। उलटा केन्द्र सरकार द्वारा भेजे गए तीनों वार्ताकारों ने भी अलगाववादियों और एन.सी., पी.डी.पी. की हां में हां मिलाते हुए 27 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के भारत में हुए पूर्ण विलय पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया। पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादियों के एजेंडे पर आधारित रपट तैयार करने वाले इन वार्ताकारों और इनकी रपट के खतरनाक तथ्यों पर भारत सरकार ने चुप्पी क्यों साधी हुई है? भारत के संविधान और संसद की  खुली अवज्ञा करके 'संवैधानिक विलय' को चुनौती देने वाले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की सरकार का समर्थन कांग्रेस क्यों कर रही है? यदि चीन की मदद से पूर्वोत्तर में उठने वाले सशस्त विद्रोह और अस्सी के दशक में पाकिस्तान के बल पर पंजाब में पनपे हिंसक खालिस्तानी आन्दोलन को देशद्रोह कह कर सख्ती से कुचला जा सकता है तो जम्मू-कश्मीर में भारत की अखण्डता, संविधान और संसद की अवज्ञा करने वाले मुख्यमंत्री, राजनीतिक दलों और अलगाववादियों के आगे घुटने क्यों टेके जा रहे हैं?

निर्वाचित संविधान सभा की स्वीकृति के बाद

विलय पर बवाल क्यों?

गत दिनों पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसफ अली जरदारी ने भारत के विदेशमंत्री एस.एम. कृष्णा की मौजूदगी में अमरीका में भाषण देते हुए कहा कि कश्मीर समस्या सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों अर्थात कश्मीरियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देकर हल की जा सकती है। और हमारे विदेश मंत्री ने 'जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा' वाली तोता रटंत दुहराकर अपना राजनीतिक कर्तव्य निभा दिया। समझ में नहीं आता कि दृड़ता के साथ यह ऐतिहासिक, संवैधानिक और तथ्यात्मक जानकारी संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर क्यों नहीं दी जाती? 27 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत का भारत में पूर्ण विलय उन्हीं दस्तावेजों के आधार पर किया था जिस पर देश की शेष रियासतों का विलय हुआ था। उस समय महाराजा समेत किसी भी पक्ष ने यह नहीं कहा कि यह विलय अधूरा है। वर्तमान अलगाववाद के जन्मदाता और तत्कालीन वजीरे आजम शेख अब्दुल्ला ने भी नहीं।

भारतीय स्वाधीनता अधिनियम 1947 के अनुसार विलय की स्वीकृति पर आपत्ति करने का अधिकार भारत के प्रधानमंत्री, गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन, इंग्लैण्ड की महारानी, इंग्लैण्ड की संसद, पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना और सम्बंधित राज्य के महाराजा या जनता को भी नहीं था। महाराजा हरिसिंह द्वारा 26 अक्तूबर, 1947 को भारत सरकार के पास भेजे गए विलय पत्र पर लार्ड माउंटबेटन ने अपनी मोहर लगाकर हस्ताक्षर कर दिए- 'मैं एतद् द्वारा इस विलय पत्र को स्वीकार करता हूं।' 1954 में जम्मू-कश्मीर के नागरिकों द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने भी 6 फरवरी 1956 को इस पर अपनी मोहर लगा दी। इसी संविधान सभा द्वारा बनाए गए जम्मू-कश्मीर के अपने संविधान के अनुच्छेद (1) के अनुसार जम्मू-कश्मीर भारत का स्थाई भाग है। इसी संविधान के अनुच्छेद (4) में कहा गया कि जम्मू-कश्मीर में वह सारा क्षेत्र शामिल है जो 15 अगस्त, 1947 को महाराजा के आधिपत्य में था। इसी संविधान के अनुच्छेद 149 में यह स्वीकार किया गया है कि जम्मू-कश्मीर के इस संवैधानिक स्वरूप को कभी बदला नहीं जा सकता अर्थात् जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का स्थाई अखंडित भाग बना रहेगा।

भारतीय कश्मीर कोई संवैधानिक समस्या नहीं

फसाद की जड़ 'पी.ओ.के.'

समस्त जम्मू-कश्मीर को भारत में शामिल करने के महाराजा हरिसिंह के

इरादों को भांपकर पाकिस्तान ने कश्मीर को हड़पने के लिए 22 अक्तूबर 1947 को रियासत पर आक्रमण कर दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो प्रचारकों डा. मंगलसेन और हरीश भनोत ने महाराजा को इस हमले की जानकारी दे दी थी। इस हमले के चार दिन बाद महाराजा ने अपनी पूरी रियासत का विलय भारत में कर दिया। भारत की सैनिक टुकड़ियां हवाई मार्ग से 27 अक्तूबर को कश्मीर घाटी में पहुंच गईं। संघ के स्वयंसेवकों ने हवाई पट्टियों की मरम्मत, सेना के युद्धक सामान की रक्षा और युद्ध स्थल में प्रत्यक्ष सैनिकों की सहायता इत्यादि कार्य किए। भारत की सेना ने श्रीनगर और बारामूला के आगे कुछ इलाका मुक्त करवा कर जैसे ही शेष कश्मीर की ओर अपने कदम बढ़ाए तो प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू ने युद्ध विराम की एकतरफा घोषणा कर दी। सेनाधिकारियों के परामर्श को अनसुना करके कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में भेज दिया गया।

