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गत 24 अक्तूबर को नागपुर में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने विजयादशमी उत्सव के अवसर पर शस्त्रपूजन के बाद स्वयंसेवकों व अन्य विशिष्टजन को संबोधित किया। इस उत्सव की अध्यक्षता की आर्ष विद्या गुरुकुलम् के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती ने।
अपने उद्बोधन में सरसंघचालक ने देश की वर्तमान परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन करते हुए राजनीतिक–आर्थिक–सामाजिक मुद्दों की चर्चा की। उन्होंने विदेशों से संबंध, आर्थिक चुनौतियों, आंतरिक व बाह्य सुरक्षा, आतंकवाद, कट्टरवाद, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, भ्रष्टाचार आदि की कारण–मीमांसा की। श्री भागवत ने इन सभी चुनौतियों से उबरने का मार्ग भी बताया। प्रस्तुत है उनका उद्बोधन। -सं.
आज के दिन हमें स्व. सुदर्शन जी जैसे मार्गदर्शकों का बहुत स्मरण हो रहा है। विजययात्रा में बिछुड़े हुये वीरों की स्मृतियां आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। विजयादशमी विजय का पर्व है। संपूर्ण देश में इस पर्व को दानवता पर मानवता की, दुष्टता पर सज्जनता की विजय के रूप में मनाया जाता है। विजय का संकल्प लेकर, स्वयं के ही मन से निर्मित दुर्बल कल्पनाओं द्वारा खींचीं अपनी क्षमता व पुरुषार्थ की सीमाओं को लांघ कर पराक्रम का प्रारंभ करने के लिये यह दिन उपयुक्त माना जाता है। अपने देश के जनमानस को इस सीमोल्लंघन की आवश्यकता है, क्योंकि आज की दुविधा व जटिलतायुक्त परिस्थिति में से देश का उबरना देश की लोकशक्ति के बहुमुखी सामूहिक उद्यम से ही अवश्य संभव है।
चिंताजनक परिदृश्य
यह करने की हमारी क्षमता है, इस बात को हम सबने स्वतंत्रता के बाद के 65 वर्षों में कई बार सिद्ध कर दिखाया है। विज्ञान, व्यापार, कला, क्रीड़ा आदि मनुष्य जीवन के सभी पहलुओं में, देश-विदेशों की स्पर्धा के वातावरण में, भारत की गुणवत्ता को सिद्ध करने वाले वर्तमान कालीन उदाहरणों का होना अब एक सहज बात है। ऐसा होने पर भी सद्य परिस्थिति के कारण संपूर्ण देश में जनमानस भविष्य को लेकर आशंकित, चिन्तित व कहीं-कहीं निराश भी है। पिछले वर्षभर की घटनाओं ने तो उन चिन्ताओं को और गहरा कर दिया है। देश की आंतरिक व सीमान्त सुरक्षा का परिदृश्य पूर्णत: आश्वस्त करने वाला नहीं है। हमारे सैन्य-बलों को अपनी भूमि की सुरक्षा के लिये आवश्यक आधुनिक शस्त्र, अस्त्र, तंत्र व साधनों की आपूर्ति, उनके सीमा स्थित मोर्चों तक साधन व अन्य रसद पहुंचाने के लिये उचित रास्ते, वाहन, संदेश वाहन आदि का संजाल इत्यादि सभी बातों की कमियों को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने की तत्परता उन प्रयासों में दिखनी चाहिए। इसके विपरीत, सैन्यबलों के मनोबल पर आघात हो, इसके लिए सेना अधिकारियों के कार्यकाल आदि छोटी तांत्रिक बातों को बिना कारण तूल देकर नीतियों व माध्यमों द्वारा अनिष्ट चर्चा का विषय बनाए जाते हमने देखा है। सुरक्षा से संबंधित सभी वस्तुओं के उत्पादन में स्वावलंबी बनने की दिशा होनी चाहिए। अपनी नीति में सुरक्षा सूचनातंत्र में अभी भी तत्परता, क्षमता व समन्वय के अभाव को दूर कर उसको मजबूत करने की आवश्यकता ध्यान में आती है।
