प्रकृति और हम – हमसे वे, उनसे हम
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हमसे वे, उनसे हम
सरोकार
मृदुला सिन्हा
सृष्टि में सब एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जल-वायु, पृथ्वी-आकाश सब एक-दूसरे पर निर्भर। जाति मनुष्य की हो या पेड़-पौधे, पशु-पक्षी की। इन जातियों में भी एक-दूसरे के लिए पूरकता का सिद्धांत और व्यवहार देखा जाता है। स्त्री-पुरुष भी पूरक। मानव जाति के संस्कार में अपनी जाति से इतर पेड़-पौधे, नदी-तालाब, पशु-पक्षी, सूर्य और चांद की भी चिंता करना रच-बस गया। उन्हें अपने आसपास रखना। उनके लिए जीना। उनकी शुुद्धिकरण और जीवन का सोचना।
मानव जाति की शुरुआत जंगल जीवन से ही हुई थी। इसलिए गांवों में क्षिति (पृथ्वी), जल, पावक, गगन और समीर (हवा) से ही मानव जीवित था तो मानव से वे सब। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और हवा के बिना जब मानव की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी तो उन सबका संरक्षण, वर्द्धन और शुद्धिकरण भी मानव का स्वभाव बन गया, जिसे आज पर्यावरण कहा जाता है उसकी शुद्धि मनुष्य के लिए अनिवार्य बनी। मनुष्य ने अपनी दैनंदिनी में इनका संरक्षण शामिल कर लिया। इनके प्रति अपनी धारणाएं बना लीं। मानव हृदय में उनके प्रति आदर भाव बना रहे, इसलिए साधु-संतों, विद्वानों और कथा वाचकों ने भी मनुष्य को अपने इर्द-गिर्द के तमाम भौतिक जीव-जंतुओं के लिए जीना सिखाया।
जंगलों में रहने वाला मनुष्य तो जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और नदी-झरनों के बीच ही रहता था। जंगलों में उगने वाली सारी जड़ी-बूटियों और पेड़-पौधों-लताओं पर उगने वाली पत्तियों, फूल-फल और उनकी जड़ों का प्रयोग कर उनकी उपयोगिता खोजते रहे। दूसरों को बताते रहे। जानवरों के स्वभाव और जरूरतों का अध्ययन कर उन्हें पालतू बनाने योग्य समझा जाने लगा। दुधारू और यातायात में काम आने वाले पशु सबसे अधिक उपयोगी लगे। गाय, बकरी, ऊंट, भैंस आदि तो घरेलू बना ही लिए गए, घोड़ा, हाथी, खच्चर, गदहे और ऊंट उन्हें भी पाला पोसा जाने लगा। चिड़ियों में भी तोता, कबूतर, बटेर, मोर जैसी चिड़ियां पालने लगे। यही स्थिति विभिन्न पेड़-पौधों और फसलों की भी हुई। तुलसी, नीम, आम, अमरूद जैसे कुछ पौधे घर के आसपास तो कुछ बाग-बगीचे में लगने लगे। और समाज की ऐसी स्थिति हो गई कि उसका जीवन उनके बिना संभव भी नहीं होता। घर छोटा हो या बड़ा उसके आगे-पीछे और अहाते में पेड़ लगाना नहीं भूलते। शहरों में बनी बहुमंजिली इमारतों की बालकनियों में तुलसी, फूल और विभिन्न पेड़-पौधों को गमलों में और छतों पर उगाए देखा जा सकता है।
'आत्मवत् सर्व भूतेषु' देखने के उद्देश्य को व्यवहार में उतारा जाता रहा है। श्लोक के अनुसार सर्व भूत (प्रकृति) को आत्मवत् देखने वाला ही पंडित होता है। भारतीय समाज में जो निरक्षर लोग रहे हैं, जिन्हें पढ़े-लिखे 'अविकसित' कहते हैं, प्रकृति उन्हीं की अधिक आत्मीय रही है। वे प्रकृति के साथ ही जीते रहे हैं। उन्होंने यह खोज निकाला कि विषैले जीवों के काटने पर उनका विष से ही इलाज होता है। फिर तो सांप को भी दूध पिलाना प्रारंभ किया। समाज ने उनके साथ अपनी आत्मीयता दर्शाने या निभाने के लिए उनके साथ जीना सीखा। उनकी सुरक्षा के उपाए किए। छोटी सी चींटी से हम परेशान हो जाते हैं पर चीटियों का भी हमारे जीवन में सहयोग है। इसीलिए तो चींटियों को भी दाना (आटा) डाला जाने लगा।
