बात बेलाग
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एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये के कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे, आवंटन रद्द करने और पूरे मामले की स्वतंत्र जांच कराने की मांग को ले कर भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने जब संसद का मानसून सत्र ठप किया, तब नारे लगाये जाते थे-प्रधानमंत्री इस्तीफा दो, कोयले की दलाली है-पूरी कांग्रेस काली है। तब शायद नारे लगाने वालों को भी नहीं पता होगा कि वे वाकई सच का खुलासा कर रहे हैं। अब जब मीडिया की सक्रियता से कोयला घोटाले की परतें धीरे-धीरे खुल रही हैं, वे नारे सच साबित होते नजर आ रहे हैं। पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय के सिफारिशी पत्र पर प्रधानमंत्री ने कैसे 24 घंटे के अंदर ही उनके भाई से संबंधित एसकेएस कंपनी को कोयला खदानें आवंटित कर दीं, इसका खुलासा तो संसद सत्र के दौरान ही भाजपा ने कर दिया था, पर अब पता चल रहा है कि कांग्रेस और संप्रग सरकार तो ऐसे सहायों से भरी पड़ी है। मौजूदा कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल कोयला घोटाले में सरकार की रक्षक पंक्ति के सदस्य हैं। चिदंबरम और सिब्बल की तरह उन्होंने भी 'खनन नहीं तो नुकसान कैसा' के आधार पर शून्य क्षति की बात बार-बार दोहरायी है, पर अपने एक रिश्तेदार मनोज जायसवाल की कंपनियों को आवंटित खदान के सवाल पर मुंह चुराने लगते हैं। तर्क देते हैं कि उनके कार्यकाल में खदानें आवंटित नहीं की गईं। अब मनमोहन सरकार की संकटमोचक समाजवादी पार्टी के ही बड़े नेता रामगोपाल यादव ने खुलासा किया है कि श्रीप्रकाश जायसवाल ने मंत्री बनने के घंटे भर के अंदर ही पहला काम दफ्तर जा कर तीन खदान आवंटित करने का किया। जरा याद करें कि एक और कोयला मंत्री हुआ करते थे संतोष बगरोडिया। अचानक राज्यसभा सदस्य बनाये गये संतोष को ऐसे ही अप्रत्याशित रूप से कोयला राज्य मंत्री भी बना दिया गया था। तब कोयला मंत्रालय खुद प्रधानमंत्री ही संभाल रहे थे। संतोष के भाई की कंपनी को 23 हजार करोड़ रुपये मूल्य वाली खदान कौड़ियों के मोल आवंटित की गई-वह भी कोयला मंत्रालय के ही सार्वजनिक उपक्रम के दावे को दरकिनार कर। अब उनकी भी मासूम सफाई सुन लीजिए कि उन्होंने तो मंत्री बनते ही खुद को पारिवारिक कंपनी के व्यावसायिक हितों से अलग कर लिया था। कांग्रेस सांसद विजय दर्डा की कंपनी को खदान मिलीं ही, अब मीडिया ने खुलासा किया है कि एक और कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल की कंपनी को खदान ही नहीं मिली, बल्कि मनमाने मूल्य पर बाजार में बिजली बेचने की छूट भी मिली। अब सच तो कड़वा होता ही है, सो बौखलाये नवीन मीडियाकर्मियों से हाथापाई तक पर उतर आये। हालांकि कांग्रेस और भ्रष्टाचार का चोली-दामन का साथ है, पर कोयला घोटाले के जुड़ते तार तो इस लूट के पीछे सुनियोजित साजिश और सर्वोच्च स्तर से शह की ओर इशारा कर रहे हैं। आखिर, सांसद से मंत्री बनाने तक सारे फैसले वहीं तो होते हैं।
कांग्रेस का असली चेहरा
भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से कांग्रेस के प्रेम का तो इतिहास गवाह है, पर सोनिया के राज में नैतिकता का नाटक भी जरूरी नहीं रहा तभी तो हिमाचल प्रदेश की अदालत में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले के आरोप तय हो जाने पर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने को मजबूर हुए वीरभद्र सिंह को अब हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कमान सौंप दी गयी है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं तो क्या हुआ, राजा हैं तो हिमाचल प्रदेश में सर्वाधिक जनाधार वाले कांग्रेसी। फिर भाजपा शासित हिमाचल प्रदेश में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। अब कांग्रेस तो कांग्रेस है, वह सत्ता की खातिर भ्रष्टाचारियों तो क्या, विदेशी घुसपैठियों तक को गले लगाने में संकोच नहीं करती। कांग्रेस का यह चरित्र देख तो पूरा देश रहा है, पर हिमाचल प्रदेश ने तो वीरभद्र सिंह को भी बहुत करीब से देखा है। इसलिए झांसे में आने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती।
अपने-अपने 'युवराज'
राहुल गांधी कांग्रेस के 'युवराज' हैं तो अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के । दोनों अलग-अलग दलों में हैं, पर दोनों में गजब की समानता है। मसलन, दोनों ही दल खानदानी जागीर बन कर रह गये हैं और दोनों ही 'युवराज' किसी विचारधारा या संघर्ष के नहीं, बल्कि वंशवाद की देन हैं। कांग्रेस को कोसते हुए भी उसकी बैसाखी बनने में सपा को कभी कोई शर्म नहीं आयी, पर उसी सपा ने अब राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल उठाये हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे सवाल उठाये भी जाने चाहिए और देश भर से उठते भी रहे हैं, लेकिन नौसीखिये अखिलेश को देश के सबसे बड़े राज्य की बागडोर सौंपने वाली पार्टी के ये सवाल कांग्रेस को नागवार गुजरे हैं। कांग्रेसी पूछ रहे हैं कि राहुल की क्षमता पर सवाल उठाने वाली सपा अखिलेश के तुगलकी शासन पर क्या कहेगी? समदर्शी
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