लद गए वो दिन
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लगभग 50 साल पहले राजकपूर ने एक फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। इसके गीतकार शैलेन्द्र थे। फिल्म में एक गीत था 'ज्यादा का नहीं लालच हमको, थोड़े में गुजारा होता है…।'
यदि राजकपूर या शैलेन्द्र आज होते, तो उन्हें इस गीत की सार्थकता पर संदेह हो जाता। क्योंकि आज के युग में जहां एक ओर लालच, दिखावा और आवश्यकताएं बढ़ी हैं, वहीं दूसरी ओर महंगाई डायन भी कपड़े उतारने पर तुली है। पहले लोग बड़ा परिवार होने के बाद भी कम खर्च में गुजारा कर लेते थे, पर अब छोटा परिवार होने पर भी खर्च पूरा नहीं होता।
इसीलिए अब हर घर में पुरुषों के साथ ही महिलाएं भी पैसा कमाने में लगी हैं। इतना ही नहीं, तो हर व्यक्ति एक की बजाय दो या तीन काम करता है। इन्हें दूसरा काम तो कह सकते हैं, पर दो नंबर का काम नहीं। जो सचमुच दो नंबर का काम है, वह यानि मेज के ऊपर या नीचे से ली गयी राशि को दूसरा काम कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वह सुविधा शुल्क तो कार्यालय में काम करते हुए ही लिया जाता है।
बड़े कारोबारियों को देखें, तो टाटा ट्रक भी बनाता है और साबुन भी। अंबानी बन्धु तेल के साथ–साथ सब्जी और फल भी बेच रहे हैं। कई शिक्षक कुछ देर विद्यालय में पढ़ाने की औपचारिकता पूरी कर 'ट्यूशन' और 'कोचिंग' में जुट जाते हैं। कुछ जो पूंजी या साहस के अभाव में दो–तीन काम नहीं कर सकते, वे मिलावट या कमतौली से ही काम चला लेते हैं।
लोग काम चाहे जितने करें, पर प्राय: उन कामों की प्रवृति एक सी ही होती है, लेकिन हर क्षेत्र में विदेशी निवेश के युग में अब भारत भी 'उन्नति' पर है। लोग एक ही साथ दो–तीन तरह के काम करने लगे हैं। यदि यह रफ्तार बढ़ती गयी, तो भारत की सुस्त पड़ी जी.डी.पी को अंतरिक्ष यान की गति मिलते देर नहीं लगेगी। शायद सरकार इसी इंतजार में है, क्योंकि उसके किए तो कुछ हो नहीं रहा।
पिछले दिनों दिल्ली पुलिस ने एक 73 वर्षीय 'सम्माननीय' काले कोट वाले को पकड़ा है, जिसका मुख्य धंधा कारों की चोरी है। सम्मानित होने के कारण वे स्वयं कार में चलते थे और जो कार चुरानी हो, उसके पास अपनी कार खड़ी कर देते थे। फिर थोड़ी देर बाद मास्टर चाबी से वह कार लेकर चम्पत हो जाते थे। यदि ऐसा करते कोई टोकता, तो अपने सफेद बाल और काले कोट का हवाला देकर इसे गलतफहमी बताकर माफी मांग लेते थे। चोरी की कार को सुरक्षित स्थान पर रखने के बाद वे अपनी कार भी वहां से ले जाते थे।
ये महोदय 'वकालत' तो अपने राज्य हरियाणा में करते थे, पर चोरी दिल्ली में। संभवत: वे अपनी जन्मभूमि से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते होंगे। एक खास बात यह कि वे नई की बजाय पुरानी कारें ही चुराते थे, जिससे उसके मालिक को अधिक कष्ट न हो। पंजीकृत वकील होने के कारण कार चुराने के बाद उसके फर्जी कागज बनवाने में भी वे माहिर थे। इस फर्जीवाड़े को करते हुए एक बार तो वह फर्जी नियुक्ति पत्र बनवाकर 40 दिन तक न्यायालय में न्यायाधीश की कुर्सी पर भी बैठ चुके हैं।
पुलिस ने मुखबिर की सूचना पर जब उन्हें पकड़ा, तो उनसे चोरी की दो कारें और एक मोटरसाइकिल भी बरामद हुई। जैसे व्यक्ति पेट ठीक रखने के लिए कभी–कभी हल्का भोजन करता है, ऐसे ही वे कभी–कभी छोटे वाहनों पर भी हाथ साफ कर लेते थे। पुलिस ने जब छानबीन की, तो उन पर 92 आपराधिक मामले निकले, इनमें से 44 में वह दोषी सिद्ध हो चुके हैं। इन सबमें सजा के बाद उनका शेष जीवन जेल की गैराज में झाड़ू लगाते बीतेगा। आप कह सकते हैं कि दोष उनका नहीं, वर्तमान महंगाई और बढ़ते खर्चों का है, जो व्यक्ति को एक साथ कई काम करने पर मजबूर करते हैं। भगवान भला करे, कहीं कुछ और लोग भी इस मजबूरी की गिरफ्त में आ गए तो देश की खैर नहीं।
काश, कोई राजकपूर और शैलेन्द्र को बताये कि थोड़े में गुजारा होने वाले दिन उनके साथ ही चले गये। आज का सच तो यह है कि थोड़े में गुजारा बिल्कुल नहीं होता। इसके लिए दो-तीन काम करना मजबूरी है, ये काम कैसे हों, यह तो आपको सोचना है।
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