हमारी थलसीमा एवं सीमा अंतर्गत द्वीपों सहित सीमा क्षेत्र का प्रबन्धन पक्का करना व रखना पहली आवश्यकता है। आजकल देश की सीमाओं की सुरक्षा उनके सामरिक प्रबंध व रक्षण व्यवस्था के साथ-साथ, सुरक्षा की दृष्टि से अपने अंतरराष्ट्रीय राजनय के प्रयोग-विनियोग पर भी निर्भर होती है। उस दृष्टि से कुछ वर्ष पूर्व शासन के उच्चाधिकारियों से, एक बहुप्रतीक्षित नयी व सही दिशा की घोषणा 'लुक ईस्ट पॉलिसी' नामक वाक्यप्रयोग से हुयी थी। दक्षिण पूर्व एशिया के सभी देशों में इस सत्य की जानकारी व मान्यता है कि भारत तथा उनके राष्ट्रजीवन के बुनियादी मूल्य समान हैं, निकट इतिहास के काल तक व कुछ अभी भी सांस्कृतिक तथा व्यापारिक दृष्टि से उनसे हमारा आदान-प्रदान का घनिष्ठ संबंध रहा है। इस दृष्टि से यह ठीक ही हुआ कि हमने इन सभी देशों से अपने सहयोगी व मित्रतापूर्ण संबंधों को फिर से दृढ़ बनाने का सुनिश्चय किया। वहां के लोग भी यह चाहते हैं। परन्तु घोषणा कितनी व किस गति से क्रियान्वित हो रही है, इसका हिसाब वहां और यहां भी आशादायक चित्र नहीं पैदा करता। इस क्षेत्र में हमसे पहले हमारा प्रतिद्वंद्वी बनकर चीन दल-बल सहित उतरा है, यह बात ध्यान में लेते हैं तो यह गतिहीनता चिन्ता को और गंभीर बनाती है। अपनी आणविक तकनीकी पाकिस्तान को देने तक उसने पाकिस्तान से दोस्ती बना ली है, यह हम अब जानते ही हैं। नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका जैसे निकटवर्ती देशों में भी चीन का इस दृष्टि से हमारे आगे जाना सुरक्षा की दृष्टि से हमारे लिये क्या अर्थ रखता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इन सभी क्षेत्रों में भारतीय मूल के लोग भी बड़ी मात्रा में बसते हैं। उनके हितों की रक्षा करते हुये हमारे इन परम्परागत स्वाभाविक मित्र देशों को साथ में रखने की व उनके साथ रहने की दृष्टि हमारी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी होनी चाहिये।
सत्ता स्वार्थ में राष्ट्रहित की अनदेखी
परन्तु राष्ट्र का हित हमारी नीति का लक्ष्य है कि नहीं, यह प्रश्न मन में उत्पन्न हो, ऐसी घटनाएं पिछले कुछ वर्षों में हमारे अपने शासन-प्रशासन के समर्थन से घटती हुईं, सम्पूर्ण जनमानस की घोर चिन्ता का कारण बनी हैं। जम्मू-कश्मीर की समस्या के बारे में पिछले दस वर्षों से चली नीति के कारण वहां उग्रवादी गतिविधियों के पुनरोदय के चिन्ह दिखायी दे रहे हैं। पाकिस्तान के अवैध कब्जे से कश्मीर घाटी के भूभाग को मुक्त करना; जम्मू, लेह-लद्दाख व घाटी के प्रशासन व विकास में भेदभाव को समाप्त करते हुये शेष भारत के साथ उस राज्य के एकात्म भाव की प्रक्रिया को गति से पूर्ण करना; घाटी से विस्थापित हिंदू पुनश्च ससम्मान सुरक्षित अपनी भूमि पर बसें, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना; विभाजन