…..तब बुद्धिजीवी बन जाता है संत
|
बौद्धिकता का शाश्वत आधार
ईमानदारी से सत्य की निरन्तर खोज करते रहने, उसको व्यक्त करते रहने वाला ही बुद्धिजीवी है। जब वह सत्य से साक्षात्कार करता है तो संत बनता है और संत को बुद्धिजीवी बनने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह बुद्धि के क्षेत्र से हृदय के क्षेत्र में प्रवेश करता है। संत को अपने को अपनी बुद्धि से समझाना नहीं पड़ता, वह तो हृदय से निर्देशित होता है। इसलिए सत्य की निरन्तर खोज करने वाला ही बुद्धिजीवी है और जब उस सत्य का साक्षात्कार हो जाता है तो वह संत बनता है। यही हमारे भारत की परम्परा है। हमारे देश के ऋषि, संत तथा अन्य कई नाम इसी श्रेणी में आते हैं।
बुद्धिजीवियों का दोहरापन
एक बात जो चर्चा में आती है वह है बुद्धिजीवियों के दोहरेपन की। बहुत वर्ष पहले भारत के एक शीर्ष पत्रकार श्री जनार्दन ठाकुर ने बुद्धिजीवियों के बारे में एक टिप्पणी की थी, जो मुझे आज भी याद है। वह टिप्पणी थी, 'वे अपनी छवि तो वामपंथी रखना चाहते हैं, लेकिन दक्षिणपंथी अनुकूलताओं से भी उन्हें परहेज नहीं।' यह एक विडम्बना है भारत के बुद्धिजीवियों के दोहरे मापदंड एवं आडम्बर की। आज कई बुद्धिजीवी सरकार की सुविधाएं पाने के लिए या फिर विदेशी आकर्षण में फंसकर अपनी बौद्धिक क्षमता को बेचने के लिए आतुर रहते हैं।
सैकड़ों वर्ष पहले की बात है- कश्मीर के तत्कालीन राजा ने यह सुना कि उसके राज्य में एक अत्यंत ख्याति प्राप्त विद्वान रहते हैं, लेकिन वे अत्यंत गरीबी में गुजर-बसर करते हैं और एक छोटी सी-झोपड़ी में रहते हैं। यह सुनकर राजा उस विद्वान की झोपड़ी पर बहुत सारा धन-दौलत लेकर गए और उनसे विनम्रतापूर्वक कहा कि वे इसे ग्रहण करें, क्योंकि उनके गरीबी में रहने से उन्हें कष्ट होता है। यह सुनकर उस विद्वान व्यक्ति ने अपनी पत्नी से कहा कि 'हमारा यहां इस हाल में रहना राजा को कष्ट देता है, इसलिए सामान बांध लो, हम कहीं और जाकर रहेंगे।' राजा यह सुनकर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ और उसने पूछा कि मुझसे क्या गलती हो गई? तब उस विद्वान ने कहा, 'मैं अपने हाल पर यहां खुश हूं, आप भी अपने महल में आराम से रहिए। अन्यथा मैं यहां से कहीं और प्रस्थान कर जाऊंगा।' स्पष्ट है कि हमारे देश में बुद्धिजीवियों की ऐसी स्वस्थ परम्परा रही है। सदियों तक हमारे देश के बुद्धिजीवी, ऋषि या संत किसी राजा के आश्रय में नहीं गए। यही कारण है कि वे लोग आज भी समाज में पूजनीय हैं। जिन्होंने राजमहल को आश्रय बना लिया, समाज उनको पूछता भी नहीं है, उनके बारे में सोचता भी नहीं है। जो इससे परे रहे, जो उनसे स्वतंत्र रहे, वही लोग आज भी सम्मान के साथ याद किए जाते हैं।
बुद्धिजीवियों के तीन आयाम
मुझे लगता है कि तीन चीजें विद्वान या फिर जिन्हें बुद्धिजीवी कहते हैं, के लिए आवश्यक हैं-
