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Oct 20, 2012, 12:00 am IST
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चटगांव की क्रांति की लोमहर्षक गाथा

दिंनाक: 20 Oct 2012 13:53:09

चटगांव की क्रांति की

लोमहर्षक गाथा

अंग्रेजी हुकूमत से भारत को आजाद कराने  की लड़ाई में ऐसे न जाने कितने क्रांतिवीरों ने भाग लिया था जिनके अपनी माटी से प्रेम और आजादी की बलिवेदी पर खुद को हंसते-हंसते न्योछावर कर देने के जज्बे की कितनी ही गाथाएं इतिहास के पन्नों में कहीं ओझल सी रही हैं। अविभाजित बंगाल के चटगांव में एक ऐसे ही देशभक्त क्रांतिकारी थे सूर्य सेन, जिन्हें प्यार से लोग मास्टर दा पुकारते थे। महज 60 किशोरों और कुछ युवा साथियों में उन्होंने आजादी का ऐसा जुनून पैदा किया था कि वे सब आधुनिक हथियारों और सब तरह के बंदोबस्त से लैस ब्रिटिश सैनिकों से टकरा गए और अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। इतिहास में इसे 'चटगांव क्रांति' के नाम से जाना जाता है।

12 जनवरी 1934 को मास्टर दा को भीषण यातनाओं के बाद फांसी दे दी गई थी। इसी लोमहर्षक दास्तान और चटगांव के क्रांतिवीरों की अमर कथा को पर्दे पर साकार करती है फिल्म 'चिटगांव'। एक लंबे समय बाद आई एक ऐसी फिल्म जो सही मायनों में समाज को उस स्वर्णिम इतिहास की झलक दिखाती है जिसे देश को लूट-खसोटकर लीलने में लगे बेशर्म नेताओं ने अपमानित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। 'चिटगांव' आज की फूहड़ता से भरी पैसा कमाऊ फिल्मों की भीड़ से अलग एक सकारात्मक संदेश देने वाली फिल्म है।

18 अप्रैल 1930 : चटगांव में मास्टर दा सूर्य सेन के नेतृत्व में 'इंडियन रिपब्लिकन आर्मी' के झंडे तले 14 से 17 साल के चंद किशोरों और 7-8 युवकों की टोली अंग्रेजी शस्त्रागार, पुलिस लाइन यूरोपियन क्लब, टेलीफोन एक्सचेंज पर एक साथ सुनियोजित हमला बोलती है। अंग्रेज अफसरों के होश उड़ जाते हैं। एक गोली चलाए बिना ही, अपने अभियान में सफल होकर क्रांतिवीरों का यह दल चटगांव के बाहर जलालाबाद की पहाड़ियों में छुपकर अंग्रेज फौजियों से टकराने की तैयारी करता है। मास्टर दा कच्ची उम्र के किशोरों, खासकर 14 साल के झुंकू में देश के लिए कुर्बान होने का ऐसा जज्बा भरते हैं कि मामूली हथियारों और कामचलाऊ प्रशिक्षण के बावजूद वे सब गजब का मोर्चा संभालते हैं और अपने 80 सिपाही खोने के बाद अंग्रेज टुकड़ी पीछे हटने को मजबूर हो जाती है।

इसके बाद मास्टर दा अपनी टोली को छोटे समूहों में आसपास के गांवों में बिखर जाने को कहकर किशोरों को आगे की कार्रवाई तक अपने घर लौट जाने को कहते हैं। झुंकू के मन में दुविधा थी, पर सूर्य सेन के समझाने पर वह भी घर लौट जाता है। अंग्रेजों की पुलिस क्रांतिवीरों की धरपकड़ करती है। 14 साल के झुंकू को जेल में यातनाएं दी जाती हैं, पर अंग्रेजों के जुल्म उसके भीतर जल रही क्रांति की ज्वाला को डिगा नहीं पाते। 'चिटगांव' इसी झुंकू की जुबानी कही गई 'चटगांव क्रांति' की गाथा है। क्रांतिकारियों को जेल होती है। झुंकू को जनवरी 1933 में काले पानी की सजा दी जाती है। आजादी के इतिहास में वह अंदमान जेल जाने वाला सबसे कम उम्र का स्वतंत्रता सेनानी बना था।

अमरीकी अंतरिक्ष संस्था 'नासा' में 18 साल काम कर चुके अनेक पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक बेेदब्रत पाइन ने फिल्म बनाने के अपने जुनून को साकार करने के लिए 'नासा' छोड़कर 'चिटगांव' बनाई है। फिल्म के लेखक, निर्माता और निर्देशक पाइन कहते हैं कि 2006 में कोलकाता में 92 साल के स्वतंत्रता सेनानी सुबोध राय से हुई उनकी मुलाकात से यह फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली। बचपन में झुंकू पुकारे जाने वाले इन्हीं सुबोध राय ने चटगांव क्रांति गाथा का ऐसा वर्णन किया था जैसे उस वक्त भी वे सब घटनाएं उनकी आंखों के सामने घूम रही थीं। पाइन के रोंगटे खड़े हो गए और उन्होंने 'नासा' में किए अपने अनुसंधानों की रॉयल्टी से इस सच्ची घटना को फिल्म के पर्दे पर उतारने का फैसला कर लिया था। मगर इस बीच आशुतोष गोवारिकर ने अभिषेक बच्चन और दीपिका पाडुकोन को लेकर इसी कथानक पर 'खेलें हम जी जान से' (2010) बना ली। वह फिल्म कब आई कब गई, पता ही नहीं चला। उसकी महज 1/8 लागत से बनी 'चिटगांव', बताते हैं, अभिषेक की फिल्म के प्रदर्शित होने से पहले सिनेमाघरों में आने से रुकवा दी गई थी। पर बर्लिन, वेनिस और टोरंटो फिल्म समारोहों में 'चिटगांव' खूब सराही जा चुकी थी।

आखिरकार, भारत में यह फिल्म प्रदर्शित हुई और अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही। अदाकारों में मास्टर दा के किरदार में मनोज वाजपेयी, अंग्रेज जिला मजिस्ट्रेट के रूप में बैरी जान, निर्मल सेन की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्दीकी, प्रीतिलता की भूमिका में वेगा तमोतिया और बेशक, किशोर झुंकू के किरदार में दिलजाद हिवले ने पात्रों के भावों के साथ न्याय किया है। मजे की बात यह है कि फिल्म में पर्दे पर गाना-बजाना नहीं है, बीच-बीच में पार्श्व में जरूर गीतों की पंक्तियों की गुनगुनाहट सुनाई दी। दृश्यों को प्रभावी बनाने में पाइन के आर.ई.डी. तकनालाजी के कैमरे ने भी कमाल किया है। आजादी की जंग की एक धुंधलाती गाथा को पर्दे पर उतारने में पाइन की यह कोशिश निश्चित ही उन लोगों को छू जाएगी जो पैसा बटोरने की अंधी दौड़ से अलग अपने दिल के किसी कोने में देश के प्रति एक सम्मान का भाव रखते हैं।

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