के समय भारत में आये विस्थापितों को राज्य में नागरिक अधिकार प्राप्त होना आदि की बजाय वहां की स्थिति को जनाकांक्षा के विपरीत अधिक जटिल बनाने का ही कार्य चल रहा है। राज्य व केन्द्र के शासनारूढ़ दलों के सत्ता स्वार्थ के कारण राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करना व विदेशी दबावों में झुकने का क्रम पूर्ववत् चल रहा है। इतिहास के क्रम में राष्ट्रीय वृत्ति की हिन्दू जनसंख्या क्रमश: घटने के कारण देश के उत्तर भूभाग में उत्पन्न हुयी व बढ़ती गयी इस समस्यापूर्ण स्थिति से हमने कोई पाठ नहीं पढ़ा है, ऐसा देश के पूर्व दिशा के भूभाग की स्थिति को देखकर लगता है। असम व प. बंगाल की सच्छिद्र सीमा से होने वाली घुसपैठ व शस्त्रास्त्र, नशीले पदार्थ, जाली मुद्रा आदि की तस्करी के बारे में हम बहुत वर्षों से चेतावनियां दे रहे थे। देश की गुप्तचर संस्थाएं, उच्च व सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों के राज्यपालों तक ने समय-समय पर खतरे की घंटियां बजायी थीं। न्यायालयों से शासन के लिये आदेश भी दिये गये थे। परंतु उन सबकी अनदेखी करते हुये सत्ता के लिये लचीलेपन की नीति चली, स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टि के अभाव में गलत निर्णय हुये व पूर्वोत्तर भारत में खड़ा हुआ संकट का विकराल रूप सबके सामने है। घुसपैठ के कारण वहां पैदा हुआ जनसंख्या असंतुलन वहां की राष्ट्रीय जनसंख्या को अल्पमत में लाकर संपूर्ण देश में अपने हाथ-पैर फैला रहा है। व्यापक मतांतरण के साये में वहां फैले अलगाववादी उग्रवाद की विषवेल को दब्बू नीतियां बार-बार संजीवनी प्रदान करती हैं। उत्तरी सीमा पर आ धमकी चीन की विस्तारवादी नीति का हस्तक्षेप भी वहां होने की भनक लगी है। विश्व की 'अल कायदा' जैसी कट्टरवादी ताकतें भी उस परिस्थिति का लाभ लेकर वहां घुसपैठ करना चाह रही हैं। ऐसी स्थिति में अपने सशस्त्र बलों की समर्थ उपस्थिति व परिस्थिति के प्रतिकार में उभरा जनता का दृढ़ मनोबल ही राष्ट्र की भूमि व जन की सुरक्षा के आधार के रूप में बचे हैं। समय रहते हम नीतियों में अविलम्ब सुधार करें। पूर्वोत्तर भारत में तथा भारत के अन्य राज्यों में भी घुसपैठियों की पहचान त्वरित करते हुये तथा मतदाता सूची सहित (राशन पत्र, पहचान पत्र आदि) अन्य प्रपत्रों से इन अवैध नागरिकों के नाम बाहर कर देने चाहिये व विदेशी घुसपैठियों को भारत के बाहर भेजने के प्रबंध करने चाहिये। विदेशी घुसपैठियों की पहचान के काम में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो, यह दक्षता बरती जानी चाहिये। सीमाओं की सुरक्षा के तारबंदी आदि के दृढ़ प्रबंध व रक्षण व्यवस्था में अधिक सजगता से चौकसी बरतने के उपाय अविलम्ब किये जाने चाहिये। राष्ट्रीय नागरिक पंजी न्यायालयों द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देशित, जन्मस्थल, माता-पिता के स्थान अथवा मातामहों-पितामहों के स्थानों के पुख्ता प्रमाणों के आधार पर तैयार करनी चाहिए। पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र में व अन्यत्र भी यह पूर्व का अनुभव है कि जब-जब प्रशासन या शासन जनमत व न्यायालय के आदेशों के दबाव में विदेशी नागरिकों अथवा संशयास्पद मतदाताओं की पहचान करने का दिखावा करने गया तब-तब बंगलादेशी घुसपैठियों को तो उसने छोड़ दिया जबकि वहां से पीड़ित कर निकाले गये व अब भारत में अनेक वर्षों से बसे शांत व निरीह हिन्दुओं पर ही उनकी गाज गिरी।
