दिल्ली के देवी मंदिर
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पाञ्चजन्य
नवरात्र परिशिष्ट
अरुण कुमार सिंह
दिल्ली एक ऐतिहासिक नगरी है। प्राचीन काल में यहां अनेक बड़े और प्रसिद्ध मंदिर थे। किंतु विदेशी हमलावरों ने उनमें से अधिकांश को तोड़ दिया। दिल्ली में अभी भी अनेक प्राचीन मंदिर हैं। अब तो यहां अनेक बड़े और आकर्षक मंदिर बन चुके हैं। किंतु नवरात्र के इस अवसर पर यहां केवल दिल्ली के कुछ प्रमुख देवी मंदिरों का परिचय दिया जा रहा है।
झण्डेवालां माता मंदिर
मध्य दिल्ली में स्थित झण्डेवाला माता मंदिर का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। आज जहां यह मंदिर है वह अरावली पर्वत की श्रृंखलाओं का एक हिस्सा है। कहा जाता है कि उस समय इस स्थान पर बड़ी हरियाली होती थी। प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त इस स्थान पर लोग साधना करने आते थे। उन साधकों में एक कपड़ा व्यवसायी श्री बद्रीदास भी थे। वे वैष्णो माता के भक्त थे। एक दिन जब वे साधनारत थे तभी उन्हें अनुभूति हुई कि यहां जमीन के अंदर कोई मंदिर है। उन्होंने उस स्थान को खरीदकर वहां खुदाई करवाई। खुदाई में प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले। खुदाई में एक झंडा भी मिला। इस कारण इस स्थान का नामकरण झण्डेवालां किया गया। खुदाई में देवी की मूर्ति भी मिली। किंतु जमीन खोदते समय मूर्ति खंडित हो गई। खंडित मूर्ति की पूजा निषेध है। इस कारण उस मूर्ति में चांदी के हाथ लगवाए गए। मां की वह मूर्ति अभी भी मंदिर गुफा में सुरक्षित है। गुफा के ऊपर भव्य मंदिर है। यह मंदिर अष्टकोणीय है। इसका शीर्ष कमल फलकों के आकार का बना है। मुख्य भवन में माता झण्डेवाली की मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति बड़ी दिव्य और आकर्षक। ऐसा लगता है कि मूर्ति अब बोलेगी कि तब। मुख्य भवन में पास ही गणेश जी, लक्ष्मी जी, शीतला माता, संतोषी माता, वैष्णो माता, हनुमान जी आदि देवी-देवताओं के विग्रह स्थापित हैं। झण्डेवाली माता बड़ी उदारमना हैं। सच्चे मन से मांगी गई हर मनोकामना यहां पूर्ण होती है। ऐसे हजारों भक्त हैं, जो वर्षों से प्रति सप्ताह एक निर्धारित दिन में मंदिर आते हैं और माता के दर्शन कर अपने को भाग्यशाली मानते हैं। नवरात्रों में यहां प्रतिदिन लाखों भक्त आते हैं। सामान्य दिनों में भी भक्तों का यहां तांता लगा रहता है। मंदिर में प्रत्येक मंगलवार एवं शनिवार को विशेष गतिविधियां होती हैं। इस मंदिर का संचालन 'बद्री भगत झण्डेवाला टेम्पल सोसायटी' करती है। हाल के वर्षों में इस मंदिर की अन्य गतिविधियां भी खूब बढ़ी हैं। मंदिर तो विस्तारित हो ही रहा है, सामाजिक कार्यों में भी मंदिर की आय का कुछ भाग लगाया जाता है। मंदिर द्वारा 'बद्री भगत वेद विद्यालय' चलता है, जहां बच्चों को वेद की शिक्षा दी जाती है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए वेद विद्यालय में एक संवादशाला चलती है। यहां संस्कृत साधकों को संस्कृत बोलने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन साधकों के रहने, खाने आदि का खर्च झण्डेवालां माता मंदिर ही करता है। मंदिर द्वारा नि:शुल्क औषधालय भी चलाए जाते हैं, जहां रोगियों को आयुर्वेद, एलोपैथ, होमियोपैथ की दवाइयां दी जाती हैं।
मंदिर से हजारों सेवादार जुड़े हैं जो नवरात्रों और विभिन्न विशिष्ट आयोजनों में अपनी सेवाएं देते हैं।
कालकाजी मंदिर
