एक प्रतिभा-पुञ्ज की राष्ट्र साधना
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इस पन्द्रह सितम्बर (भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी) को सुदर्शन जी ने रायपुर के संघ कार्यालय 'जागृति मंडल' में प्राणायाम मुद्रा में अपना शरीर त्याग दिया। अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार वे ब्रह्म मुहूर्त्त में उठकर टहलने गये। लगभग सात बजे वापस लौटकर प्राणायाम के लिए बैठे कि बिना किसी पूर्व संकेत के चिरयात्रा पर चल दिये। खाट पर नहीं लेटे, डाक्टर को बुलाना नहीं पड़ा। ऐसी देवदुर्लभ मृत्यु कितने लोगों को प्राप्त होती है? नियति की लीला देखिए कि रायपुर के मिशन अस्पताल में ही 18 जून, 1931 को उनका जन्म हुआ। रायपुर से ही वे संघ प्रचारक बने, रायपुर में ही उन्हें पहला अनपेक्षित हृदयाघात हुआ, रायपुर में ही उनकी माता जी ने शरीर छोड़ा और नियति उन्हें अपना शरीर छोड़ने के लिए भी रायपुर में ही खींच लायी। दो दिन पहले द्वादशी पर उन्होंने श्रीगोपाल व्यास के घर पर भागवत कथा की पूर्णाहुति दी। अगले दिन (14 सितम्बर को) व्यास जी की रचना 'सत्यमेव जयते' का लोकार्पण किया। 15 सितम्बर को 'इंजीनियर्स दिवस' के उपलक्ष्य में उनका अभिनंदन होना था कि वे बिना किसी को पूर्व सूचना दिये चले गये। सच्चे कर्मयोगी का यह प्रयाण उनके पुण्य कर्मों का ही प्रताप हो सकता है।
सुदर्शन जी से मेरा पहला परिचय मार्च, 1954 में सिंदी (वर्धा जिला) के प्रचारक वर्ग में आया। उस वर्ग में श्री गुरुजी के नित्य प्रति दो बौद्धिक होते थे। उन बौद्धिकों को लिपिबद्ध करने के लिए वर्ग के सूत्रधार एकनाथ जी रानडे ने जो टोली बनायी थी उसमें उत्तर प्रदेश से विनायक शेंडेय, रामरूप गुप्त और मुझे रखा तथा महाकौशल प्रांत से सुदर्शन जी और रामशंकर अग्निहोत्री को जोड़ा। अगले वर्ष (1955 में) नागपुर के तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग में पुन: सुदर्शन जी का एक मास लम्बा साथ मिला। एक ही चर्चा गट में होने के कारण बौद्धिक और भावनात्मक तार जुड़ते चले गये। मृत्यु के चार दिन पूर्व ही रात्रि को भोपाल से फोन करके उन्होंने पूछा कि नेहरू जी के समय पर भारत सरकार ने जो पञ्चांग समिति बनायी थी उसके अध्यक्ष वैज्ञानिक मेघनाद साहा थे या कोई और?… लगभग 60 वर्ष लम्बे संबंधों की पूरी गाथा को इस लेख में प्रस्तुत करना संभव ही नहीं है। यहां केवल इतना ही कहा जा सकता है कि सुदर्शन जी से मुझे जो मैत्री भाव एवं आत्मीयता प्राप्त हुई वह मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान पूंजी है। मेरे प्रत्येक सुख-दु:ख में वे सम्मिलित हुए। अपने अन्तर्द्वंद्व को मेरे साथ साझा किया। अनेक योजनाओं को हमने मिलकर बनाया। इस लम्बे संबंध में मैंने पाया कि वे सरलता, सादगी, अकृत्रिम स्नेह और निरहंकारिता की साक्षात् प्रतिमा थे। उनकी संघनिष्ठा अडिग एवं अविभाजित थी। वस्तुत: उनकी 81 वर्ष लम्बी शरीर यात्रा एक राष्ट्रभक्त अन्त:करण और प्रतिभा-पुञ्ज की ध्येय साधना के अतिरिक्त कुछ नहीं थी। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, विद्याध्ययन और संघ यात्रा पर दृष्टि डालने पर लगता है कि स्वयं नियति ने उन्हें अखिल भारतीयत्व के सांचे में ढाला था।
बाल्यकाल और शिक्षा
