नयी राहों के अन्वेषक
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श्री कुप्पहल्ली सीतारामय्या
18 जून, 1931- 15 सितम्बर, 2012
श्रद्धाञ्जलि सभा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्पहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन जी की स्मृति में 30 सितम्बर, 2012 (रविवार) की प्रात: नई दिल्ली में एक श्रद्धाञ्जलि सभा का आयोजन किया गया है। तालकटोरा इंडोर स्टेडियम के विशाल सभागार में प्रात: 8 बजकर 30 मिनट से 10 बजकर 30 मिनट तक यह श्रद्धाञ्जलि सभा सम्पन्न होगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य में सरसंघचालक को चिंतक और मार्गदर्शक माना जाता है। दैनन्दिन कार्यों का संचालन यद्यपि सरकार्यवाह, सहसरकार्यवाह तथा केन्द्रीय पदाधिकारियों की टोली करती है, फिर भी सरसंघचालक की भूमिका परिवार के मुखिया की होने के कारण अति महत्वपूर्ण होती है। विश्व भर में फैले करोड़ों स्वयंसेवक तथा उनके द्वारा संचालित हजारों संगठन व संस्थाओं से जुड़े लोग उनकी वाणी और व्यवहार से सदा प्रेरणा लेते हैं। संघ गंगा के भगीरथ, आद्य सरसंघचालक पूज्य डा. हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन राव भागवत तक यह यात्रा अविराम चल रही है। इसी सुवासित मालिका के पांचवें पुष्प श्री कुप्पहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन मूलत: तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली ग्राम के निवासी थे। उल्लेखनीय है कि कन्नड परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर अपना नाम बोलते हैं। उनके पिता श्री सीतारामैया वन विभाग की नौकरी के कारण प्राय: मध्य प्रदेश में ही रहे और वहीं रायपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़) में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन का जन्म हुआ। तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। रायपुर, दमोह, मंडला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर विश्वविद्यालय) से 1954 में दूरसंचार विषय में बी.ई की उपाधि प्राप्त की और फिर प्रचारक बनकर राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। उनके प्रचारक जीवन की यात्रा रायगढ़ से प्रारम्भ हुई। जिला, विभाग आदि के बाद 1964 में वे मध्य भारत के प्रान्त प्रचारक बने। उस समय वहां सभी विभाग प्रचारक उनसे बड़े थे; पर उन्होंने अपनी विनम्रता से सबका विश्वास एवं प्रेम अर्जित कर लिया।
गहन चिंतन–दूरगामी दृष्टिकोण
विज्ञान के छात्र होने के बाद भी वे इतिहास, भूगोल, धर्म व अर्थ आदि कई विषयों के जानकार, भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के ज्ञाता तथा अद्भुत वक्तृत्व व लेखन कला के धनी थे। उनकी भाषा अति शुद्ध, प्रांजल तथा हस्तलेख भी बहुत संुदर था। अपने उद्बोधन में दोहे, कुंडली, श्लोक तथा कविताओं के उद्धरण देकर वे सबका मन जीत लेते थे। समस्या की गहराई तक जाकर उसका सही समाधान ढूंढना उनकी विशेषता थी। पंजाब में अलगाववाद की समस्या हो या असम का घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, अपने गहन अध्ययन व चिन्तन के कारण उन्होंने इनके निदान हेतु ठोस सुझाव दिये। साथ ही कार्यकर्ताओं को उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन को भटकने से रोका। उनका कहना था कि सभी सिख गुरुओं ने श्रीराम और श्रीकृष्ण के गुण गाये हैं। अत: प्रत्येक केशधारी (सिख) और प्रत्येक सहजधारी (हिन्दू) दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखते हैं। उनकी इस सोच के कारण खालिस्तान आंदोलन की चरम अवस्था में भी पंजाब में 'गृहयुद्ध' जैसा कुछ नहीं हुआ। इसी प्रकार बंगलादेश से असम में आये मुसलमान घुसपैठिये हैं, उन्हें वापस भेजना ही चाहिए। जबकि वहां से लुट-पिट कर आने वाले हिन्दू शरणार्थी हैं, अत: उन्हें सहानुभूतिपूर्वक शरण देनी चाहिए। पूरे देश से नौकरी या व्यापार के लिए पूर्वांचल में गये हिन्दुओं को घुसपैठिया कहना गलत है। असम में पिछले दिनों बंगलादेशी घुसपैठियों तथा उनके भारत में बसे समर्थकों द्वारा जो हिंसक उपद्रव किये गये, उससे सुदर्शन जी की दूरगामी सोच की सत्यता प्रमाणित होती है। उनकी सोच के परिणामस्वरूप खालिस्तान आन्दोलन के दिनांे में 'राष्ट्रीय सिख संगत' नामक संगठन की नींव रखी गयी, जो आज विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है।
शारीरिक व बौद्धिक विषयों के तज्ञ
सुदर्शन जी नयी राहों के अन्वेषक थे। 1969 से 1979 तक वे अ.भा. शारीरिक प्रमुख थे। इस दौरान खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन तथा खेल को शारीरिक पाठयक्रम में स्थान मिला। आपातकाल में इंदौर जेल में रहते हुए उन्होंने योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग कर उसका स्वरूप बिल्कुल बदल दिया। योगचाप की लय और ताल पर होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर का हर जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। कारावास में बन्दी अन्य लोगों के साथ देश की समस्याओं पर गहन चर्चा कर उन्होंने जो दस्तावेज बनाये, आपातकाल के बाद जनता पार्टी को अपनी नीतियां बनाने में उससे काफी सहयोग मिला।
