युगप्रवर्तककवि
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प्रवर्तक
कवि
रवीन्द्र शुक्ल 'रवि'
साहित्यिकी
कवि शब्द ब्रह्म का साधक है,
नवयुग धरती पर ला सकता।
निज तेज पुंज की आभा से,
अंधियारा दूर भगा सकता।
है प्रश्न नहीं कोई ऐसा,
जिसका हल कवि के पास नहीं।
निश्चित कोई वंचक होगा,
जो कहता कोई आस नहीं।
जब–जब कवि ने अंगड़ाई ली,
लिख गए पृष्ठ इतिहासों के।
सोया पौरुष उठ खड़ा हुआ,
खुल गए द्वार अहसासों के।
हो गया हवाओं में कम्पन,
भू–मंडल थर–थर डोल गया।
हिल गए अनेकों सिंहासन,
जब–जब मुखरित स्वर बोल गया।
चिंगारी राख हटा दहकी,
ठंडा लहू भी खौल उठा।
कवि ने हुंकार भरी जब–जब,
तब शौर्य स्वयं को तौल उठा।
मैं कवि हूं, कविता के द्वारा,
अंधियारा दूर भगाता हूं।
चढ़ शीष ध्वंश ज्वालाओं के,
मैं गीत सृजन के गाता हूं
युग का निर्माण करो बढ़कर,
युग वंदित तुम्हें बना देगा
तुम धर्म निभाओगे युग का,
इतिहास तुम्हें अपना लेगा।
बन जाओगे युग निर्माता,
तब गीत पीढ़ियां गाएंगी।
युग–युग तक पावन चिन्तन से,
'रवि' शाश्वत पथ अपनायेंगी।
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