यह मंदिर दक्षिणी दिल्ली के कालका जी में स्थित है। यह स्थान नेहरू प्लेस से बिल्कुल सटा हुआ है। कालकाजी मेट्रो स्टेशन भी है। यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। कालका मंदिर की गणना भारत के प्राचीन सिद्धपीठों में होती है। इसे मनोकामना सिद्धपीठ और जयंती काली पीठ भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि असुरों द्वारा सताए जाने पर ब्रह्मा जी की सलाह पर देवताओं ने शिवा (शक्ति) की आराधना की। देवी के प्रसन्न होने पर देवताओं ने उनसे असुरों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसके बाद देवी ने अपनी शक्ति से कौशिकी देवी को प्रकट किया। कौशिकी ने अनेक असुरों को मार गिराया, पर वह उनके रक्तबीज को नहीं मार सकीं। रक्तबीज जहां भी गिरता था वहीं अनेक असुर पैदा हो जाते थे। फिर कौशिकी ने याचनापूर्ण दृष्टि से मां पार्वती की ओर देखा। पार्वती जी ने अपनी भृकुटी से महाकाली को प्रकट किया और रक्तबीजासुर के वध का आदेश दिया। आदेश मिलते ही महाकाली ने इसी स्थान पर उस रक्तबीजासुर को मार गिराया और उसका रक्त पी लिया। रक्तपान करने के लिए मां काली ने अपने मुख का विशेष विस्तार किया था। उस समय उस विकराल देवी की स्तुति भगवान शंकर सहित सभी देवताओं ने की थी। माना जाता है कि उसी समय मां काली ने भक्तों को यह भी कहा कि जो भी भक्त इस स्थान पर श्रद्धा से मेरी पूजा-अर्चना करेगा उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। इस पीठ के वर्तमान महंत श्री सुरेन्द्रनाथ अवधूत कहते हैं, 'शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों को लेकर यहां आए थे। उन्होंने मां काली की पूजा की और विजयी होने का वर प्राप्त किया। बाद में काल के प्रभाव से यह स्थान जनमानस की दृष्टि से ओझल हो गया। फिर इस स्थान को नाथ सम्प्रदाय के बाबा बालकनाथ ने अपनी तपस्या के लिए चुना। मां ने उन्हें मंदिर बनाने का आदेश दिया। बाबा के कहने पर अकबर के पेशकार राजा मिर्जा केदार ने इस स्थान का जीर्णोद्धार करवाया।'
मंदिर की परिक्रमा के साथ ही छोटा शिवलिंग है। उत्तर दिशा में गणेश जी हैं। पीछे कुछ दूरी पर हनुमान जी एवं भैरव का स्थान है। मंदिर के चारों ओर सुंदर सरोवरों, बावड़ियों, चबूतरों और प्राचीन भवनों के अवशेष दिखाई देते हैं। भवन के भीतर बने भित्ति चित्रों को देखकर मंदिर की भव्यता का अनुमान सहज ही होता है। मंदिर में अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित है। नवरात्रों में यहां विशाल मेला लगता है। भगवती अपने भक्तों के रोग, शोक, संताप एवं शत्रुओं के नाश करके उन्हें अभीष्ट फल देकर उनके मनोरथ को पूरा करती हैं।
योगमाया मंदिर
योगमाया का मंदिर दिल्ली में कुतुबमीनार से बिल्कुल पास है। यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है इस मंदिर का निर्माण महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की बहन योगमाया के लिए किया था। तोमर वंश के राजपूतों ने जब दिल्ली को बसाया, तब उन्होंने देवी योगमाया की विधिवत् पूजा-अर्चना शुरू की। बाद में पाण्डव कालीन इस मंदिर की उचित देखभाल नहीं हुई। इस कारण जीर्ण-शीर्ण हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि अकबर द्वितीय के शासनकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1827 में लाला सेठ मल्ल ने करवाया। मंदिर बड़ा विशाल है। पूरब के द्वार से भक्त मंदिर में प्रवेश करते हैं। मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि काले पत्थर का एक गोलाकार पिण्ड संगमरमर के एक कुंड में स्थापित किया गया है। पिण्ड को लाल वस्त्र से ढककर रखा जाता है। मंदिर की दीवारों पर सुंदर चित्र बने हैं।
मंदिर में तीन प्रमुख द्वार हैं। दक्षिण द्वार के सामने दो शेर बने हुए हैं जिसे देवी का वाहन माना जाता है। शेर के पश्चिम की ओर कोने में गणेश जी की मूर्ति और एक छोटी शिला भैरव की है। मंदिर के उत्तरी द्वार के सामने शिवजी का मंदिर है। योगमाया मंदिर को शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। श्रावण शुक्ल की चतुर्दशी को यहां भव्य मेला लगता है।
गुफा मंदिर
