दिशाहीन राजनीति
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उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही सत्तालोलुपता का दुष्परिणाम है
कारोबार बनती जा रही राजनीति में से देशहित, समाज सेवा और राष्ट्रोत्थान जैसी मान्यताएं लुप्त होती जा रही हैं। इस महामारी से देश और समाज को बचाने के लिए एक ऐसी राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना की आवश्यकता है जो अपने सिद्धांतों और विचारों से समझौता न करके राष्ट्र केन्द्रित राजनीति को ही अपना आधार बनाकर इस परिदृश्य को बदले।
स्वदेश चिन्तन
नरेन्द्र सहगल
देश और समाज को पतन की ओर ले जा रहा है
राष्ट्रहितार्थ राजनीति का अभाव
मतों के लोभी राजनीतिक नेता, स्वार्थी मतदाता और कुर्सी से चिपकी सरकारें, इन्हीं सब का दुष्परिणाम है वह दुर्दशा जिसका खामियाजा सारा देश भुगत रहा है। अपने अथाह बलिदान देकर परतंत्रता के विरुद्ध संघर्ष करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि स्वतंत्र भारत में छ: दशक बीत जाने के बाद भी राष्ट्रहित आधारित राजनीति की शुरुआत भी नहीं होगी। इन छ: दशकों में देश की जनता ने प्राय: सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को केन्द्र और प्रांतों में सत्ता के गलियारे में बैठकर देश और समाज की भलाई के काम करने का मौका दिया है। सबसे ज्यादा अवसर मिला है एक ही दल कांग्रेस को। आज की दयनीय परिस्थितियों के संदर्भ में देखें तो अधिकांश राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन पर जनता का भरोसा नहीं रहा है। भ्रष्टाचार, जातिवाद, बाहुबल, धनबल और झूठे आश्वासनों के सहारे चुनाव जीतने वाले नेताओं से घपले, घोटालों और पक्षपात के सिवाय और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? यदि कोई दल या कुछ नेता देशहित के लिए समर्पित हैं भी, तो इस भ्रष्ट नकारखाने में उनकी आवाज एक तूती ही बनी हुई है।
देश और जनता का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि आज एक भी दल ऐसा नहीं है जो अपने दम पर खम ठोक कर संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के लिए चुनाव में उतर सके। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में अस्थिरता, पक्षपात और भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली गठबंधन राजनीति सभी दलों की राजनीतिक मजबूरी बन गई है। ये दल देश को नई और स्वच्छ राजनीतिक व्यवस्था देने में सक्षम नजर नहीं आ रहे हैं। दलगत राजनीति की पैदाइश गठबंधन राजनीति ने सार्वजनिक शुचिता, नैतिकता और सिद्धांतों पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था को अपने पाश में जकड़ लिया है। छोटे और क्षेत्रीय दलों का हाल तो यह है कि चुनावों में आपस में लड़ो, फिर एक हो जाओ, सरकार में शामिल भी हो जाओ, बाहर से भी समर्थन दो, बिना किसी कायदे कानून की यह सिद्धांतहीन राजनीति देश को कहां ले जाएगी?
देश में नैतिकता विहीन राजनीति को जन्म देकर
कांग्रेस ने किया देश से धोखा
वैसे तो प्रत्येक प्रकार के अनैतिक हथकंडों का पूरा इस्तेमाल करके चुनाव जीतने, सत्ता पर कब्जा करने और फिर कुर्सी को बचाने में कांग्रेस को विशेषज्ञता प्राप्त है परंतु इसका घोषित और विधिवत् संचालन श्रीमती इंदिरा गांधी ने अस्सी का दशक प्रारंभ होते ही कर दिया था। कांग्रेस को दो फाड़ करने, अपनी सत्ता को बचाने के लिए लोकतंत्र का गला घोंटने, संविधान को अपनी व्यक्तिगत और दलगत राजनीति के अनुरूप तोड़ने बनाने, भारी भरकम महंगा चुनाव प्रचार और विरोधियों को दबाने का सिलसिला इंदिरा गांधी के जमाने में ही चलन में आ चुका था। उसके बाद तो मानो कांग्रेस ने इस नैतिकता विहीन भ्रष्ट राजनीति को अपनी संकट मोचक ही मान लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को छोड़कर शेष चारों गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों-चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी.देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल की सरकारों को समर्थन देकर फिर गिरा देने की घोर अनैतिक और स्वार्थपरक दलगत राजनीति का घटिया खेल कांग्रेस ने ही खेला था। उसके बाद नरसिम्हा राव और डा.मनमोहन सिंह की सरकारों को बचाने के लिए नोट और वोट की बेशर्म राजनीति करके कांग्रेस ने सारी दुनिया में अपनी और देश की नाक कटवा डाली।
आज भी अपनी सत्ता को बचाने के लिए कांग्रेस विशेषतया कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं और संसदीय मर्यादाओं का गला घोंटकर भ्रष्ट मंत्रियों को संरक्षण दे रहे हैं उससे तो भविष्य में भी दिशाहीन राजनीति को कोई सुचारू दिशा मिलेगी इसमें संदेह है। भ्रष्टाचार, काला धन, घोटालों और भाई भतीजावाद के खिलाफ उठी आवाजों को सोनिया निर्देशित कांग्रेस और सरकार हर तरीके से दबा रही है। सरकार की आर्थिक नीति के कथित सुधारों के विरोध में गत 20 सितम्बर को आधे से ज्यादा सांसद सड़कों पर उतरे थे। सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस लेने पर यह सरकार अल्पमत में आ गई है। बाहर से समर्थन लेने की बैसाखियों के बल पर चल रही इस लंगड़ी सरकार ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए फिर उसी पुरानी कांग्रेसी राजनीति का इस्तेमाल शुरू कर दिया है जो देशहित में नहीं है।
