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पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना का दो टूक जवाब– 26/11 भूल जाओ, आगे की बात करो
26/11 के षड्यंत्रियों को पोसने वालों को सौगातें बांट आए भारत के विदेश मंत्री
हिन्दुओं के पलायन पर चुप रहे कृष्णा
आलोक गोस्वामी
ताज्जुब की बात है कि जिस वक्त भारत के विदेशी मंत्री एस.एम. कृष्णा इस्लामाबाद में पाकिस्तानी नेताओं से घिरे, विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के साथ वीसा संधि पर दस्तखत करके पर्यटकों की आड़ में पाकिस्तानी जिहादियों के लिए भारत आने का रास्ता सुगम कर रहे थे, लगभग उसी वक्त अपमानित और लांछित 171 पाकिस्तानी हिन्दुओं का जत्था राजस्थान में सरहद पार करके जोधपुर पहुंचा था। और वह जत्था ही क्यों, पिछले 4-5 महीने से पाकिस्तान में तरह-तरह की मानसिक-शारीरिक-सामाजिक यातनाएं भोगकर बड़ी संख्या में हिन्दू परिवार जान बचाने को भारत में पनाह लेते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तानी आवभगत में बिछ-बिछ जा रहे कृष्णा के मुंह से उनकी हमदर्दी में वहां एक शब्द भी नहीं निकला। क्या कृष्णा भूल गए थे कि वह उस देश के विदेश मंत्री के नाते पाकिस्तान गए थे जिसने 26/11 का मर्मान्तक दंश झेला है; जिसके हर दर्द पर पाकिस्तान ने अट्टहास किया है, आतंक पर लगाम कसने की जिसकी हर दस्तावेजी अपील को कूड़े की टोकरी में फेंका है; जिसके नागरिकों पर पाकिस्तान पर राज करने वाली आईएसआई ने एक के बाद एक जिहादी हमले कराए हैं; जो सीमापार जिहाद से परोक्ष युद्ध में अपने लाखों नागरिक और जवान शहीद कर चुका है और जिसके लोगों को पाकिस्तान ने झूठे आरोपों में सालों से जेलों में जानवरों से भी बदतर हालात में कैद कर रखा है? कृष्णा और उनके आस-पास घेरा डाले भारतीय दूतावास, विदेश अधिष्ठान के अंग्रेजीदां अधिकारियों ने तब चुप्पी क्यों साधी हुई थी जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना ने 8 सितम्बर को इस्लामाबाद में संयुक्त प्रेस वार्ता में 26/11 के मुख्य षड्यंत्री हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई करने की भारतीय विदेश मंत्री की मिमियाहट भरी अपील पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि, 26/11 को लेकर इतने भावुक न हों, आगे की सोचें?
दावे पड़े झूठे
भारत में आतंकवाद को शह देने वाले और हर जिहादी हमले के साजिशकर्ताओं को पनाह देने वाले पाकिस्तान से रिश्ते खत्म करने का दावा करते हुए तब 26 नवम्बर 2008 (मुम्बई हमले) के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि जब तक पाकिस्तान मुम्बई हमले के मुख्य साजिशकर्ता हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता तब तक पाकिस्तान से कोई संबंध नहीं रखेंगे। लेकिन क्या हुआ उस घोषणा का? खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बीच पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से तीन बार और तत्कालीन प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी से चार बार मिल चुके हैं। क्यों? सईद पर तो पाकिस्तान ने हमेशा टालने वाली बात की, तब अपने कहे से वह कैसे पलटे? संयुक्त कार्य दलों और आपसी विश्वास बढ़ाने के कदमों की तो छोड़िए, विदेश मंत्री कृष्णा भी दिल्ली में और अन्य जगहों पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना से मिलते रहे हैं। और ये ताजा-ताजा 7, 8, 9 सितम्बर 2012 की उनकी पाकिस्तान यात्रा में भी वे सईद पर टका सा जवाब पाकर पाकिस्तान को वीसा की सौगात बांटने के अलावा, कराची-दिल्ली के बीच सीधा रास्ता खोलने, मुनाबाओ-खोखरापार के बीच दूरियां पाटकर वहां करोबारी आवाजाही सुगम करने और दिल्ली-इस्लामाबाद के बीच सीधी उड़ानों की बात कर आए हैं, जिनको किसी भी समय मनमोहन सरकार सिर झुकाकर मान लेगी। कृष्णा ने पाकिस्तान में हिन्दुओं की दुर्दशा का मामला तो नहीं ही उठाया, साथ ही जम्मू की सीमा पर सुरंग बनाने, उत्तर-पूर्व के लोगों को सोशल साइट्स के जरिए दहशत में डालने की आईएसआई की हरकत और संघर्षविराम के ताजे उल्लंघन की बाबत भी पाकिस्तान के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और गृहमंत्री से कोई जवाब-तलब नहीं किया।
महत्वपूर्ण मुद्दों पर चुप्पी क्यों?