तमिलनाडु और केरल की सीमा पर स्थित कर्नाटक के तिरुनेलवेल्ली जिले के शेन्कोटै नामक स्थान में कौशिक गोत्र के संकेती तमिल बाह्मण परिवार में जन्मे सुदर्शन जी के पूर्वज 250 साल पहले कर्नाटक चले आये थे। उनके घर में टूटी-फूटी तमिल बोली जाती और कन्नड़ भाषा उनकी सामान्य भाषा बन गयी। इस प्रकार तमिल और कन्नड़ संस्कृतियों को अपने संस्कारों में समेटे उनके पिता श्री कुप्पहल्ली चिन्नय्या सीतारामय्या को उनका भाग्य विभाग की नौकरी के बहाने मध्य प्रदेश खींच लाया, जहां मराठी और हिन्दी भाषाओं के साथ उनका बचपन और किशोरावस्था बीती और उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। मध्य प्रदेश में बैतूल, दमोह, महासमुन्द, सिरोंचा, चंद्रपुर जिले में आलापल्ली आदि अनेक स्थानों पर उनका स्थानांतरण होता रहा। दमोह में तीसरी से पांचवी कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। छठवीं से दसवीं तक की पढ़ाई मण्डला में की। ग्याहरवीं कक्षा चन्द्रपुर में रहकर पूरी की। अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों में पढ़कर भी वे एक मेधावी छात्र सिद्ध हुए। मैट्रिक की बोर्ड की परीक्षा में केवल चार अंक कम पाकर पूरे बोर्ड में चौथे क्रमांक पर रहे। आगे की पढ़ाई के लिए 1947-48 में जबलपुर आ गये। वहां के राबर्ट्सगंज कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की।
इस बीच 9 वर्ष की आयु में पाचवीं कक्षा में ही दमोह में सुदर्शन जी ने संघ की शाखा पर जाना प्रारंभ कर दिया था। शाखा पद्धति की प्रत्येक विधा में उन्होंने पारंगतता प्राप्त की। कबड्डी आदि खेल, दंड, व्यायाम पद्धति, गीत गायन, घोष वादन, चर्चा, बौद्धिक आदि प्रत्येक दिशा में उन्होंने सिक्का जमाया। गटनायक से लेकर मुख्य शिक्षक तक- सब दायित्व संभाले। संघ कार्य में पर्याप्त समय लगाने के बाद भी वे विद्याध्ययन में अग्रणी रहे। इंटरमीडिएट में पढ़ते समय गांधी जी की हत्या का दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय घटा। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तब वे छात्रावास में रहते थे। 11 दिसंबर, 1948 को सुदर्शन जी की छात्रावास शाखा के स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। तीन माह तक जेल में रहे। वहां से परीक्षा के ठीक पूर्व छोड़े गए, फिर भी इंटरमीडिएट के बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में छठा स्थान प्राप्त किया।
1949 में उसी कालेज परिसर में नया इंजीनियरिंग कालेज शुरू हुआ। सुदर्शन जी ने उस कालेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का निश्चय किया। किन्तु इंटरमीडिएट कालेज के प्रधानाचार्य ने उनके प्रमाण पत्र पर लिख दिया था कि यह छात्र संघ के सत्याग्रह में भाग लेने के कारण तीन माह तक जेल में बंद रहा है। इस आधार पर इंजीनियरिंग कालेज के प्राचार्य ने उन्हें अपने यहां प्रवेश देने से मना कर दिया। बड़ी दौड़-धूप करनी पड़ी। संयोग से नागपुर में जेल गए स्वयंसेवकों को कालेज में प्रवेश मिल रहा था। उसी के आधार पर सुदर्शन जी को भी जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश तो मिल गया पर छात्रावास में जगह नहीं दी गयी। अत: उन्हें अलग से एक मकान किराये पर लेना पड़ा जिसमें उनके साथ उनकी माताजी व छोटे भाई भी आ गये। सुदर्शन जी ने टेली कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग का चार वर्ष का पाठ्यक्रम 1953 में पूरा किया। पर तब तक उनके प्रचारक जीवन की दिशा कुछ और तय हो चुकी थी।