किसी भी देश की सुरक्षा और सैनिक रणनीति की दृष्टि से इससे बड़ी भयंकर भूल और भला क्या हो सकती है कि सेना के कदम आगे बढ़ रहे हों और राजनीतिक नेतृत्व पीठ दिखाकर अपने ही भूभाग को दुश्मन के हवाले कर रहा हो। जम्मू-कश्मीर का जो भाग पाकिस्तान के कब्जे में चला गया वही पाक अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) कहलाया जिसे हम आज तक मुक्त नहीं करवा सके। आज इसी 'पी.ओ.के.' में पाकिस्तान सरकार और सेना आतंकवादी तैयार करने वाले प्रशिक्षण शिविर चला रही है। पाकिस्तान के सैन्याधिकारियों की देख-रेख में कश्मीरी युवकों को हिंसक जिहाद सिखाया जा रहा है। वास्तव में यही क्षेत्र सारे फसाद की जड़ है। भारतीय कश्मीर कोई समस्या नहीं है। भारत सरकार की अस्पष्ट और कमजोर कश्मीर नीति ही समस्या है। यही वजह है कि पाकिस्तान द्वारा थोपे गए चार युद्धों में विजय होने के बाद भी हमने अपने ही क्षेत्र 'पी.ओ.के.' को मुक्त नहीं करवाया जबकि पाकिस्तान ने चारों युद्ध भारतीय कश्मीर पर कब्जा करने के उद्देश्य से ही किए थे। हमारी रणनीति मात्र बचाव की ही रही। यही हमारी कूटनीतिक पराजय साबित हो रही है।

 

भयंकर भूलों का दर्दनाक इतिहास ना दुहराते हुए

दलगत राजनीति को छोड़ें

जम्मू–कश्मीर के भारत में हुए पूर्ण संवैधानिक विलय पर आज जो सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं और कश्मीर को भारत के संवैधानिक वर्चस्व से आजाद करवाने के लिए जो भी हिंसक अथवा अहिंसक अभियान चलाए जा रहे हैं, उन सबके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। 1947 में पाकिस्तान के साथ एकतरफा युद्ध विराम हमने किया। 'यू.एन.ओ.' को बिचौलिया हमने बनाया। कश्मीर का दो-तिहाई क्षेत्र हमने पाकिस्तान को सौंपा। देशभक्त महाराजा हरिसिंह को देश निकाला देकर देशद्रोही शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर की सत्ता  सौंप दी। धारा 370 के कवच में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा, अलग संविधान और अलग झण्डा दे दिया। देशद्रोह की सजा भुगत रहे शेख अब्दुल्ला को जेल से निकाल कर फिर सत्ता पर बिठा दिया। पाकिस्तान के एजेंट अलगाववादी संगठनों के नेताओं को हम जेड सुरक्षा दे रहे हैं। चार लाख कश्मीरी हिन्दुओं को बेघर करने के जिम्मेदार इन संगठनों से वार्तालाप की भीख मांगी जाती है। हिंसक आतंकवादियों से लोहा ले रहे भारतीय सुरक्षा जवानों का मनोबल तोड़ने की राजनीति की जा रही है।

इस तरह की घुटना टेक कश्मीर नीति भारत की उस संसद का अपमान है जिसने 1994 में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित करके निश्चय किया था कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न भाग है। इसमें पूरे जम्मू-कश्मीर में मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली, भिम्बर, गिलगित, बाल्टिस्तान और सियाचीन का सारा क्षेत्र शामिल है। इस पूरी रियासत का महाराजा हरिसिंह ने भारत में विलय किया था। कांग्रेस ने पूर्ण विलय के इस आधार को छोड़कर मजहबी तुष्टीकरण को आधार बनाकर कश्मीर को समस्या बना दिया। कांग्रेस और कांग्रेसी सरकारों द्वारा की गई भयंकर भूलों का नतीजा है कश्मीर में व्याप्त अलगाववाद और हिंसक जिहाद। अब तो एक ही रास्ता है कि देश की समस्त राष्ट्रवादी शक्तियां एकत्रित होकर अलगावादी मनोवृत्ति और तुष्टीकरण की राजनीति का प्रतिकार करें और पूर्ण विलय को अधूरा बताकर कश्मीर को 'आजाद मुल्क' बनाने के प्रयासों पर प्रत्येक प्रकार का सैनिक अथवा गैर-सैनिक प्रहार करें। यह कार्य दलगत राजनीति की तंग लकीरों से परे हटकर ही होगा।

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