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17 अक्तूबर (बुधवार) की सायंकाल 5 बजे दिल्ली ही नहीं लगभग पूरे देश में लोग खबरिया टेलीविजन चैनलों पर किसी नये धमाके की प्रतीक्षा में बैठ गये। धमाका हुआ भी। 'भ्रष्टाचार विरुद्ध भारत' (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) के संयोजक अरविन्द केजरीवाल अपने दायें-बायें प्रशांत भूषण और कुमार विश्वास को बैठाकर प्रगट हुए। इस बार उनके साथ और दो नए महिला चेहरे भी थे, एक-अंजलि दमानिया और दूसरा प्रीति मेनन शर्मा का। इस बार धमाके का निशाना थे भाजपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी। और उनका आरोप वही पुराना था जो पिछले कुछ महीनों से राजनीति के गलियारों में गूंज रहा था कि नितिन गडकरी एक बड़े उद्योगपति व व्यापारी हैं, वे भाजपा और राजनीति का उपयोग अपने व्यापारिक हितों को बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और महाराष्ट्र के (पूर्व) उपमुख्यमंत्री व सिंचाई मंत्री अजीत पवार के साथ गहरी छनती है। इस दोस्ती के सहारे अजीत पवार ने केवल चार दिन में विदर्भ की वह जमीन गडकरी को सौंप दी जो किसानों से बांध के नाम पर अधिग्रहण की गई थी, जो बांध बन जाने के बाद भी खाली पड़ी थी, जबकि ऐसी अतिरिक्त जमीन को उसके मालिक (किसानों) को वापस कर दिया जाना चाहिए था और किसानों ने इसके लिए लिखित प्रार्थना भी की, पर वह प्रार्थना दो वर्ष तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही, जबकि गडकरी को अजीत पवार ने वह जमीन केवल चार दिन में सौंप दी। क्यों? अंजलि दमानिया, जिन्होंने इस विषय को पहले उठाया, बताया कि गडकरी ने उनसे कहा था कि पवार हमारे चार काम करते हैं, हम उनके चार काम करते हैं, ऐसे ही कामों में एक काम यह भी था कि जो बांध किसानों को सिंचाई की सुविधा देने के नाम पर बनाया गया था, उसका पानी किसानों को न देकर गडकरी के कारखानों को चलाने के लिए दे दिया गया। इन आरोपों के बल पर केजरीवाल ने निष्कर्ष निकाला कि सभी पार्टियों के नेता आपस में मिले हुए हैं, एक ही दाल के चट्टे-बट्टे हैं और पूरी राजनीति भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ फंसी हुई है। इस समूची व्यवस्था को बदलना होगा, हम उसकी आधारभूमि तैयार करने में लगे हैं।
कांग्रेस–भाजपा का भेद
उक्त पत्रकार वार्ता को आद्योपांत सुनने से स्पष्ट था कि गडकरी के विरुद्ध इस आरोप पत्र को तैयार करने में अंजलि दमानिया की मुख्य भूमिका है और महाराष्ट्र के किसी बांध के बगल की भूमि को लेकर अंजलि स्वयं भी लम्बे समय से विवाद में उलझी हुई हैं। संभवत: उसी विवाद के कारण वह 'इंडिया अंगेस्ट करप्शन' से जुड़ीं और उन्होंने केजरीवाल को नया धमाका करने का मसाला प्रदान किया। उनका यह प्रयास व्यर्थ नहीं गया। कई दिनों से प्रेस कांफ्रेंस टलती जा रही थी। अंतत:जब वह हुई तो भाजपा का शीर्ष नेतृत्व गडकरी के घर पर उसे 'लाइव' देखने बैठा और तुरंत पश्चात पहले स्वयं गडकरी और बाद में लोकसभा व राज्यसभा में विपक्ष के नेता क्रमश: सुषमा स्वराज व अरुण जेतली ने केजरीवाल व अंजलि द्वारा लगाये गये प्रत्येक आरोप का खंडन करने वाले तथ्य प्रस्तुत किये। उनकी यह तत्परता सोनिया के दामाद राबर्ट वाढरा के विरुद्ध लगे आरोपों की प्रतिक्रिया से बिल्कुल भिन्न थी। सोनिया परिवार ने तो पूरी तरह चुप्पी साध ली और उनके बाकी सिपहसालारों ने इसे भाजपा का षड्यंत्र बताकर केजरीवाल टीम को भाजपा की 'बी टीम' घोषित कर दिया। हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने राबर्ट वाढरा के जमीन घोटाले का संज्ञान लेने वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व जिलाधिकारी अशोक खेमका का तत्काल प्रभाव से स्थानांतरण करा दिया। राबर्ट वाढरा के बचाव में सभी बड़े केन्द्रीय मंत्री, यहां तक कि कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज भी अखाड़े में कूद पड़े। सोनिया पार्टी के सिपाहसालारों ने वाढरा पर लगाये गये आरोपों का तथ्यात्मक खंडन करने की बजाए गाली-गलौज की भाषा में किसी षड्यंत्र को सूंघना शुरू कर दिया। राबर्ट वाढरा के बचाव