इंटरमीडिएट कालेज में ही एकनाथ जी रानडे ने उनके छात्रावास में आकर बैठकें लेना आरंभ कर दिया और उन्हें संघकार्य में अपना पूरा जीवन लगाने की प्रेरणा मिल रही थी। अत: उन्होंने इंजीनियरिंग पास करके प्रचारक बनने का संकल्प ले लिया था। परीक्षा के बाद चार माह की 'प्रेक्टिकल ट्रेनिंग' लेकर 1954 में वे प्रचारक जीवन की देहरी पर खड़े हो गये। उन्हीं दिनों मार्च, 1954 के सिंदी प्रचारक वर्ग में उनसे प्रथम परिचय का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी दिशा में उन्होंने तेजी से दौड़ना प्रारंभ कर दिया। 1953 में उन्होंने संघ का प्रथम वर्ष, 1954 में द्वितीय वर्ष और 1955 में तृतीय वर्ष के शिक्षा वर्ग कर लिये। तीनों वर्ष का शिक्षण उन्होंने नागपुर में ही प्राप्त किया। 23 जून, 1954 को वे रायगढ़ जिले में चांपा, जांजगीर व विलासपुर जिले की तहसीलों के तहसील प्रचारक नियुक्त हुए। पौने दो वर्ष तक उस क्षेत्र में कार्य किया। 1956 में उन्हें सागर के नगर प्रचारक का दायित्व मिला। वहीं जिला प्रचारक का दायित्व संभाला। 1957 से 1964 तक विंध्य विभाग में विभाग प्रचारक रहे। 1964 में उन्हें मध्य भारत के प्रांत प्रचारक का दायित्व सौंपा गया और इंदौर नगर उनका केन्द्र बन गया। वहीं उन्होंने 1966 में 'स्वदेश' (दैनिक) आरंभ किया जिससे उनके अंदर का पत्रकार और लेखक जाग्रत होकर प्रकाश में आया। मध्य भारत के प्रांत प्रचारक रहते हुए उन्हें अ.भा.शारीरिक प्रमुख का दायित्व भी दिया गया।
इंदिरा जी द्वारा आरोपित आपातकाल की घोषणा होने पर सुदर्शन जी जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक इंदौर जेल में बंदी रहे। उसी जेल में समाजवादी नेता मधु लिमये भी बंद थे। वहीं उन्हें समाजवादी नेताओं की सोच व जीवन शैली को नजदीक से समझने का अवसर मिला, जिसके अनेक रोचक संस्मरण वे समय- समय पर सुनाया करते थे। आपातकाल के बाद 1979 में उन्हें पूर्वांचल क्षेत्र का दायित्व मिला और कोलकाता नगर उनका केन्द्र बना। इस दायित्व के कारण उनका बंगला, असमी और उड़िया भाषाओं से सीधा संबंध स्थापित हो गया। इन भाषाओं को वे भली प्रकार समझने लगे। बंगला भाषा में तो धाराप्रवाह भाषण की क्षमता उन्हें प्राप्त हो गयी। इस प्रकार तमिल, कन्नड़, मराठी, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं के साथ-साथ वे पूर्वांचल की तीन मुख्य भाषाओं के भी धनी हो गए। पूर्वांचल क्षेत्र का दायित्व संभालते हुए ही उन्हें अ.भा.बौद्धिक प्रमुख का दायित्व भी दिया गया। उन्हीं दिनों पंजाब में आतंकवाद की समस्या खड़ी हो गयी जिसका उन्होंने सूक्ष्म अध्ययन किया। पंजाब समस्या पर एक पुस्तक भी लिखी। पंचनद शोध संस्थान (चंडीगढ़) में आयोजित एक संगोष्ठी में सुदर्शन जी के साथ जाने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय सिख संगत का मार्गदर्शन भी उन्होंने किया। गुरु ग्रंथ साहिब, दशम ग्रंथ, सिख इतिहास और सिख समाज का उनका अध्ययन बहुत गहरा था। सिख विद्वान उनसे चर्चा करके बहुत आह्लादित होते थे।
रचनात्मक दृष्टिकोण
