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'उर्दू प्रोत्साहन' के नए षड्यंत्र

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Oct 13, 2012, 12:00 am IST
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हिन्दी-उर्दू विवाद का सच

दिंनाक: 13 Oct 2012 13:05:50

 

हिन्दी–उर्दू विवाद का सच

'सेकुलरवाद' के दौर में रचे जा रहे हैं

 डा. शत्रुघ्न प्रसाद

27 जून, 2012 के इंडिया टुडे (हिन्दी) में पृष्ठ 61 पर 'रुझान' शीर्षक के अन्तर्गत उर्दू शेरो-शायरी के कार्यक्रम पर एक विवरण प्रकाशित हुआ है। उप शीर्षक है-शायरी का जश्न और कविता का मातम। इसमें कामना प्रसाद का वक्तव्य है-'उर्दू मुहब्बत की जुबान है, इसमें कशिश है।… दरअसल यह पहले भी आम लोगों की भाषा थी और आज भी है।… हमने हिन्दी को उर्दू से अलग करने के लिए उसे संस्कृतनिष्ठ कर दिया।' रूपाली सिन्हा का कथन है 'उर्दू मुसलमानों की नहीं, हिन्दुस्थानियों की जुबान है। भाषा के तमाम साम्प्रदायीकरण के बावजूद उर्दू का सीना खोलकर खड़े रहना इस बात का सबूत है कि तरक्की पसन्द ताकतें मजहबी ताकतों के जुनून और बंटवारे की राजनीति को सिरे से नकारती रही हैं।' अनेकानेक शायरों के विचारों के साथ यह भी दावा किया गया है कि उर्दू शेरो-शायरी की किताबों की खरीद-बिक्री बढ़ रही है और हिन्दी काव्य ग्रंथों की बिक्री गिर रही है। स्पष्ट है कि इस दो पृष्ठों के विवरण द्वारा उर्दू की लोकप्रियता की बढ़त दिखाते हुए हिन्दी को नीचे दिखाने का प्रयत्न किया गया है। 'प्रभातखबर' (रांची संस्करण) के 7 जुलाई, 2012 अंक में पृष्ठ 9 पर 'मॉइनारिटी वायस' के स्तम्भ में डा. के. एम. इकरामुद्दीन (जे.एन.यू) ने कहा है-'उर्दू भारत की धर्मनिरपेक्ष, हर खास और  आम-सबको समझ में आने वाली भाषा है। मैं बताना चाहूंगा कि हर मुस्लिम यह नहीं कह सकता कि उर्दू केवल उसकी भाषा है और न उर्दू ही सिर्फ मुसलमानों की भाषा है।'

एक तरफ गजल सम्मेलनों और मुशायरों में उर्दू की लोकप्रियता और आम आदमी की जुबान होने का ऐलान किया जा रहा है। तो दूसरी तरफ सूफी संगीत के नाम पर इस्लाम के मानवीय और प्रेममय रूप का प्रचार किया जा रहा है। वहीं उर्दू प्रेस निरन्तर हिन्दू, भारत तथा भारतीय शासन के साथ भारतीय संविधान को मुस्लिम विरोधी सिद्ध कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह बार-बार कहा जा रहा है कि आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम नौजवानों का बेवजह फंसाया जा रहा है।  भारत का मीडिया मुस्लिम-विरोधी है। ऊर्दू प्रेस में छपी खबरों के सच को 'भारत नीति प्रतिष्ठान' द्वारा प्रकाशित 'उर्दू प्रेस की समीक्षा और विश्लेषण' नामक पाक्षिक पत्र में सामने लाया गया है।

हिन्दी की उत्पत्ति और महत्व

वस्तुत: भाषा राष्ट्र की वाणी है। भाषा राष्ट्र की संस्कृति की प्रमुख वाहिका है। भाषा एक राष्ट्र के जन की अभिव्यक्ति है। भाषा देश की प्रकृति एवं पर्यावरण का संगीत है। परन्तु भारत ने अपनी भाषा भी सेकुलरवाद के सलीब पर लटका दी है। मुगलकाल में फारसी यहां की राजभाषा थी, परन्तु देश की जनता ने अपनी भाषा को विस्मृत नहीं किया। राष्ट्रव्यापी भक्ति अभियान ने ब्रजभाषा तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओं को गौरव शिखर पर पहुंचा दिया। राजभाषा होने के बावजूद फारसी भारत की लोकभाषाओं को कुचल नहीं सकी। पर अंग्रेजी राज से लेकर आज तक भारत जन की अपनी भाषा हिन्दी पर निरन्तर प्रहार हो रहे हैं। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध से ही हिन्दी और उर्दू का विवाद चल रहा है। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी सब तरफ उर्दू हिन्दी पर सवार हो जाना चाहती है।  उर्दू की श्रेष्ठता तथा व्यापकता की चर्चा की जाती है। उर्दू को हिन्दी से पहले की भाषा और साहित्य भी घोषित किया जाता है।