भारत ही पितृ–भू
हम सभी को यह स्पष्ट रूप से समझना व स्वीकार करना चाहिए कि विश्वभर के हिन्दू समाज के लिये पितृ-भू व पुण्य-भू के रूप में केवल भारत-जो परम्परा से हिन्दुस्थान होने से ही भारत कहलाता है, हिन्दू अल्पसंख्यक अथवा निष्प्रभावी होने से जिसके भू-भागों का नाम तक बदल जाता है- ही है। पीड़ित होकर गृहभूमि से निकाले जाने पर उसके लिए आश्रय के रूप में दूसरा कोई देश नहीं है। अतएव कहीं से भी आश्रयार्थी होकर आने वाले हिन्दू को विदेशी नहीं मानना चाहिये। सिंध से भारत में हाल में ही आये आश्रयार्थी हों अथवा बंगलादेश से आकर बसे हों, अत्याचारों के कारण भारत में अनिच्छापूर्वक धकेले गये विस्थापित हिन्दुओं को हिन्दुस्थान में सस्नेह व ससम्मान आश्रय मिलना ही चाहिये। भारतीय शासन का यह कर्तव्य बनता है कि वह विश्वभर के हिन्दुओं के हितों का रक्षण करने में अपनी अपेक्षित भूमिका का तत्परता व दृढ़ता से निर्वाह करे।
भारत विरोध ताकतें
इस सारे घटनाक्रम का एक और गंभीर पहलू है कि विदेशी घुसपैठियों की इस अवैध कार्रवाई के प्रति, केवल वे अपने संप्रदाय के हैं इसलिये, कहीं पर कुछ तत्त्वों ने समर्थन का वातावरण बनाने का प्रयास किया। शिक्षा अथवा रोजगार के लिये भारत में अन्यत्र बसे पूर्वोत्तर भारत के लोगों को धमकाया गया। मुंबई के आजाद मैदान की घटना बहुचर्चित है। म्यांमार के शासन द्वारा वहां के रोहिंगियाओं पर की गई कार्रवाई का निषेध करने के लिए भारत में अमर जवान ज्योति का अपमान करने में गर्व महसूस करने वाली भारत विरोधी ताकतों को अंदर से समर्थन देने वाले तत्त्व अभी भी देश में विद्यमान हैं, यह संदेश साफ है।
यह चिन्ता, क्षोभ व ग्लानि का विषय है कि प्रशासन द्वारा देश हित के विपरीत नीति का प्रदर्शन हुआ व राष्ट्र विरोधियों के बढ़े हुये साहस के परिणामस्वरूप उन तत्त्वों द्वारा कानून व शासन का उद्दण्ड अपमान हुआ। सब सामर्थ्य होने के बाद भी तंत्र को पंगु बनाकर देश विरोधी तत्त्वों को खुला खेल खेलने देने की नीति चलाने वाले लोग दुर्भाग्य से स्वतंत्र देश के अपने ही लोग हैं।
हिन्दुओं के अपमान के ओछे प्रयास
समाज में राष्ट्रीय मनोवृत्ति को बढ़ावा देना तो दूर, हमारे अपने हिन्दुस्थान में ही मतों के स्वार्थ से, कट्टरता व अलगाव से अथवा विद्वेषी मनोवृत्ति के कारण पिछले दस वर्षों में हिन्दू समाज का तेजोभंग व बल हानि करने के नीतिगत कुप्रयास व छल-कपट बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। हमारे परम श्रद्धेय आचार्यों पर मनगढ़ंत आरोप लगाकर उनकी अप्रतिष्ठा के ओछे प्रयास