1989 में उन्हें सह सरकार्यवाह का दायित्व मिला और दिल्ली केन्द्र हो गया। इसी समय राष्ट्रवादी बौद्धिक गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने की योजना बनी, जिसने पहले 'प्रज्ञा भारती' और फिर 'प्रज्ञा प्रवाह' का नाम धारण किया। इसके लिए उन्होंने एक अभिनव कल्पना प्रस्तुत की कि 'प्रज्ञा भारती' कोई संस्था न होकर केवल एक प्रकोष्ठ होगा जिसका काम स्वतंत्र रूप से पहले से चल रहे या नए आरंभ होने वाले बौद्धिक मंचों के बीच समन्वय तक सीमित रहेगा। कोलकाता बैठक के बाद पहला सूचना पत्र सुदर्शन जी ने स्वयं लिखा, जिसमें स्पष्ट निर्देश था कि 'प्रज्ञा भारती' नाम से कोई इकाई खड़ी नहीं होगी, फिर भी एक प्रांत ने प्रज्ञा भारती नाम का पंजीकरण करा लिया। सुदर्शन जी ने तुरंत उस समस्या का हल निकाला कि पंजीकरण के कारण वे तो अपना नाम बदल नहीं सकते, पर प्रकोष्ठ का नाम बदलने में कोई हानि नहीं। अत: उसके लिए उन्होंने 'प्रज्ञा प्रवाह' नाम सुझाया। बीच में एक न्यास के पंजीकरण की औपचारिकता पूरी करने के लिए कुछ पदाधिकारियों के नाम देना आवश्यक हो गया, तो मेरा नाम अध्यक्ष के रूप में दे दिया गया। पर कुछ कार्यकर्त्ताओं ने उसे गंभीरता से ले लिया और वे मुझे वास्तविक अध्यक्ष मानने लगे। तब मैंने सुदर्शन जी के सामने यह प्रश्न उठाया। उन्होंने तुरंत उस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया।
दीनदयाल शोध संस्थान के दिल्ली भवन को उसकी मूल योजना के अनुरूप एक सशक्त बौद्धिक व शोध केन्द्र के रूप में विकसित करने का सुदर्शन जी ने भारी प्रयास किया। नानाजी देशमुख ग्राम पुनर्रचना के रचनात्मक कार्य को ही सार्थक मानते थे। वे चाहते थे कि संस्थान की पूरी शक्ति और संसाधन ग्राम पुनर्रचना की गतिविधियों पर ही लगायी जाए। इसके लिए सुदर्शन जी और उनके बीच कई बार बहस भी हुई। रचनात्मक कार्यों में सुदर्शन जी की स्वयं भी बहुत रुचि थी। देश के किसी भी कोने में किसी भी रचनात्मक कार्य का अध्ययन करने वे दौड़े चले जाते थे। नानाजी के समान वे भी वैज्ञानिक दृष्टि और तीक्ष्ण मेधा और प्रबल स्मरण शक्ति से सम्पन्न थे। 2000 ईस्वी में जब रज्जू भैया ने अपनी अस्वस्थता के कारण सुदर्शन जी को सरसंघचालक जैसा गुरुतर दायित्व सौंपा तब सुदर्शन जी ने देश के प्रत्येक अंचल में फैले स्वदेशी विज्ञान और तकनीक के प्रयोगों का स्वयं जाकर अध्ययन किया। उनका वर्णन वे इतनी बारीकी के साथ करते थे कि उनकी सूक्ष्म दृष्टि और स्मरण शक्ति पर आश्चर्य होता था। सन् 2000 से 2009 तक उन्होंने सरसंघचालक जैसा शीर्ष दायित्व संभाला।
सुदर्शन जी का मन बहुत ही सरल, कभी-कभी भोलेपन की सीमा तक पारदर्शी था। किसी भी व्यक्ति पर विश्वास करना उनका स्वभाव था और अपने मन की बात को वे कहीं भी रख सकते थे। उनकी इस सरलता और विश्वासप्रियता का कुछ लोग कभी-कभी दुरुपयोग भी कर लेते थे। किन्तु सुदर्शन जी इस सबसे प्रभावित नहीं होते थे। वे किसी के प्रति अपने मन में दुर्भाव नहीं रखते थे। बाद के दिनों में तो उन्होंने अपने भाषणों को लिखित रूप में तैयार करना शुरू कर दिया। उनकी हस्तलिपि संकलन बहुत मूल्यवान स्रोत सामग्री है। ऐसे कितने ही अंतरंग संस्मरण हैं जो घुमड़ रहे हैं, पर यहां उन्हें लिख पाना संभव नहीं है। सुदर्शन जी संगठक, चिंतक और हृदयवान संरक्षक- सब कुछ एक साथ थे। वे संबंधों को दूर तक निभाते थे। देश भर में ऐसे कितने ही परिवार हैं जो उनकी रिक्तता अनुभव कर रहे हैं। यह हमारा भाग्य है कि हमें उनका स्नेहपूर्ण सान्निध्य प्राप्त हुआ।
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