प्रसिद्ध विद्वान आचार्य किशोरी दास वाजपेयी के अनुसार, 'हमारे इस देश में जो मूल भाषा उद्भूत हुई, वह समृद्ध होते-होते इस योग्य हो गयी कि ऋग्वेद जैसा उत्तम साहित्य बना। साधारण बोलचाल की भाषा में और साहित्य की भाषा में किंचित् अन्तर आ जाता है। इस अन्तर को प्रकट करने के लिए आगे चलकर 'प्राकृत' और 'संस्कृत' शब्दों का प्रयोग हुआ। प्राकृत भाषा में परिवर्तन होता गया, देश भेद से भी और काल भेद से भी। इन प्राकृत भाषाओं का वह रूप सामने आया जिसे 'अपभ्रंश' नाम दिया गया है। वे ही अपभ्रंश भाषाएं वर्तमान हिन्दी, गुजराती, बंगला, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं के रूप में दिखायी दे रही हैं।' अब यदि हम कहें कि हमारी हिन्दी भाषा वही भाषा है जो हमारे ऋषि-मुनि बोलते थे और जिसमें वेद-रचना हुई थी तो इसमें क्या गलत है?

उर्दू की उत्पत्ति और विकास

 उर्दू की उत्पत्ति के सम्बंध में भी थोड़ी-बहुत जानकारी आवश्यक है। उर्दू और हिन्दी के जानकार और प्रगतिवादी समालोचक हंसराज रहबर ने बताया है-मुसलमान जब भारत में आए तो वे अपने साथ बहुत कुछ लाए। एक चीज जो वे नहीं लाये, लेकिन उनके कारण बनी, वह उर्दू-हिन्दी भाषा थी। उन्होंने दिल्ली प्रान्त की बोली को व्यवहार में लाकर राज दरबार की भाषा बनाया। (उर्दू साहित्य के विकास पर एक दृष्टि-समालोचक, वर्ष -1, अंक-1 सन् 1958) लेकिन हिन्दी का अर्थ यदि खड़ी बोली है तो उसका प्रयोग गुरु गोरखनाथ की वाणी और कबीरदास के पदों में दिखायी पड़ता है। मुस्लिम जनों ने दिल्ली सहारनपुर-मेरठ की खड़ी बोली में ही अरबी-फारसी, तुर्की शब्दों को मिलाकर फौजी छावनी की जुबान को रखा। इसे ऊर्दू-ए-मुअल्ला कहा गया। मुगल साम्राज्य का पतन होते देख कर राजभाषा फारसी के बदले छावनी के बाजार की जुबान-उर्दू-ए- मुअल्ला को मुस्लिम पहचान के लिए साहित्यक रूप दिया जाने लगा। ईसा की अठारहवीं सदी से उर्दू  शायरी में शामिल होने लगी। इसे साहित्यिक रूप मिल गया।

हिन्दी–उर्दू टकराव की शुरुआत

अठारहवीं सदी से हिन्दू व्यापारियों ने पूर्वांञ्चल के नगरों में खड़ी बोली का हिन्दी को प्रसारित कर दिया। मुगल साम्राज्य के ध्वंस से भी खड़ी बोली के फैलने में सहायता मिली। दिल्ली के आस-पास के प्रदेशों की हिन्दू व्यापारी जातियां जीविकोपार्जन के लिए पूरबी शहरों में फैलने लगी। उनके साथ-साथ उनकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली भी चलती थी। वह खड़ी बोली ही असली और स्वाभाविक भाषा थी। हिन्दी और उर्दू का टकराव उन्नीसवीं सदी की देन है। अंग्रेजी राज स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेजी राजभाषा बन गयी। मुगल शासन के अवशेष-नवाबों, जागीरदारों, जमींदारों के प्रभाव के कारण उर्दू को कचहरियों में स्थान मिला, जनभाषा की खड़ी बोली यानी हिन्दी उपेक्षित रह गयी। इसलिए भारतेन्दु के समय में हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए अभियान आरम्भ हुआ। वर्षों के आन्दोलन के बाद सदी के अन्त में उत्तर प्रदेश की कचहरियों में नागरी लिपि को स्थान मिला। सर सैयद अहमद और अन्य मुस्लिम नेताओं ने हिन्दी की 'गंवारों की भाषा' कहकर उपेक्षा की। बाद में बिहार में भी आन्दोलन चला और तब यहां भी नागरी लिपि को स्थान मिला। हिन्दी भाषा की सरलता तथा साहित्य के विकास के कारण हिन्दी का प्रभाव बढ़ा। इसे संविधान में आधे मन से राष्ट्रभाषा की स्वीकृति मिली।

राजनीतिक बिसात पर उर्दू

स्वतंत्रता संग्राम के समय मुस्लिम लीग ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा घोषित कर मजहबी सियासत शुरू की। सन् 1940 के विभाजन के प्रस्ताव के पहले लीगी मांगों की श्रृंखला के रूप में 14 मांगों की सूची रखी गई। इसमें दसवीं मांग उर्दू की थी। वैसे भी सर सैयद के आग्रह पर हाली ने उर्दू में 'मुसद्दस' की रचना की। बीसवीं शती के आरंभ में ही मुहम्मद इकबाल ने 'शिकवा' और 'जवाब शिकवा' उर्दू में ही लिखकर मुस्लिम राष्ट्र के लिए अपनी आवाज बुलन्द की। उर्दू मुस्लिम राजनीति की वाहिका बन गयी और हिन्दी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की जनभाषा बनी, यही यथार्थ है।