हुये। वनवासियों की सेवा करने वाले स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की षड्यन्त्रपूर्वक हत्या की गयी, वास्तविक अपराधी अभी तक पकड़े नहीं गये। हिन्दू मन्दिरों की अधिग्रहीत संपत्ति का अपहरण व अप-प्रयोग धड़ल्ले से चल रहा है, संशय व आरोपों का वातावरण निर्माण किया गया, हिंदू संतों द्वारा निर्मित न्यासों व तिरुअनन्तपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर जैसे मंदिरों की संपत्ति के बारे में हिन्दू समाज की मान्यताओं, श्रेष्ठ परंपरा व संस्कारों को कलुषित अथवा नष्ट करने वाला वातावरण निर्माण करने वाले विषय जानबूझकर समाज में उछाले गये। बहुसंख्य व उदारमनस्क होते हुये भी हिन्दू समाज की अकारण बदनामी कर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले कानून लाने का प्रयास तो अभी भी चल रहा है। प्रजातंत्र, पंथनिरपेक्षता व संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का दावा करने वाले ही मतों के लालच में तथाकथित अल्पसंख्यकों का राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला हक बताकर साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं। 'लव जिहाद' व मतांतरण जैसी गतिविधियों द्वारा हिन्दू समाज पर प्रच्छन्न आक्रमण करने वाली प्रवृत्तियों से ही राजनीतिक साठगांठ की जाती है। फलस्वरूप इस देश के परम्परागत रहिवासी बहुसंख्यक राष्ट्रीयमूल्यक स्वभाव व आचरण का निधान बनकर रहने वाले हिन्दू समाज के मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि हमारे लिए बोलने वाला व हमारा प्रतिनिधित्व करने वाला नेतृत्व इस देश में अस्तित्व में है कि नहीं? हिन्दुत्व व हिन्दुस्थान को मिटा देने की सोच रखने वाली दुनिया की एकाधिकारवादी, जड़वादी व कट्टरवादी ताकतों तथा हमारे राज्यों व केन्द्र के शासन में पैठी मतलोलुप अवसरवादी प्रवृत्तियों के गठबंधन के षड्यंत्र के द्वारा और एक सौहार्द विरोधी कार्य करने का प्रयास हो रहा है। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर परिसर के निकट विस्तृत जमीन अधिग्रहीत कर वहां पर मुसलमानों के लिये कोई बड़ा निर्माण करने के प्रयास चल रहे हैं, ऐसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं।
जब अयोध्या में राममंदिर निर्माण का प्रकरण न्यायालय में है तब ऐसी हरकतों के द्वारा समाज की भावनाओं से खिलवाड़ सांप्रदायिक सौहार्द का नुकसान ही करेगा। 30 सितंबर 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को ध्यान में लेते हुए वास्तव में हमारी संसद के द्वारा शीघ्रातिशीघ्र भव्य मंदिर के निर्माण की अनुमति रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास को देने वाला कानून बने व अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा के बाहर ही मुसलमानों के लिये किसी स्थान के निर्माण की अनुमति हो, यही इस विवाद में संलिप्त राजनीति को बाहर कर विवाद को सदा के लिये संतोष व सौहार्दजनक ढंग से सुलझाने का एकमात्र उपाय है।
खुदरा में विदेशी निवेश क्यों?