1977 में शारीरिक प्रमुख के साथ वे पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक भी बने। 1979 में उन्हें अ0भा0 बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। शाखा पर बौद्धिक विभाग के दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय में होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को व्यवस्थित रूप 1979 से 1990 के दौरान ही मिला। 'प्रात:स्मरण' के स्थान पर नये 'एकात्मता स्तोत्र' एवं 'एकात्मता मन्त्र' को भी उन्होंने प्रचलित कराया। शारीरिक और बौद्धिक में तज्ञ होने के कारण वे प्राय: संघ शिक्षा वर्ग में स्वयं किसी गण में जाकर पढ़ाने लगते थे। प्रार्थना, भोजन मंत्र, गीत आदि का सामूहिक या व्यक्तिगत अभ्यास कराते उन्हें हजारों लोगों ने देखा। किसी भी नयी बात को सीखने, सिखाने या नया प्रयोग करने में उन्हें कभी संकोच नहीं होता था।
उदार और व्यापक व्यक्तित्व
1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। इस दौरान संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े गये। देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जो कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम मंे डूब रहा था, उसकी सोच एवं प्रतिभा को राष्ट्रवाद की ओर मोड़ने हेतु बना 'प्रज्ञा-प्रवाह' नामक वैचारिक संगठन भी देश के बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हो रहा है। इसकी नींव में भी सुदर्शन जी ही थे। संघ-कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के लिए उन्होंने ब्रिटेन, हालैण्ड, केन्या, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग, अमरीका, कनाडा, त्रिनिडाड, टुबैगो, गुयाना आदि अनेक देशों का प्रवास भी किया।
इस्लाम और ईसाइयों से प्रभावित अधिकांश संस्थाएं प्राय: राष्ट्र की मुख्यधारा से कटी रहती हैं। समाचार माध्यम भी प्राय: उनके मजहबी स्वरों को ही प्रमुखता देते हैं। यद्यपि वहां भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है। ऐसे लोगों ने कई बार उनसे आग्रह किया कि संघ को इस दिशा में भी कुछ काम करना चाहिए। परिणामत: कुछ संस्थाएं बनीं, जिनसे बड़ी संख्या में राष्ट्रभक्त मुसलमान और ईसाई जुड़ गये हैं। इस्लाम तथा ईसाइयत के बारे में सुदर्शन जी का अध्ययन भी बहुत व्यापक था। अत: कई मुस्लिम बुध्दिजीवी तथा मौलाना उनका सम्मान करते थे। प्रवास में वे लोग उनसे मिलने आते थे तथा उनके कार्यक्रमों में सुदर्शन जी भी सहर्ष जाते थे। देशप्रेमी मुसलमानों द्वारा श्री राममंदिर आंदोलन तथा अमरनाथ यात्रा में हिन्दुओं के अधिकारों का समर्थन, गोरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बनाने तथा आतंकवादियों को फांसी देने की मांग, श्रीरामसेतु विध्वंस तथा उर्दू को अनावश्यक महत्व देने का विरोध आदि देखकर लगता है कि यह प्रयास भी परिणामकारी हो रहा है। इससे मुसलमानों में ऐसा नेतृत्व उभर रहा है जो कट्टरवादी नहीं है और हर बात के लिए पाकिस्तान या अरब देशों की ओर नहीं देखता।
निरन्तर सक्रिय एक अविश्रान्त पथिक
सुदर्शन जी की कार्यशैली, परिश्रम तथा समन्वयवादी दृष्टिकोण से सब लोग प्रभावित थे। अत: चतुर्थ सरंसघचालक मा0 रज्जू भैया को जब लगा कि वृध्दावस्था के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते तो उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन राव भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया।
सरसंघचालक पद से निवृत्त होने के बाद भी वे गोसंवर्धन, जैविक खेती, पर्यावरण, प्राचीन भारतीय उत्पादन विधियों के संरक्षण आदि के विषय में भाषण, गोष्ठी तथा व्यक्तिगत चर्चा में जोर देते रहते थे। वे चाहते थे कि पूरी तरह हिन्दी माध्यम से चलने वाले कुछ विश्वविद्यालय खुलें। इस हेतु वे म0प्र0 के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा वैचारिक भिन्नता के बावजूद उ.प्र. में मुलायम सिंह से भी मिले। पिछले कुछ समय से वे आयु वृद्धि संबंधी अनेक समस्याओं से पीड़ित थे। फिर भी वे प्रतिदिन प्रात: घूमने अवश्य जाते थे। आयुर्वेद पर उनका बहुत विश्वास था। लगभग 20 वर्ष पूर्व भीषण हृदयरोग से पीड़ित होने पर चिकित्सकों ने बायपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय बताया; पर सुदर्शन जी ने लौकी के रस के साथ तुलसी, काली मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया। कादम्बिनी के तत्कालीन सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी सुदर्शन जी के सहपाठी थे। उन्होंने इस प्रयोग को दो बार कादम्बिनी में प्रकाशित भी किया।
गत सप्ताह वे एक कार्यक्रम के लिए रायपुर गये थे। 15 सितम्बर, 2012 को प्रात: भ्रमण से लौटकर उन्होंने योगाभ्यास किया, फिर प्राणायाम प्रारंभ किया और फिर इसी शांत, सुखद स्थिति में देहातीत हो गये। यह भी एक संयोग है कि पूरा जीवन प्रवास करने वाले सुदर्शन जी ने अनंत के प्रवास के लिए उसी रायपुर को चुना, जहां उनका जन्म हुआ था।
उनके चरणों में शत-शत प्रणाम्।
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