अलीगढ़ से प्रकाशित 'तलाश' का प्रवेशांक (1998) पढ़ा। इसमें मेराज अहमद ने लिखा है 'उन्नीसवी शताब्दी के चौथे दशक में, सन् 1839 में, जब उर्दू को अदालती भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गयी तो कोई आन्दोलन नहीं हुआ, लेकिन तीस वर्षों के पश्चात ही अदालतों में फारसी के स्थान पर नागरी आन्दोलन ने विकराल का रूप धारण कर लिया। भाषायी विवाद के प्रश्न पर हिन्दूवादी पुनरुत्थान की भावना के उभार के सन्दर्भ में धार्मिक आन्दोलनों के माध्यम से हिन्दी प्रचार-प्रसार को भी रेखांकित किया जा सकता है। केशव चंद्र सेन, राज नारायण बोस, नवीन चन्द्र राय इत्यादि अपने सुधारवादी कार्यक्रमों के साथ हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर भी बल दे रहे थे। पंजाब के गैरसरकारी क्षेत्र में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी आर्य समाज की थी। इन परिस्थितियों में जब पहले से ही सर सैयद अहमद कांग्रेस से दूर जा रहे थे तब, भाषायी विवाद से उभरे राष्ट्रवाद के एकांगी चरित्र ने उन्हें कांग्रेस से और दूर कर दिया।'

स्पष्ट है कि सर सैयद अहमद, बाद में मुहम्मद इकबाल और अन्त में मुहम्मद अली ने अंग्रेजी शासन से मिलकर फिर से मुगल हुकूमत के समान मुस्लिम वर्चस्व कायम करने के लिए उर्दू का  सहारा लिया। इसीलिए तो अंग्रेजी शासन के इशारे पर सन् 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी। बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय के नवें खण्ड में मुस्लिम आक्रमण एवं ध्वंस के इतिहास के साथ आधुनिक मुस्लिम राजनीति का यथार्थपूर्ण रोमांचकारी वर्णन हुआ है। उर्दू को मुस्लिम जमात (कौम) ने अपनी जुबान के रूप में कबूल कर पाकिस्तान की मांग में जगह दी।

सेकुलरवादी षड्यंत्र

कम्युनिस्ट पार्टी के एक विद्वान संगठनकर्ता सज्जाद जहीर ने हिन्दी और उर्दू के विवाद में उर्दू का समर्थन किया था। साथ ही सन् 1940 तथा 1941 के लीग के विभाजन प्रस्ताव का भी तर्कों के साथ समर्थन कर लीग को ताकत दी। लेकिन पाकिस्तान बन जाने पर वे पार्टी तथा मार्क्सवादी साहित्यकारों के संगठन के लिए वहां गए, लेकिन पाकिस्तान के समर्थन के इनाम के रूप में उन्हें जेल ही नसीब हुई थी। पाकिस्तान ने कम्युनिस्ट पार्टी को मान्यता ही नहीं दी। परन्तु आज भी कम्युनिस्ट राजनेता, इतिहासकार, पत्रकार और साहित्यकार-सभी मुस्लिम अलगाववाद तथा उग्रवाद का समर्थन करते हैं। रामजन्मभूमि आंदोलन हो या कश्मीर घाटी का अलगाववाद-दोनों के सन्दर्भ में ये मार्क्सवादी जिहादी आन्दोलन को ही प्रोत्साहित करते हैं।

इक्कीसवीं सदी के सेकुलर दौर में एक ओर मुस्लिम राजनीति का अलगाववाद, उग्रवाद और दबाववाद चरम सीमा पर है, वे भारतीय राजसत्ता, संविधान तथा सुरक्षा को चुनौती दे रहे हैं तो दूसरी ओर उर्दू गजल और सूफी संगीत के जरिए अपने वर्चस्व को बढ़ाना चाह रही है। वहीं फिल्म और मीडिया हिन्दी को ' हिंगलिश' बनाने के लिए आतुर हैं। एक नयी हिन्दी को गढ़ने की कोशिश हो रही है। उधर व्यापारवाद और नयी शिक्षा के कारण अंग्रेजी हिन्दी के कन्धे पर सवार हो चुकी है। उर्दू तो अपने हिन्दुस्थानी होने का नारा लगाने लगी। यह स्थिति चिन्तनीय है। सेकुलरवाद के इस दौर ने हिन्दी को अंग्रेजी और उर्दू के दो पाटों के बीच में डाल देने का षड्यंत्र रच दिया है। परन्तु हिन्दी जन की भाषा है। करोड़ों की मातृभाषा है। इसे कुचल देना असम्भव है। सेकुलरवाद को इस सत्य से परिचित हो जाना चाहिए।

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