परंतु देश की राजनीति में आज जो वातावरण है वह उसके देशहितपरक, समाज सौहार्दपरक होने की छवि उत्पन्न नहीं करता। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से बड़ी विदेशी कंपनियों का खुदरा व्यापार में आना विश्व में कहीं पर भी अच्छे अनुभव नहीं दे रहा है। ऐसे में खुदरा व्यापार तथा बीमा व पेंशन के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना हमें लाभ पहुंचाने के बजाय अंततोगत्वा छोटे व्यापारियों के लिये बेरोजगारी, किसानों के लिये अपने उत्पादों का कम मूल्य मिलने की मजबूरी तथा ग्राहकों के लिये अधिक महंगाई ही पैदा करेगा। साथ ही अपनी खाद्यान्न सुरक्षा के लिये भी खतरा बढ़ेगा। देश की प्राकृतिक संपदा की अवैध लूट तथा विकास के नाम पर जैव विविधता व पर्यावरण के साथ ही उन पर निर्भर लोगों को बेरोजगारी से लेकर विस्थापन तक की समस्याओं के भेंट चढ़ाना अनिर्बाध रूप से चल ही रहा है। देश के एक छोटे वर्ग मात्र की उन्नति को जनता की आर्थिक प्रगति का नाम देकर हम जिस तेज विकास दर की डींग हांकते थे वह भी आज 9 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक नीचे आ गयी है। संपूर्ण देश नित्य बढ़ती महंगाई से त्रस्त है। अमीर और गरीब के बीच लगातार बढ़ते जा रहे अन्तर ने विषमता की समस्या को और अधिक भयावह बना दिया है। न जाने किस भय से हड़बड़ी में बिना सोच-विचार-चर्चा के इतने सारे अधपके कानून लाये जा रहे हैं? इन तथाकथित 'सुधारों' के बजाय जहां वास्तविक सुधारों की आवश्यकता है उन क्षेत्रों-चुनाव प्रणाली, करप्रणाली, आर्थिक निगरानी की व्यवस्था, शिक्षा नीति, सूचना अधिकार कानून के नियम- में सुधार की मांगों की अनदेखी व दमन भी हो रहा है।
काल–सुसंगत प्रतिमान विकसित हों
अधूरे चिन्तन के आधार पर विश्व में आज प्रचलित विकास की पद्धति व दिशा ही ऐसी है कि उससे यही परिणाम सर्वत्र मिलते हैं। ऊपर से अब यह पद्धति धनपति बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठानों के खेलों से उन्हीं के लिये अनुकूल बनाकर चलायी जाती है। हम जब तक अपनी समग्र व एकात्म दृष्टि के दृढ़ आधार पर जीवन के सब आयामों के लिये, अपनी क्षमता, आवश्यकता व संसाधनों के अनुरूप व्यवस्थाओं के नये काल-सुसंगत प्रतिमान विकसित नहीं करेंगे तब तक न भारत को सभी के लिए फलदायी होने वाला संतुलित विकास व प्रगति उपलब्ध होगी, न अधूरे विसंवादी जीवन से दुनिया को मुक्ति मिलेगी।
चिन्तन के अधूरेपन के परिणामों को अपने देश में राष्ट्रीय व व्यक्तिगत शील के अभाव ने बहुत पीड़ादायक व गहरा बना दिया है। मन को स्तब्ध करने वाले भ्रष्टाचार-प्रकरणों के उजागर होने का तांता अभी भी थम नहीं रहा है। भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाने के, कालाधन वापस देश में लाने के, भ्रष्टाचार को रोकने वाली नयी कड़ी व्यवस्था बनाने के लिये छोटे-बड़े आंदोलनों का प्रादुर्भाव भी हुआ है। संघ के अनेक स्वयंसेवक भी इन आंदोलनों में सहभागी हैं। परन्तु भ्रष्टाचार का उद्गम शील के अभाव में है, यह समझकर संघ अपने चरित्र निर्माण के कार्य पर ही केन्द्रित रहेगा। लोगों में निराशा व व्यवस्था के प्रति अश्रद्धा न आने देते हुये व्यवस्था परिवर्तन की बात कहनी पड़ेगी अन्यथा मध्यपूर्व के देशों में अराजकता सदृश स्थिति उत्पन्न करके जैसे कट्टरवादी व विदेशी ताकतों ने अपना स्वार्थ साधा है, वैसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना नकारी नहीं जा सकती। अराजनीतिक सामाजिक दबाव का व्यापक व दृढ़ परन्तु व्यवस्थित स्वरूप ही भ्रष्टाचार उन्मूलन