राष्ट्र-भाव के उदात्त उपदेष्टा
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सुदर्शन जी
गवाक्ष
शिवओम अम्बर
श्वास–श्वास में समष्टि की हित-चिन्ता, पोर-पोर में राष्ट्र जागरण का उत्साह, सौम्यता-संकल्प और शिवत्व के त्रिवेणी-संगम जैसा व्यक्तित्व – कुछ इस तरह मेरे चित्त में जागती है – स्मृतिशेष पूज्य सुदर्शन जी की प्रेरणास्पद छवि।
मेरी उनसे पहली भेंट फतेहगढ़ (उ.प्र.) में हुई थी। वह वयोवृद्ध प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक डा. ब्रह्मदत्त अवस्थी के अमृत महोत्सव के कार्यक्रम में आये थे और अभिनन्दन-ग्रन्थ 'राष्ट्र-चेतना के चरण' का लोकार्पण किया था। मंच संचालन का उत्तरदायित्व मुझे दिया गया था। मंच पर अनेक वरेण्य विद्वान उपस्थित थे। उनकी वक्तृताओं के बाद मेरी सहज स्फूर्त टिप्पणियों ने उन्हें मेरे प्रति सद्भाव से आपूरित किया और अपने उद्बोधन के दौरान उन्होंने भावोच्छल होकर मेरी चर्चा की। कार्यक्रम के तुरन्त बाद उन्हें प्रस्थान करना था, अत: उस दिन एक प्रणाम् के अलावा उनसे कोई और संवाद-सूत्र नहीं जुड़ा। मैं उनके पास कुछ देर बैठ भी नहीं सका, इसका मुझे कष्ट रहा। अपने अति प्रेरक उद्बोधन में उन्होंने डा. अवस्थी के सेवाव्रती व्यक्तित्व का अभिनन्दन करने के अनन्तर युवा पीढ़ी को पश्चिम के प्रति अन्धे मोह में न पड़ने के लिये सचेत किया था। स्वभाषा की शक्ति को पहचानने और उस पर गर्व करने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि पर्यावरण की चिन्ता न करके होने वाली तथाकथित प्रगति अन्तत: आत्मघाती सिद्ध होगी। व्यक्ति को अपने परिवार, अपने परिवेश और अपनी परम्पराओं से जुड़कर ही प्रगति की बारहखड़ी रटनी चाहिये।
नियति ने शीघ्र ही उनसे पुन: भेंट का अवसर उपलब्ध करा दिया। 'राष्ट्रधर्म' के द्वारा प्रवर्तित स्व. भानुप्रताप शुक्ल स्मृति पुरस्कार (सन् 2010) प्राप्त करने के लिये जब मैं छोटी खाटू (राजस्थान) पहुंचा तो मुख्य अतिथि के रूप में मंच पर पूज्य सुदर्शन जी विराजमान थे। अपने भाषण में उन्होंने पत्रकारिता के सन्दर्भ में मेरे द्वारा प्रस्तुत संक्षिप्त वक्तव्य के बिन्दुओं को रेखांकित किया और मेरे प्रति सहज स्नेह के भाव व्यक्त किये। कार्यक्रम के उपरान्त संयोग से भोजन करते समय हमें एक-दूसरे के पार्श्व में स्थान मिला। भोजनोपरान्त अपनी प्रतीक्षा में खड़े मीडिया के मित्रों को उन्होंने थोड़ी और प्रतीक्षा करने का निर्देश देकर मुझसे कहा-मुझे तुमसे कुछ बात करनी है। मैं आश्चर्यचकित भी था, आनन्दित भी। उनका पहला प्रश्न था – इन दिनों क्या कर रहे हो? मैंने बताया कि मैं एक विद्यालय में हिन्दी प्रवक्ता हूं, शीघ्र ही सेवानिवृत्त होने वाला हूँ। फिर बोले – और क्या कर रहे हो? मेरा उत्तर था कि कविता से मेरी संयुक्ति है और समय-समय पर विविध साहित्यिक आयोजनों में मेरी सहभागिता रहती है। उन्होंने कहा – यह मुझे मालूम है, और क्या कर रहे हो? मैंने कहा – विविध पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यिक विषयों पर लिखने का काम चल रहा है। उन्होंने कहा, 'मैं तुम्हारे लेख पढ़ता रहा हूं, इसी लेखन के कारण तुम्हें आज यह सम्मान मिला है और मैं यहां आया हूं। और क्या कर रहे हो? अब मैं कुछ परेशानी का अनुभव करने लगा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि श्रद्धेय सुदर्शन जी मुझसे क्या जानना चाह रहे हैं! बहरहाल, मैंने कहा कि जो भी अवकाश का समय मुझे मिलता है उसमें मैं भारतीय सांस्कृतिक चेतना के व्याख्याता शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन करता हूं। अब सुदर्शन जी के चेहरे पर एक आश्वस्तिकर मुस्कान आई। बोले, 'ध्यान से सुनो… उन्होंने मुझे एक वेदमन्त्र सुनाया और फिर बताया कि इसके आध्यात्मिक