कृष्णा की इस पाकिस्तान यात्रा को बिल्कुल असफल बताते हुए भारत के गुप्तचर ब्यूरो (आईबी) के पूर्व निदेशक श्री अजित डोवल कहते हैं कि कृष्णा की इस यात्रा से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ। कृष्णा की यात्रा कूटनीतिक और संयुक्त कार्यदलों की दृष्टि से नाकामयाब रही। 26/11 के संदर्भ में हमें पाकिस्तान से जो जवाब चाहिए था, वह नहीं मिला। 'सोशल साइट्स' पर जहर फैलाने के दोषियों ने पकड़े जाने पर माना था कि आईएसआई ने उन्हें इसका पाठ पढ़ाया था। जम्मू में गुप्त सुरंग का मिलना, आईएसआई द्वारा भारत में लगातार जाली मुद्रा झोंकना आदि ऐसे मुद्दे थे जिन पर कृष्णा को उनसे जवाब मांगना था। श्री डोवल ने बताया कि पाकिस्तान की यह कहने की ऐतिहासिक रणनीति रही है कि 'जो बीत गया उसे भूल जाओ, आज जो हम कह रहे हैं बस वही सच है।' राष्ट्रों के बीच संबंध ऐतिहासिक तथ्यों को भुलाकर नहीं बनाए जाते। हर देश यथार्थ और तथ्य पर आधारित डाटा को ध्यान में रखकर नीतियां तय करता है। भारत पाकिस्तान के साथ रिश्ते में अगर कुछ भी अनदेखा करेगा तो वह भयंकर भूल होगी। वरिष्ठ विश्लेषक ए. सूर्यप्रकाश तो कहते हैं कि कृष्णा का उस पाकिस्तान की यात्रा पर जाना समझ से परे है जिसने भारत के दिए तमाम सबूतों को झुठलाते हुए 26/11 के मुख्य षड्यंत्रकारियों को सिर-माथे बैठाया हुआ है। ऐसे पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाना किसी भी भारतीय को समझ नहीं आ रहा है। यह बहुत अप्राकृतिक है। दुनिया में दूसरा कोई देश नहीं होगा जो मार खाने के अगले ही दिन मारने वाले से दोस्ती करने को उतावला हो जाए। यह भारत देश और यहां के नागरिक ऐसे नहीं हैं, वे उससे दोस्ती की नहीं सोचते, यह सिर्फ मनमोहन सरकार की सोच है। वीसा संधियों के संदर्भ में सूर्यप्रकाश मानते हैं कि पाकिस्तान ने इसके जरिए भी भारत को चकमा दिया है। आज की स्थिति में कोई हिन्दू वहां नहीं जाना चाहता, क्योंकि वहां से हिन्दू अपमानित होकर भारत आ रहे हैं। कोई मुसलमान भी वहां नहीं जाना चाहेगा क्योंकि वहां रोज बम फट रहे हैं। तो संधि से फायदा होगा पाकिस्तानी जिहादियों को। भारत की सरकार क्या इतना भी नहीं समझती? यह संधि भारतीय नागरिकों की सुरक्षा की दृष्टि से बिल्कुल गलत है। मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के लोग भारत के नागरिक है या नहीं? अगर उनकी ऐसी नीति है तो भारत की सुरक्षा ऐसे लोगों के हाथ में अब एक दिन भी रहने देना खतरनाक है।
भुलावे में मनमोहन सरकार
पाकिस्तान इस समय अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग पड़ गया है। आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देश के रूप में उसका चेहरा दुनिया के सामने उजागर हो गया है। श्री डोवल कहते हैं, ऐसे समय में भारत को अपने सामरिक महत्व के बिन्दुओं पर उससे दो टूक बात करनी चाहिए, जबकि वह तो पाकिस्तान को तरजीह दिए जा रहा है। आज तो भारत पाकिस्तान के सामने अपने पहले वाली स्थिति से भी बहुत नीचे आ गया है। 