का उपाय बनेगा। उसके फलीभूत होने के लिये हमें व्यापक तौर पर शिक्षाप्रणाली, प्रशासनपद्धति तथा चुनावतंत्र के सुधार की बात आगे बढ़ानी होगी तथा व्यापक सामाजिक चिन्तन-मंथन के द्वारा हमारी व्यवस्थाओं के मूलगामी व दूरगामी परिवर्तन की बात सोचनी पड़ेगी। अधूरी क्षतिकारक व्यवस्था के पीछे, केवल वह प्रचलित है इसलिये, आंख मूंदकर जाने के परिणाम समाज जीवन में ध्यान में आ रहे हैं। बढ़ता हुआ जातिगत अभिनिवेश व विद्वेष, पिछड़े एवं वंचित वर्ग के शोषण व उत्पीड़न की समस्या, नैतिक मूल्यों के हृास के कारण शिक्षित वर्ग सहित सामान्य समाज में बढ़ती हुई महिला उत्पीड़न, बलात्कार, कन्या भ्रूणहत्या, स्वच्छन्द यौनाचार, हत्याएं व आत्महत्याएं, परिवारों का विघटन, व्यसनाधीनता की बढ़ती प्रवृत्ति, अकेलेपन के परिणामस्वरूप तनावग्रस्त जीवन आदि हमारे देश में न दिखने वाली अथवा अत्यल्प प्रमाण वाली घटनाएं अब बढ़ते प्रमाण में दृष्टिगोचर हो रही हैं। हमें अपने शाश्वत मूल्यों के आधार पर समाज की नवरचना की काल-सुसंगत व्यवस्था भी सोचनी पड़ेगी।
अपने से शुरुआत हो
अतएव सारा उत्तरदायित्व राजनीति, शासन, प्रशासन पर डालकर हम सब दोषमुक्त भी नहीं हो सकते। अपने घरों से लेकर सामाजिक वातावरण तक, क्या हम स्वच्छता, व्यवस्थितता, अनुशासन, व्यवहार की भद्रता व शुचिता, संवेदनशीलता आदि सुदृढ़ राष्ट्रजीवन की अनिवार्य व्यावहारिक बातों का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं? सब परिवर्तनों का प्रारम्भ हमारे अपने जीवन के दृष्टिकोण व आचरण के प्रारंभ से होता है, यह भूल जाने से, मात्र आंदोलनों से काम बनने वाला नहीं है।
स्व. महात्मा गांधी जी ने 1922 के 'यंग इंडिया' के एक अंक में सात सामाजिक पापों का उल्लेख किया था। वे हैं- तत्त्वहीन राजनीति, श्रम बिना संपत्ति, विवेकहीन उपभोग, शील बिना ज्ञान, नीतिहीन व्यापार, मानवता बिना विज्ञान, समर्पणरहित पूजा। आज अपने देश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य का ही यह वर्णन लगता है। ऐसी परिस्थिति में समाज की सज्जनशक्ति को ही समाज में तथा समाज को साथ लेकर उद्यम करना पड़ता है। हमें इस चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ना ही होगा। भारतीय नवोत्थान के जिन उद्गाताओं से प्रेरणा लेकर स्व. महात्मा गांधी जी जैसे गरिमावान लोग काम कर रहे थे, उनमें एक थे स्वामी विवेकानन्द। उनकी सार्ध जन्मशती के कार्यक्रम आने वाले दिनों में प्रारंभ होने जा रहे हैं। उनके संदेश को हमें चरितार्थ करना होगा। निर्भय होकर, स्वगौरव व आत्मविश्वास के साथ, विशुद्ध शील की साधना करनी होगी। कठोर निष्काम परिश्रम से जन में जनार्दन का दर्शन करते हुए नि:स्वार्थ सेवा का कठोर परिश्रम करना पड़ेगा, धर्मप्राण भारत को जगाना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य इन सब गुणों से युक्त व्यक्तियों के निर्माण का कार्य है। यह कार्य समय की अनिवार्य आवश्यकता है। आप सभी का प्रत्यक्ष सहभाग इसमें आवश्यक है। समाज निरंतर साधना व कठोर परिश्रम से अभिमंत्रित होकर संगठित उद्यम के लिये खड़ा होगा, तब सब बाधाओं को चीरकर सागर की ओर बढ़ने वाली गंगा के समान राष्ट्र का भाग्यसूर्य भी उदयाचल से शिखर की ओर कूच करना प्रारम्भ करेगा। अतएव स्वामीजी के शब्दों में- 'उठो, जागो व तब तक बिना रुके परिश्रम करते रहो जब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा लेते।'
उत्तिष्ठत! जाग्रत!! प्राप्यवरान्निबोधत!!!
– भारत माता की जय –
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