1-परिवेश और स्वातंत्र्य–परिवेश और स्वातंत्र्य का तात्पर्य है-मुक्त रूप से कहने का स्वातंत्र्य और विरुद्ध बातें सुनने की सहिष्णुता। बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि बुद्धिजीवी आंतरिक और बाह्य दोनों रूप से स्वतंत्र हो।
2-चारित्र्य–जिसके अन्तर्गत ईमानदारी एवं दोहरेपन की हर तरह की बात आती है। जो व्यक्ति अपने चरित्र से चीजों को स्थापित नहीं कर सकता और केवल बातों से, वाणी से, लेखन से, बौद्धिकता से, तर्क से स्थापित करने का प्रयास करता है, वह बहुत समय तक नहीं टिकता है।
3-क्रियाशीलता–हमारे यहां एक कहावत रही है 'य:क्रियावान् स:पण्डित:।' अर्थात् बौद्धिक क्षेत्र में जो बुद्धिजीवी हैं उन्हें हमेशा क्रियाशील रहना चाहिए। समाज के पक्ष में, समाज के हित में क्रियाशीलता। उन्हें हमेशा अपनी बौद्धिक क्षमता को क्रियाशील बनाए रखना चाहिए।
भारत और भारतीयता से अलगाव क्यों?
बुद्धिजीवियों के बारे में सामान्यत: कहा जाता है कि वे समस्या तो बताते हैं पर समाधान नहीं। इस संबंध में मुझे नेपोलियन के जीवन की एक घटना याद आ रही है। एक युद्ध के दौरान जब नेपोलियन बोनापार्ट अपनी रणनीति को लागू कर रहे थे तो अक्सर वहां के पत्रकार उसकी नीतियों की आलोचना करते थे कि ऐसा नहीं किया या फिर ये क्यों किया आदि, आदि। इससे परेशान होकर नेपोलियन ने सभी पत्रकारों को भोजन पर बुलाया और पूछा कि आप मेरी हर रणनीति पर सवाल उठाते रहते हैं, आज आप ही बताइए कि मैं अपने आगामी अभियान को किस तरह क्रियान्वित करूं। तब सारे पत्रकारों ने एक साथ हाथ खड़े कर दिए और कहा कि यह हमारा काम नहीं है। आप पहले काम करो, फिर हम उसके बारे में लिखेंगे कि क्या गलत है और क्या सही। बुद्धिजीवियों के बारे में ऐसी ही आम धारणा है।
एक और बात जो देश की शहरी सोच के बारे में है, वह है जीवन मूल्यों के बारे में। सुविख्यात गांधीवादी विचारक धर्मपाल जी ने लिखा है कि कैसे एक छोटी-सी सोच इस देश के बुद्धिजीवियों की दिशा, नीतियों की दिशा और इस देश के प्रशासकों की दिशा को बदल देती है। व्यवस्थाओं के शहरीकरण ने भारतीयता को भारत से बाहर निकालने का प्रयास शुरू कर दिया है। उन्होंने आगे लिखा है कि अपने देश की परम्परा क्या थी और अब क्या हो गई और इसके क्या-क्या दुष्परिणाम हमें भुगतने पड़ रहे हैं। पिछले 10-11 सालों में हिन्दुस्थान में लगभग 1 लाख किसानों ने आत्महत्या कीं, लेकिन कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। लेकिन यदि हिन्दुस्थान में एक हजार 'आईटी प्रोफेशनल्स' ने आत्महत्या की होती, यदि एक हजार उद्योगपतियों ने आत्महत्या की होती, तो देश में हंगामा हो जाता। भारत में एक लाख अन्नदाताओं ने खुदकुशी कीें और देश चल रहा है। यदि चार आईटी कंपनियां बेंगलूरु से बाहर चले जाने की बात करें तो सारे देश में भूचाल आ जाता है। लेकिन एक लाख किसान, एक लाख किसानों के परिवार बर्बाद हो गए, न दिल्ली हिली न देश हिला। यह हो गयी है हमारी शहरी सोच और हमारे जीवन मूल्य। वास्तव में हम भारत में रहकर भी भारत से अलग हो गए हैं। जब हम भारत से अलग होते हैं तब स्वाभाविक रूप से ऐसा ही होता है। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा कब से हुआ? जब हमने अपनी शासन पद्धति को भुलाकर 'नेहरू मॉडल' अपनाया, तब से यह शुरू हुआ। जब हमने संस्थानों को, शैक्षिक जगत को, मीडिया को एक लीक पर चलाने का प्रयास किया, तब हम भारत से अलग हो गए।