का जो तरीका अपनाया जा रहा है उससे इतना तो स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के परनाले के मुख्य द्वार पर बैठी हुई सोनिया चुप्पी के परदे के पीछे किस प्रकार सत्तातंत्र और पार्टी के चापलूसों का इस्तेमाल अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए करती है। वह इन हमलों से बहुत घबरायी हुई हैं और किसी षड्यंत्रकारी जोड़-तोड़ में लगी हुई हैं, यह राष्ट्रपति पद पर आसीन प्रणव मुखर्जी से उनकी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की एक एक घंटा लम्बी मुलाकातों के सामचार से स्पष्ट है। समाचार तो यह भी आया कि इनके बाद राहुल राष्ट्रपति से मिलने वाले हैं, पर अगले दिन वे प्रधानमंत्री से ही डेढ़ घंटा लम्बी भेंट पर रुक गये। इन भेंटों में क्या बात हुई यह कोई नहीं जानता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि अंदर ही अंदर कोई खिचड़ी पक रही है।
खुर्शीद की बौखलाहट के मायने
राबर्ट वाढरा के बाद केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के डा.जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा विकलांगों की सहायता के नाम पर भ्रष्टाचार भी प्रकाश में आया। आरोप है कि उनके न्यास को प्राप्त हुए सरकारी अनुदान का उपयोग विकलांगों की सहायता के लिए हुआ ही नहीं। न तो उनके लिए घोषित विकलांग शिविर लगाये गये, न विकलांगों को उपकरण प्रदान किये गये, और शिविर लगाने के झूठे प्रमाण पत्र, झूठे हस्ताक्षरों के साथ सरकार को पेश कर दिए गये। पहले कानून मंत्री की पत्नी लुईस फर्नांडीज ने इन आरोपों का खंडन करने का प्रयास किया, फिर इंग्लैण्ड से वापस लौटकर कानून मंत्री ने स्वयं 'प्रेस कांफ्रेंस' बुलाकर सफाई देना चाही। उस 'प्रेस कांफ्रेंस' में उन्होंने एक समाचार चैनल पर पूरी कहानी गढ़ने का आरोप लगाया, उसके संवाददाता को 'प्रेस कांफ्रेंस' से निकल जाने का हुक्म दिया और पूरी बहस को मीडिया के विरुद्ध केन्द्रित कर दिया। इसके जवाब में केजरीवाल ने घोषणा की कि हम 1 नवम्बर को खुर्शीद व उनकी एनजीओ के कार्यक्षेत्र फर्रुखाबाद में जाकर अपने आरोपों के पक्ष में प्रदर्शन करेंगे। इस पर सलमान खुर्शीद की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी। टेलीविजन चैनलों पर उन्हें बहुत भावुक आवाज में यह कहते सुनाया गया कि 'मुझे वकीलों का मंत्री बना दिया, मुझे 'लॉ मिनिस्टर' बना दिया और कहा कलम से काम करो। करूंगा, कलम से काम करूंगा, लेकिन लहू से भी काम करूंगा।..वो जाये फर्रुखाबाद, वो आए फर्रुखाबाद, लेकिन लौटकर भी दिखाए फर्रुखाबाद से…वो यह कहते हैं कि हम सवाल पूछेंगे, तुम जवाब देना। हम कहते हैं कि तुम जवाब सुनो, और सवाल पूछना भूल जाओगे।' केजरीवाल की इस पर प्रतिक्रिया है कि यह भाषा देश के कानून मंत्री की नहीं, किसी माफिया की लगती है। सलमान खुर्शीद की जो छवि मेरे मन में थी, उसे उनकी दिल्ली की 'प्रेस कांफ्रेंस' और फर्रुखाबाद की भड़ास ने भारी क्षति पहुंचायी है। यदि कानून मंत्री खुर्शीद जैसा शालीन और सुसंस्कृत व्यक्ति ऐसी भाषा का प्रयोग कर सकता है तो इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा की यह टिप्पणी तो बहुत शाकाहारी लगती है कि क्या कोई केन्द्रीय मंत्री 70 लाख की ग्रांट में घोटाला करेगा, 70 करोड़ की बात होती तो समझ में आती।
राजनीतिक प्रणाली का संकट
सोनिया पार्टी के बड़बोले महामंत्री दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से यह कहकर कि जब राजग सत्ता में थी, तब हमने तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के रिश्तेदारों के घोटालों के बारे में जानकारी होने पर उन्हें कभी नहीं उघाडा, क्योंकि हमारी दृष्टि में यही राजनीति की नैतिकता है। दिग्विजय सिंह के इस कथन से स्पष्ट है कि वे चाहते हैं कि हम भाजपा के बारे में चुप रहे इसलिए भाजपा भी अपनी 'बी टीम' के द्वारा 'सोनिया जी के परिवार' के घोटालों पर चुप रहे। एक कांग्रेस नेता के इस प्रकार के कथन केजरीवाल के इस आरोप को पुष्ट करते हैं कि सब राजनीतिक दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, सब आपस में मिले