अर्थों के अतिरिक्त इसकी एक वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय व्याख्या भी मुझे विद्वानों से सुनने को मिली है। तुम्हें देखकर, सुनकर मुझे लगा कि मैं तुमसे अपनी अपेक्षा प्रकट कर सकता हूं। तुम साहित्य के व्यक्ति हो। हमारा बहुत-सा पौराणिक और विविध धार्मिक साहित्य खोखले कर्मकाण्ड में बदल गया है, अथवा विकृत व्याख्या का शिकार है। तुम ध्यानपूर्वक शास्त्रों-पुराणों को पढ़ो। उनके तत्वार्थ का चिन्तन करो। बहुत शीघ्रता करने की जरूरत नहीं है, किन्तु मेरी इच्छा है कि विद्यालय से सेवानिवृत्त होने के बाद तुम इन विषयों को भी अपने लेखन में शमिल करो। कर्मकाण्ड से अलग हटाकर धार्मिक गाथाओं के तत्वार्थ का विवेचन करो, उनकी समसामयिकता को उद्घाटित करो, उनकी लोक-कल्याणकारी भूमिका को स्पष्ट करो। मुझे लगता है, तुम यह काम कर सकते हो। तुम्हें यह करना ही चाहिये। इसके बाद मुझे आशीर्वादमयी दृष्टि से अभिषित्त करके वह मीडियाकर्मियों के सवालों में व्यस्त हो गये और मैं उनके निर्देशों पर चिन्तन-अनुचिन्तन करता रहा।
मेरी सेवानिवृत्ति के लगभग तुरन्त बाद पूज्य सुदर्शन जी के महाप्रस्थान का समाचार आया और वह सारा दृश्य स्मृति में दीप्त हो उठा। कभी डा. शिवमंगल सिंह सुमन ने महाप्राण निराला के अवसान पर जो कविता-पंक्तियां पढ़ी थीं, उन्हीं के माध्यम से आज मैं पूज्य सुदर्शन जी को प्रणति निवेदित कर रहा हूं –
तुम जीवित थे तो सुनने को मन करता था,
तुम चले गये तो गुनने को मन करता है,
तुम सिमटे थे तो सहमी थीं सबकी सांसें,
तुम बिखर गये तो चुनने को मन करता है!
भाषा की अस्मिता और हिन्दी का वैश्विक सन्दर्भ
दक्षिण अफ्रीका में आयोजित नवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में विमर्श का मुख्य बिन्दु था – भाषा की अस्मिता और हिन्दी का वैश्विक सन्दर्भ। विश्व स्तर पर आज हिन्दी के गौरव पर चिन्तन हो रहा है और समग्र संसार में उसकी स्वीकार्यता पर चर्चा चल रही है – यह हर्ष का विषय है। सवाल यह है कि भारतवर्ष में हिन्दी की स्थिति क्या है? राजकीय स्तर पर सम्पूर्ण वर्तमान तन्त्र अंग्रेजियत के रंग में सराबोर है, 'राजपुरुषों' के सहज संवाद की भाषा हिन्दी नहीं है! दूसरी तरफ स्वयं को हिन्दी का हित-चिन्तक घोषित करने वाले समाचार पत्र उसे अंग्रेज़ी की शब्दावली से आक्रान्त कर 'हिंग्लिश' बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। हिन्दी की बोलियों को क्षेत्रीय स्वाभिमान का वास्ता देकर अलग भाषा के रूप में स्थापित करने के क्षुद्र षड्यन्त्रों को दूरदृष्टि-विहीन राजनीति का संरक्षण प्राप्त हो रहा है। कभी हिन्दी की एक शैली कही जाने वाली 'उर्दू' आज उसकी प्रतिद्वन्द्वी बनकर खड़ी है और देश की अधिकांश राजनीतिक संस्थाएं उसके सामने प्रणाम बनकर पड़ी हैं! भोजपुरी-कुमायुंनी-अवधी-ब्रज आदि भी पृथकता पंक्ति में लगने को उत्सुक हैं। सूर और तुलसी से विच्छिन्न हिन्दी की कल्पना ही कम्पित कर देने में समर्थ है। विश्व-स्तर पर हिन्दी का महिमा-मण्डन हो रहा है, राष्ट्र में उसके विखण्डन के प्रकल्प चल रहे हैं – विडम्बना और किसे कहते हैं?
अभिव्यक्ति मुद्राएं
सुना है शहर में पोशाक से ही है पहचान,
ये बात है तो ये कपड़े बदल के देखते हैं।
न तख्तो–ताज न दौलत है फिर भी हम खुश हैं,
हमारी खुशियों को सब लोग जल के देखते हैं।
– राजेश रेड्डी
ये तो कोई दूसरा है आईने से झांकता,
अपना चेहरा देखकर हर शख्स हैरानी में है।
– विनय मिश्र
रगों में खून हिन्दी का हम इसके सुत चहेते हैं,
जहां विपरीत धारा है वहां हम नाव खेते हैं।
हमारे इन लबों की मुस्कराहट कौन छीनेगा,
सभी का दर्द लेते हैं सभी को प्यार देते हैं।
– बलराम श्रीवास्तव
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