जाति/मजहब आधारित क्षेत्रीय दलों के उभार का कारण
राष्ट्रीय दलों की सैद्धांतिक शिथिलता
गठबंधन राजनीति की मजबूरी ने देश की प्रबुद्ध जनता और प्राय:सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को चिंतित कर दिया है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न मुंह बाए खड़ा हो गया है। आखिर कब तक राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल छोटे, क्षेत्रीय और जाति आधारित दलों का समर्थन लेने के लिए अपने वैचारिक आधार और सिद्धांतों को छोड़ते रहेंगे। आज क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियां इतनी मजबूत हो गई हैं कि वे केन्द्र की सरकारों के गठन और पतन का निर्णय करती हैं। जाति और मजहब आधारित यह ताकतें बलवती कैसे हो गईं? इस प्रश्न का उत्तर राष्ट्रीय स्तर के दलों को खोजना होगा। राजनीति की वर्तमान पतनावस्था के लिए केवल क्षेत्रीय दल ही जिम्मेदार नहीं हैं। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के उद्देश्य, सिद्धांत और वैचारिक आधार में आई शिथिलता और अवसरवादिता भी क्षेत्रीय शक्तियों के उभार की वजह है। जहां एक ओर राष्ट्रीय दल अपनी सत्ता के लिए क्षेत्रीय दलों से समझौते करते हैं, वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय दल भी इन राष्ट्रीय दलों की सत्तालोलुपता का लाभ उठाते हैं। राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल यदि सत्ता सुख को त्यागकर अपने सिद्धांतों पर अडिग रहेंगे तो संकीर्ण क्षेत्रीय शक्तियां भी बलवती नहीं हो सकतीं।
इन दिनों तीन प्रमुख क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह, बहुजन समाज पार्टी की मायावती और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी अपने को प्रधानमंत्री की दौड़ में देख रहे हैं। इन तीनों दलों का राजनीतिक आधार जाति और मजहबी राजनीति है। मुस्लिम तुष्टीकरण इनकी नीति है। ये दल व्यक्ति केन्द्रित हैं। अपने राजनीतिक हितों और नेतृत्व को ही सदैव तरजीह देने वाले ये दल किसी भी सरकार का समर्थन अथवा समर्थन वापसी का खेल-खेल कर सकते हैं। मुलायम सिंह तो आजकल तीसरे मोर्चे का रथ में तैयार करने में जुटे हैं ताकि 2014 के चुनावों के बाद वे इस रथ में भाजपा को छोड़कर कांग्रेस सहित किसी भी दल के घोड़े जोतकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचें।
वर्तमान दुरावस्था से देश को बचाने के लिए चाहिए
ध्येयनिष्ठ राष्ट्र–केन्द्रित राजनीति
वर्तमान राजनीतिक पतनावस्था से देश और समाज को बचाने के लिए अब एक ऐसी आदर्श राजनीति की आवश्यकता है जो भ्रष्टाचार, मजहबी पक्षपात, जातिगत भेदभाव, हिंसा, आतंक, प्रशासनिक अव्यवस्था, असुरक्षा और भय जैसे दुर्दान्त रोगों से राष्ट्र जीवन को मुक्त करवाने का सामर्थ्य रखती है। एक ऐसी राजनीति जिसमें मात्र सत्ता के लिए अपने सिद्धान्तों, आदर्शों और विचारों से समझौता न किया जाता हो। एक ऐसी ध्येय समर्पित राजनीति जिसमें छोटे और क्षेत्रीय दलों से समर्थन लेने के लिए राष्ट्रीय स्तर के दलों को अपने जन्मजात वैचारिक आधार से ही समझौता करने की जरूरत कभी भी और किन्हीं भी परिस्थितियों में न पड़े। वास्तव में इस तरह के चरित्र आधारित और उद्देश्यपरक राजनीतिक माहौल में जातिगत, मजहब प्रेरित संकीर्णता वाले छोटे-छोटे दलों को अपने दलगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को नुकसान पहुंचाने का अवसर ही नहीं मिलता। राष्ट्रनिष्ठा, देशभक्ति और समाज सेवा के राजनीतिक वातावरण में दलबदल, टांग खिचाई और खरीद-फरोख्त जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां पनप नहीं सकतीं।
दुर्भाग्य यही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व की आदर्श और राष्ट्र-केन्द्रित राजनीति ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् विकृत और सत्ता केन्द्रित राजनीति का एक ऐसा स्वार्थी स्वरूप अख्तियार कर लिया, जिसमें सैद्धान्तिक विचारधारा, समन्वित कार्य संस्कृति ओर देश/समाज से लेने की बजाए समर्पण जैसे आदर्श समाप्त होने प्रारम्भ हो गए। जब किसी क्षेत्र में कोई महामारी फैलती है तो अच्छे भले स्वस्थ व्यक्ति पर भी उसका थोड़ा-बहुत असर हो जाता है। परन्तु वह महामारी सदैव के लिए नहीं रहती। उचित चिकित्सकीय व्यवस्था और कुछ ही समाजसेवी समर्पित लोगों के परिश्रम से महामारी शान्त हो जाती है। अपने देश में व्याप्त वर्तमान अस्थाई दिशाहीन राजनीतिक वातावरण जरूर बदलेगा। सत्ता सुख से दूर हटकर राष्ट्र के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता और नेताओं के सतत् प्रयास से इस दूषित माहौल के स्थान पर एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था अवश्य कायम होगी। बस राष्ट्र-प्रेरित शक्तियों को आगे आकर एक स्वर से घोषणा करनी होगी- निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें। स्वार्थ साधना की आंधी में वसुधा का कल्याण न भूलें।
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