पिछले दिनों प्रो.बाल गंगाधर, जो मार्क्सवाद के बहुत बड़े पुजारी माने जाते रहे जिन्होंने बहुत -सी पुस्तकें लिखी हैं, ने कहा कि मैं लगभग दो ढाई-दशक तक गलत रास्ते पर चलता रहा। अब वे विश्वविद्यालय के शिक्षकों- छात्र-छात्राओं के बीच कह रहे हैं कि समाज विज्ञान को औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त किया जाए। अर्थात् हम भारत की विरासत से अलग होकर पाश्चात्य प्रभाव में चले गये हैं। हमारा मस्तिष्क औपनिवेशिक हो गया है। परिणामत: हमारा समाज विज्ञान भी उपनिवेशवाद का शिकार हो गया है, हमारी चिंतन प्रक्रिया भी औपनिवेशिक हो गई है। इसको अनौपनिवेशिक करने की जरूरत है। इसी अभियान में प्रो.बाल गंगाधर लगे हुए हैं। वह भी तब जब वे बीस साल तक वामपंथ के पुजारी रहे।
मुक्त रहे चिंतन
बुद्धिजीवियों के बीच वामपंथी और दक्षिणपंथी की लकीरें खींचना गलत है। बुद्धिजीवी बुद्धिजीवी होता है। उसे समाज के सामने खड़े होने के लिए अपनी छवि बचाने के लिए, किसी की अनुकूलता पानेे के लिए वामपंथ या दक्षिणपंथ का आवरण पहनने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। वास्तव में जो बुद्धिजीवी होता है उसका न वामपंथ होता है न दक्षिणपंथ। जो सत्य है उसको स्वीकार करना ही इस देश की परम्परा रही है। इस देश की परम्परा है शास्त्रार्थ की। समाज में फैली अस्पृश्यता के बारे में सब बातें करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ एक बौद्धिक अस्पृश्यता वर्षों से इस देश में चलाई जा रही है। मुझे लगता है कि एक यूरोप केन्द्रित मस्तिष्क रहा है जिसने भारत को, भारत की बौद्धिकता को, भारत की विद्वता को, भारत की शिक्षा के आयामों को औपनिवेशिक प्रभाव में बांध रखा है। उन्हें उससे मुक्त कराने की आवश्यकता है। बौद्धिक योगदान से ही देश के भीतर, समाज के भीतर, राष्ट्र के भीतर परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ की जा सकती है। बौद्धिक क्रियाशीलता के बिना कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। भारतीय राष्ट्र हित में, संस्कृति पूरक मानव के पक्ष में एक स्वर्णिम दिन आने की बहुत प्रबल संभावना दिखाई पड़ रही है। यद्यपि हिन्दुस्थान में बहुत सारे भ्रष्टाचार, अनैतिकता, राजनीति संबंधों द्वेष दिख रहे हैं, किन्तु इन सबके बीच भी कई बार एक रजत रेखा दिखाई पड़ती है। इसलिए न केवल भारत के लिए अपितु समस्त विश्व के लिए स्वतंत्र भारतीय बौद्धिक चिंतन की आवश्यकता है।
(भारत नीति प्रतिष्ठान के समारोह में दिए गए व्याख्यान पर आधारित)
टिप्पणियाँ