हुए हैं और आपस में सत्ता की बंदरबांट कर रहे हैं, जनहित की उन्हें कोई चिंता नहीं है, पूरी राजनीतिक व्यवस्था का यही चरित्र है और इस चरित्र पर चोट करने के लिए हम मैदान में उतरे हैं। राजनेताओं पर केजरीवाल टीम के इन आरोपों को इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया जिस प्रकार प्रमुखता दे रहा है वह मूर्तिभंजन के इस अभियान को मिल रहे व्यापक जनसमर्थन का परिचायक है। इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि राष्ट्र इस समय जिस दु:खद स्थिति से गुजर रहा है उसके लिए किसी एक राजनीतिक दल या नेता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह संकट दल या नेतृत्व का नहीं, समूची राजनीतिक प्रणाली और संवैधानिक रचना का है, और बिना उनका स्वस्थ विकल्प ढूंढे इस संकट से बाहर निकलना संभव नहीं है।
हरियाणा के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का पिछले 21 वर्ष के कार्यकाल में 41 बार स्थानांतरण क्यों हुआ, क्योंकि उन्होंने अपनी शपथ के प्रति ईमानदार रहकर कर्तव्य पारायणता व नियमानुसार निष्पक्ष निर्णय लेने का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहा। इस भ्रष्ट राजनीतिक प्रणाली ने ऐसे कर्तव्य पारायण व ईमानदार अधिकारी का अभिनंदन करने की बजाय उसे वेदना के आंसू ही प्रदान किये हैं। अशोक खेमका के साथ जो कुछ हो रहा है उससे प्रमाणित होता है कि पूरा प्रशासन तंत्र राजनेताओं के दबाव में भ्रष्ट हो चुका है। ऐसे भ्रष्ट प्रशासन तंत्र में ईमानदारी पर टिके रहने वाले अधिकारी अंगुलियों पर गिनने भर के रह गये हैं, और वे भी अपनी-अपनी जगह प्रताड़ित और अवांछित हैं। राजनीति में अब आदर्शों व सिद्धांतों के लिए कोई जगह नहीं रह गयी है। राजनेताओं का एकमात्र लक्ष्य अपने लिए सत्ता व धनशक्ति अर्जित करना है। इसके लिए वे नकारात्मक राजनीति करते हैं। बिहार के लालू यादव और रामविलास पासवान इस सत्तालोलुप राजनीति के ज्वलंत उदाहरण हैं। मधुबनी में एक युवक की सिरकटी लाश को किसी प्रशांत की लाश बताकर पहले छात्र उपद्रव भड़काया गया, थानों, वाहनों व दुकानों पर हमला करवाया गया, उनको आग लगायी गयी, फिर पुलिस को गोलीबारी के लिए बाध्य किया गया। इसके बाद पुलिस की गोलीबारी को कारण बताकर मधुबनी के बाहर भी अशांति की आग फैलाने की कोशिश की गई। वामपंथी दलों ने 'बिहार बंद' की घोषणा कर दी। लालू यादव और पासवान भीड़ का नेतृत्व कर जेल चले गये। यह सब होने के बाद पता चला कि प्रशांत अपनी प्रेमिका के साथ दिल्ली में घूम रहा था और वह सिरकटी लाश किसी अज्ञात युवक की थी। ऐसी राजनीति को आप क्या कहेंगे?
व्यवस्था परिवर्तन की आहट?
प्रत्येक राजनेता अपने लिए मंत्री पद, मुख्यमंत्री पद या प्रधानमंत्री पद ढूंढ रहा है और अपने को योग्यतम मानता है। राजनेताओं के आचरण ने कानून और व्यवस्था को जीर्ण-शीर्ण कर दिया है, पुलिस को अपराधियों के सामने बेबस बना दिया है, आए दिन पुलिस पर हमलों के समाचार छपते रहते हैं, देश की राजधानी दिल्ली में पिछले दस महीने से छह पुलिसकर्मी अपने कर्तव्य पालन के लिए प्राण गंवा चुके हैं। 'पुलिस सुधारों' की बात बरसों से चल रही है पर अधिकांश राज्य सरकारें उस पर सोई हुई हैं। इसीलिए इसी सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को फटकार लगायी है। पर फटकार तो पहले भी लग चुकी है। स्पष्ट है कि व्यवस्था के सब खंभे चरमरा चुके हैं-विधायिका, कार्यपालिका, मीडिया… तो न्यायपालिका अकेले क्या कर सकेगी? और फिर न्यायपालिका पर भी तो कम उंगलियां नहीं उठ रही हैं।
ऐसी स्थिति में इस भ्रष्ट व्यवस्था से बाहर निकलने का मार्ग क्या है? लगता है हम शनै:शनै अराजकता की गोद में जा रहे हैं। क्या यह अराजकता व्यवस्था परिवर्तन की पहली सीढ़ी है? व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्या हमें अराजकता की यातना से गुजरना ही होगा? भ्रष्ट व्यवस्था से ऊबा जनमानस मीडिया की आंखों से व्यवस्था ध्वंस के प्रहारों में इतनी रुचि ले रहा है। और जन रुचि के कारण मीडिया उनको इतना अधिक महत्व दे रहा है।
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