पूर्वी दिल्ली के प्रीत विहार क्षेत्र में स्थित इस मंदिर की अनेक विशेषताएं हैं। यहां 140 फीट लम्बी एक गुफा है। इसलिए यह गुफा मंदिर के नाम से विख्यात है। गुफा के अंदर मां चिंतपूर्णी, माता कात्यायनी, संतोषी मां, लक्ष्मी जी, ज्वाला जी की मूर्तियां स्थापित हैं। गुफा में गंगा जल की एक धारा बहती रहती है। यह जल धारा गुफा के ऊपर स्थापित शिवजी की मूर्ति की जटाओं से निकलती है। मंदिर परिसर की भव्यता 108 फीट नर्मदेश्वर शिवलिंग और 50 हजार किलो के द्वादश ज्योतिर्लिंग से भी बढ़ती है। यह ज्योतिर्लिंग 15 फीट ऊंचा है।
छतरपुर मन्दिर
यह शक्तिपीठ मंदिर दक्षिण दिल्ली के महरौली क्षेत्र के छतरपुर गांव के पास है। इसलिए आम श्रद्धालु इसे छतरपुर मंदिर भी कहते हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत के बड़े मंदिरों में से एक है। लगभग 70 एकड़ भूखंड पर फैला यह मंदिर आज देश-विदेश के श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बन चुका है। यहां बने सभी भवन विशिष्ट वास्तुशैली का प्रदर्शन करते हैं। इस मंदिर की स्थापना 1970 में संत श्री नागपाल बाबा ने की थी। उस समय यह क्षेत्र जंगलों से अटा पड़ा था। अब यह पूरा क्षेत्र तीर्थनगरी का रूप ले चुका है। मंदिर में मां कात्यायनी, मां महिषासुरमर्दिनी, राम दरबार, शिव पार्वती, लक्ष्मी जी, गणेश जी, हनुमान जी की बड़ी भव्य मूर्तियां लगी हैं। यह देवी का चमत्कार ही है कि स्थानीय लोगों ने दिल खोलकर मंदिर के लिए जमीनें दान दीं और देखते ही देखते यह स्थान मंदिरों की नगरी बन गया है। नवरात्रों में प्रतिदिन यहां लाखों भक्त आते हैं। संत नागपाल बाबा सत्तर के दशक में जब यहां आये थे तब यहां एक दुर्गा आश्रम था जो अब शक्तिपीठ की एक इकाई है। धीरे-धीरे बाबा के भक्तों की संख्या बढ़ी और बाबा ने शक्तिपीठ की रूपरेखा तैयार की। यही शक्तिपीठ अब दिल्ली का सबसे बड़ा मंदिर है।
बाबा नागपाल मूलत: कर्नाटक के थे। बचपन में ही इनके माता-पिता इस दुनिया से चल बसे। इसके बाद एक अज्ञात महिला उन्हें एक देवी मंदिर में ले गयी। माना जाता है कि वह महिला कोई साधारण महिला नहीं थी। बाबा जी के लिए वह महिला साक्षात् मां थीं। उन्हीं की प्रेरणा से बाबा कर्नाटक से निकल पड़े और हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षों तक तपस्या की। फिर वे दिल्ली आ गए। बाबा नागपाल की कड़ी मेहनत से खड़ी यह शक्तिपीठ आज केवल धार्मिक केन्द्र ही नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक केन्द्र भी है। बाबा अब इस लोक में नहीं हैं, पर उन्होंने मंदिर के सुचारु संचालन के लिए एक न्यास का गठन कर दिया था। उस न्यास का नाम है 'श्री आद्याकात्यायनी शक्तिपीठ मंदिर न्यास'। यह न्यास आज शिक्षा, स्वावलम्बन, चिकित्सा जैसे प्रकल्पों का संचालन भी करता है। इन प्रकल्पों से स्थानीय लोगों और अन्य भक्तों को बड़ा लाभ होता है। 'शिवानी विद्या निकेतन' 'श्री संत नागपाल प्रौद्योगिकी शिक्षा संस्थान', 'सिलाई कढ़ाई कताई बुनाई प्रशिक्षण केन्द्र', 'श्री संत नागपाल संस्कृत महाविद्यालय एवं शोध संस्थान', 'संत नागपाल चिकित्सा निदान एवं अनुसंधान केन्द्र' आदि इसके प्रकल्प हैं। ये सारे प्रकल्प नि:शुल्क हैं। न्यास द्वारा संचालित विद्यालय और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों में बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ते हैं। संस्कृत महाविद्यालय में प्रथमा से शास्त्री तक की पढ़ाई होती है। यह आवासीय महाविद्यालय है और इसका पूरा खर्च न्यास उठाता है। विद्यार्थियों के लिए पढ़ाई, भोजन, आवास ये सारी सुविधाएं नि:शुल्क उपलब्ध हैं। इस शक्तिपीठ द्वारा कुष्ठ एवं तपेदिक रोगियों की भी मदद की जाती है। बाबा ने पूर्वी दिल्ली के ताहिरपुर में रहने वाले 100 कुष्ठ परिवारों को गोद लिया था। उनके लिए घर बनवाया, उन्हें दवाइयां उपलब्ध करवाईं, उनके बच्चों के लिए विद्यालय बनवाए आदि। यह शक्तिपीठ आज आध्यात्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक कार्यों के द्वारा भक्तों और जन सामान्य को आलोकित कर रही है। J
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