'डिफेंस एंड सिक्योरिटी एलर्ट' पत्रिका के संपादक मेजर जनरल (से.नि.) गगनदीप बख्शी भी मानते हैं कि आज पाकिस्तान रेंगने की स्थिति में है, पर फिर भी वह हमसे अपनी मनचाही मांगें मनवा रहा है। उसकी हमेशा से फितरत रही है कि बड़ी मायूस सी सूरत बनाकर हमसे अपनी मर्जी पर मुहर लगवा ले और हमारी बातों पर कान ही न दे। '47 से आज तक यही देखने में आया है। मे.ज. बख्शी रोषभरे लहजे में कहते हैं कि भारत सरकार इस भुलावे में क्यों है कि वहां लोकतंत्रीय व्यवस्था है और उससे रिश्ता बढ़ाया जा सकता है? क्या भारत के नीतिकारों को नहीं पता कि वहां आज भी असली कमान आईएसआई और फौज के हाथ में है? ऐसे में उस देश से किसी भी तरह की बातचीत के कोई मायने नहीं हैं। उनका कहना है कि मुम्बई हमले के बाद बातचीत के रास्ते खोलने को उतावली दिखी मनमोहन सरकार यही दर्शाना चाहती है कि उसकी नजर में उस हमले में मारे गए 166 भारतीय नागरिकों की जान की कोई कीमत नहीं है। मे.ज. बख्शी तो यहां तक कहते हैं कि अगर विभिन्न मंचों और मीडिया में विशेषज्ञों ने सियाचिन, सर क्रीक, जल बंटवारा आदि पाकिस्तान द्वारा उठाए ऐसे ही विवादों के विरुद्ध दृढ़ मत दिखाते हुए भारत सरकार को सावधान न किया होता तो डर था कि सरकार इन पर भी कोई समझौता कर लेती।
विशेषज्ञों की यह बात भी सोलह आने सच दिखती है कि पाकिस्तान से रिश्ते कायम रखने के लिए अमरीका भारत पर लगातार दबाव डालता रहा है। लेकिन भू-राजनीति में जो देश अपने स्वाभिमान और सुरक्षा को दांव पर लगाकर दूसरे देशों के इशारे पर चलता है, उसकी अंतरराष्ट्रीय साख धराशायी हो जाती है। अमरीका पर आंखें तरेरते चीन ने भारत को एक घुड़की भर दिखाई थी कि भारत ने अपने गुट निरपेक्ष होने (अर्थात अमरीका से दूर होने) की दुहाई देनी शुरू कर दी। क्यों नहीं भारत उस देश (यानी पाकिस्तान) से भी उतनी ही दृढ़ता के साथ दूरी दर्शाता जो उसे आए दिन चोट पहुंचा रहा है और उसके बदले तोहफे में मनचाहे करारों पर दस्तखत कराके भारत की खिल्ली उड़ाता है?
26/11 के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था-
जब तक वे हाफिज सईद नहीं सौंपेंगे हम पाकिस्तान से कोई बात नहीं करेंगे
…लेकिन मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति जरदारी तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री गिलानी के बीच 26/11 के बाद हुईं वार्ताओं का ब्यौरा इस प्रकार है-
राष्ट्रपति जरदारी के साथ डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री गिलानी के साथ
जून, 2009- रूस, शंघाई कार्पोरेशन
आर्गेनाइजेशन शिखर सम्मेलन
अप्रैल, 2012 – नई दिल्ली (अजमेर दरगाह जाते हुए)
अगस्त, 2012 – ईरान, गुटनिरपेक्ष सम्मेलन
जुलाई 2009 – शर्म अल शेख – गुटनिरपेक्ष सम्मेलन
अप्रैल 2010 – भूटान- दक्षेस मंत्रियों का सम्मेलन
मार्च, 2011 – मोहाली- भारत-पाक क्रिकेट मैच
नवम्बर 2011 – मालदीव- दक्षेस सम्मेलन
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