हमारी परंपरा में संपूर्ण प्रकृति के प्रति आस्था भाव प्रदर्शन के लिए कुछ तीज-त्योहार तो हमारी दैनंदिनी में कुछ अनुष्ठान निर्धारित कर लिए गए। भावनात्मक स्तर पर भी उनकी महत्ता बता दी गई। जीव हिंसा और हरे पेड़ को काटना पाप मान लिया गया। वृक्ष लगाना, फल बांटना, कुंआ खुदवाना, कुएं की सफाई जैसे कार्य पुण्य मान लिए गए। जीवन के सहज व्यवहार में पौधों को पानी देना, प्रतिदिन घर से गो ग्रास निकालना, घर के दरवाजे पर प्याऊ रखना धार्मिक अनुष्ठान माना जाने लगा।
हमारी दादी इन दैनिक अनुष्ठानों को निभाते हुए हमें भी सिखाती थी। प्रात:काल विछावन से उतरकर पृथ्वी पर पांव रखने से पूर्व वह धरती को प्रणाम करती बुदबुदाती थी-'क्षमा करना पृथ्वी माता।' पृथ्वी पर हाथ लगाकर प्रणाम करना उनका स्वभाव हो गया था। प्रति सुबह गोबर या मिट्टी से लिपे घर-आंगन पर बिना सिर झुकाकर और धरती में हाथ लगाकर प्रणाम किए वे उस पर पांव नहीं रखती थीं। पृथ्वी, गाय, गंगा को मां कहना उन्होंने ही सिखाया। गऊ ग्रास खिलाते समय भी गाय को प्रणाम करना। गंगा या किसी भी नदी में स्नान करने के लिए पांव रखने से पूर्व प्रणाम करना। स्नान करने के उपरांत बाहर निकलकर पुन: प्रणाम करना, जल को भगवान मानने के समान ही था। इसीलिए नदियों में स्नान करने के समय मलमूत्र त्यागना सख्त मना था। गंदगी भी जल में नहीं डालना। अग्नि तो पूजनीया है ही। चूल्हे में आग प्रज्ज्वलित करने से पूर्व चूल्हे की सफाई, शुद्ध लकड़ी लगाना और प्रणाम करना आदत बनी हुई थी। भोजन बनाने के उपरांत घरवालों को खिलाने से पूर्व भोज्य पदार्थों के अंश अग्नि में डालकर थोड़ा पानी भी डालना अकारण नहीं था। इसमें गूढ़ अर्थ और आस्था थी। अग्नि पात्रों और चूल्हे को पांव नहीं लगना चाहिए था। भूल से भी ऐसा हो जाए तो प्रणाम करके क्षमा मांगने का स्वभाव बन गया था। 'स्वभाव' इसलिए कि किसी भी व्यक्ति के द्वारा ऐसे व्यवहार इतने सहज ढंग से होते थे, मानो सांस लेने या पलकें झपकने जैसा व्यवहार हो। किसी दूसरे को निर्देश देने की जरूरत नहीं होती थी। एक-दूसरे को देखकर सीखते थे।
मेरे दादा जी ने कुंआ खुदवाया था। उसके अंदर नीम की लकड़ी के गोलाकार मोटा सा जमौट बनवाकर डाला गया। उसी पर कुंए की दीवार उठी। पर स्वयं दादा जी उस कुंए का पानी नहीं पीते थे। मैंने दादी से कारण जानना चाहा। दादी ने कहा-'अभी कुंए का ब्याह नहीं हुआ है।' सुनकर अचम्भा हुआ। कुंए का ब्याह? हां!' मेरी बहन की शादी के साथ कुंए के ब्याह का भी अनुष्ठान हुआ।
बिल्ली के मार देने पर बिल्ली के वजन के बराबर सोना दान करने से ही पाप कटता है, ऐसा मानने वाला समाज अंधविश्वासी नहीं था। बिल्ली को नहीं मारना चाहिए, जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए। किसी चिड़िया के अंडे फोड़ने को पाप समझने वाला समाज ज्ञानी ही था। अंधविश्वासी नहीं। आज 'पर्यावरण बचाओ' का नारा दिया जा रहा है। तमाम औपचारिकताएं निभाई जाती हैं। अरबों रुपए सभा-गोष्ठियों पर खर्च हो रहे हैं। पर आज हमारी दैनंदिनी में क्षिति, जल, पावक, गगन और हवा के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रहे। पीपल में पानी देना, हवन के द्वारा हवा को शुद्ध करना, दीवाली में घी या शुद्ध तेल के ही दीए जलाना, गंगा में मलमूत्र नहीं त्यागना, हम भूल गए। हरे वृक्षों को काटने से पूर्व उसे प्रणाम करके क्षमा मांगना, हम भूल गए। इनकी अपनी आवाज नहीं है। पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल की अपनी वाणी नहीं है। वे अपनी जीवन रक्षा के लिए आंदोलन नहीं करते, नारा नहीं लगाते। हम तो हैं। वे हमारे ही तो हैं। हमसे वे, उनसे हम। इस तरह हमने प्रकृति को अपनी संस्कृति में समाहित कर लिया। प्रकृति भी रहे और संस्कृति भी। युगों-युगों से यही सहजीवन है। आज भी इसे याद रखना जरूरी है।
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