सोनिया की राजनीति
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सोनिया की राजनीति

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Sep 8, 2012, 12:00 am IST
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बात बेलाग

दिंनाक: 08 Sep 2012 13:22:04

संसद का मानसून सत्र शुुरू हुआ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की एक टिप्पणी पर लाल-पीली हो कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संदेश देने की कोशिश की  कि वह अपनी सासू मां इंदिरा गांधी की शुरुआती छवि की तरह 'गूंगी गुड़िया' नहीं हैं। पर उन्होंने कहा क्या, यह किसी की समझ में नहीं आया। खुद कांग्रेसियों की समझ में भी इतना ही आया कि 'शोर मचाओ'। शोर मचा भी, पर जब एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये के कोयला घोटाले में खुद प्रधानमंत्री बुरी तरह घिरे तो कांग्रेसियों की बोलती फिर बंद हो गयी। सो, सोनिया ने फिर एक बार नहीं, दो बार कांग्रेसियों को  नसीहत दी कि रक्षात्मक होने के बजाय विपक्ष को कड़ा जवाब दें। आडवाणी की एक टिप्पणी पर आग-बबूला होने वाली सोनिया ने तमाम राजनीतिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर कहा कि राजनीतिक ब्लैकमेल ही भाजपा की रोजी-रोटी है। अब इसका मतलब तो कांग्रेसियों को भी समझ नहीं आया। आखिर भाजपा ने इतना ही किया था कि 'कैग' रपट से उजागर हुए कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को ले कर संसद नहीं चलने दी, पर यह काम तो कांग्रेस समेत सभी दल विपक्ष में होने पर करते रहे हैं। आक्रमण के जरिये ही रक्षा करने की नाकाम कोशिश के बाद फिर अपनी छवि सुधारने के लिए सोनिया ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को फोन किया कि संसदीय गतिरोध टूटे। सुषमा ने कह दिया कि अगर बिना नीलामी किये गये 142 कोयला खदान आवंटन रद्द कर स्वतंत्र जांच के आदेश दे दिये जाएं तो संसद चल सकती है, पर सोनिया जवाब देने के बजाय सप्ताह भर के लिए विदेश चली गयीं। क्यों? वही, अपनी अज्ञात बीमारी के चलते ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्य की जांच कराने।

     न दर्शन, न मार्गदर्शन!

आजाद भारत के सबसे बड़े घोटाले यानी कोयला घोटाले पर केंद्र सरकार की अगुआ पार्टी कांग्रेस की मुखिया का खाने और गुर्राने वाला रवैया तो सभी ने देख लिया, पर उनके लाड़ले 'युवराज' के 'उच्च विचार' पता नहीं चल पाये। एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये के कोयला घोटाले पर संसद का  कमोबेश पूरा मानसून सत्र भेंट चढ़ गया, लेकिन 'युवराज' का मार्गदर्शन कांग्रेसियों को न संसद के अंदर मिल पाया और न ही बाहर। अब जबकि देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से ले कर दिशाहीन दिग्विजय सिंह तक तमाम कांग्रेसी 'युवराज' से उम्मीद लगाये बैठे हैं किवे संगठन से लेकर सरकार तक में बड़ी भूमिका निभा कर नयी दिशा दें, उनका परिदृश्य से ही गायब रहना चौंकाने वाला है। ऐसा क्यों है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। वैसे याद दिला दें कि इससे पहले एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये के टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले ने देश को हिला कर रख दिया था, तब भी 'युवराज' की भूमिका अदृश्य ही रही थी। वंशवादी राजनीति में जकड़ी कांग्रेस ने विदेशी मूल की सोनिया को तो अपना खेवनहार मान ही लिया है, भविष्य में शायद वह अदृश्य नेतृत्व का अनूठा प्रयोग भी करने जा रही है।

  नेहरू परिवार का उत्तर प्रदेश

शीर्षक से चौंकें नहीं। जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश ने कांग्रेस को ही हाशिए पर फेंक दिया है तो फिर वह नेहरू परिवार का कैसे हो सकता है? मामला दरअसल नेहरू परिवार की नजर में उत्तर प्रदेश का है। तीन साल तक तिकड़मों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उसके पैरों पर खड़ा करने की नाकाम कवायद करने वाले राहुल गांधी प्रदेश तो छोड़िए, अपने और अपनी मां सोनिया के निर्वाचन क्षेत्रों, अमेठी और रायबरेली में भी कांग्रेस का किला हाल के विधानसभा चुनावों में बचा कर नहीं रख पाये। सो, अब पार्टी की छोड़िए, उन्हें अपनी ही पराजय का डर सताने लगा है। यह डर कितना गहरा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संसद के मानसून सत्र के दौरान ही लोकसभा में सोनिया खुद उठकर मुलायम सिंह यादव के पास गयीं। लोगों ने कयास लगाये कि वह कोयला घोटाले की आग में झुलस रही सरकार और पार्टी को बचाने की किसी रणनीति में मदद मांगने गयी होंगी, पर बाद में राज खुला  किवह तो अमेठी और रायबरेली को 24 घंटे बिजली आपूर्ति के अखिलेश यादव सरकार के फैसले के लिए धन्यवाद करने गयी थीं। पूरा उत्तर प्रदेश बेलगाम अपराधों से लेकर अभूतपूर्व बिजली संकट तक, अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है, पर देश की सरकार चला रही कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया को चिंता है तो बस अपने और अपने बेटे के निर्वाचन क्षेत्रों की। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में तो चर्चा भी चल पड़ी है कि नेहरू परिवार ने उत्तर प्रदेश का जो नया नक्शा बनाया है, उसमें प्रदेश अमेठी और रायबरेली तक ही सिमट कर रह गया है।

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