सरोकार
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बायना बांटेला बेटी मांगू
यूं तो महिलाओं द्वारा संपन्न होते तीज-त्योहारों और व्रतों में बेटी के जन्मने, उसके दीर्घायु होने के लिए एक भी व्रत नहीं किया जाता, पर गांव घरों का एक रिवाज बेटियां ही बखूबी निभाती आई हैं। इसलिए बिहार में मनाए जाने वाले छठ पर्व में सूर्य भगवान से बेटा के संग बेटी भी मांगी जाती रही है। सभा में बैठने के लिए बेटा चाहिए तो घर-घर बायना बांटने के लिए बेटी भी। सभा में बैठना जितना आवश्यक है उतना ही जरूरी है बायना बांटना। घर-घर को जोड़ने का माध्यम है बायना। और यह काम छोटी-छोटी बालिकाएं निभाया करती थीं।
मेरे बचपन की बात है। मेरी भाभी के मायके से 'सनेस' (संदेश) आया था। हर रिश्तेदार के यहां समय-समय पर संदेश भेजने की परिपाटी थी। बांस की एक टोकरी (दौरा) में पूरी खीर, चीउरा, गुजिया, दही जैसे सामान और उसी में साड़ी, ब्लाउज, बिंदी-चूड़ियां भी। जैसे ही दौरा लेकर कोई आता, पीछे के दरवाजे से पास-पड़ोस की महिलाएं जुट जातीं। दादी बीच आंगन में दौरा रखकर बैठ जातीं। सर्वप्रथम लोटे में पानी लेकर उसके चारों ओर छींटतीं। उसके बाद दौरे को लपेटे कपड़े की गांठ खोलतीं। दौरा और दादी को घेर कर महिलाएं और बच्चे खड़े हो जाते। दादी एक-एक सामान उठातीं सबको दिखातीं। हर सामान की समीक्षा होती। पकवानों के रंग रूप देखकर भेजने वाले सम्बंधियों के घर की महिलाओं की फूहड़ता और सुघड़ता का भी अंदाजा लग जाता। महिलाएं खूब चर्चा करतीं। उनके प्रस्थान करने पर दादी का पहला काम होता उन पकवानों और फलों में से थोड़ा-थोड़ा कई घरों में बंटवाना। बायना का लेखा-जोखा दादी ही रखती थीं। उन्हें स्मरण रहता था कि किन-किन परिवारों से उनके घर बायना आया था। उन्हें ही अपने घरों से बायना भिजवाया जाता था। बायना की मात्रा इस पर निर्भर करती थी कि किस घर से कितना बायना आया। साथ ही रिश्तेदार ने कितना भेजा।
एकबार मेरी भाभी के मायके से संदेश में बहुत कम सामान आया था। फिर क्या था। दादी ने मां से कहा-'थोड़ी सी दालपुरी और खीर बना ले। गांव में बायना बंटवा दे। समधियाना से कम आया तो क्या, हमारे घर में तो कमी नहीं है।'
ऐसा करते देख मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने दादी से पूछा-'अपने घर में बनवा कर क्यों भेज रही हैं?' दादी ने बड़े प्रेम से समझाया- 'देख! बायना का मतलब ही है सामान का आना-जाना। यानी किसी घर का बायना हमने खाया तो उसे भेजना भी चाहिए। किसी-किसी घर में चार-पांच बहुएं हैं, उनके मायके से दो-तीन बार संदेश आ ही जाते हैं। हमारे घर तो कितने बार बायना आ गया। मेरे घर तो एक ही बहू है। साल में एकबार संदेश आया भी, तो कम। हम दूसरे घरों का बायना खाकर पचा नहीं सकते। हमें भी भेजना चाहिए। समाज में रहते हैं तो समाज की रीति-रिवाज का पालन भी करना है।'
एक छोटे दौरे में दादी आठ-दस घरों के लिए बायना सजातीं। भूलनी (काम करनेवाली) के सिर पर रखकर लाल कपड़े से ढंक देतीं। फिर मुझे कहतीं-'जाओ तुम इसके साथ। बायना बांट आओ। जल्दी लौटना। अभी दूसरे टोले में भी बांटना है।' जिस घर में हम जाते, महिलाएं ढेरों सवाल करतीं-'कहां से सन्देश आया? कितना आया? साड़ी कैसी है?' इसके साथ वे हमारे रिश्तेदार जिनके घर से सन्देश आता, उनके घर के बारे में भी विस्तार से जानकारी ले लेतीं। मुझे खाने के लिए भी पूछतीं। भूलनी को थोड़ा धान या गेहूं देतीं।
बायना बांटने में बेटियों का गांव भ्रमण भी हो जाता था। बायना प्रथा के माध्यम से हर घर जुड़ा रहता था। बायना का दूसरा स्वरूप भी था। किसी घर में शादी-ब्याह या उपनयन संस्कार का उत्सव होने पर घर-घर पूरी-खीर बांटी जाती थी। इसे भी बायना ही कहते थे। विभिन्न पर्व त्योहारों पर भी बायना बांटा जाता था। इस प्रकार के बायने में यह भी ध्यान रखा जाता था कि किस घर से किस आकार-प्रकार की और कितनी संख्या में पूरियां आई, उसे उसी अनुपात में भेजी जाती थीं।
कभी-कभी बायना, निमंत्रण का भी काम करता था। किसी घर से डोमकछ (लड़के के विवाह की एक रस्म) की पूरी आने का मतलब था रात्रि को डोमकछ में भाग लेने का निमंत्रण। उसी प्रकार बिलौकी (लड़की की शादी के दिन उसे घर-घर घुमा कर आशीष दिलाने की रस्म) की पूरी पहुंच गई, अर्थात लड़की उस घर में आशीष लेने आएगी। उपनयन संस्कार के उपरांत भी लड़के आशीष मांगने घर-घर जाते थे।
बायना नहीं मिलने पर उलाहने भी सुनने पड़ते थे। किसी घर से किसी कारण लड़ाई हो गई तो बायना का आना जाना भी रुक जाता था। अनेकानेक ऐसी परंपराओं पर अब विचार करते हुए लगता है कि हमारे ग्रामीण जीवन को बांधने के लिए कितने सारे सफल और लोकहितकारी उपाय थे। इतना ही नहीं सारा गांव एक-दूसरे परिवार से ही नहीं, उन परिवारों के रिश्तेदारों की स्थितियों से भी अवगत रहता था। बायना में भले ही दो पूरियां आती थीं, उसका प्रभाव अधिक होता था। बायने की प्रतीक्षा होती थी। समाज को जोड़ने की यह परंपरा शहरों में विलुप्त हो गई है। कभी-कभी, कुछ-कुछ सामान पड़ोसियों के घरों में भेजा जाता है, पर वह बायना नहीं है। बायना तो मानो लेन-देन का दूसरा स्वरूप था। किसी का खाया तो उसे खिलाना ही है। समान व्यवहार का प्रदर्शन।
बायना के द्वारा सामाजिकता को शक्ति तो मिलती ही थी, सद्व्यवहार भी सिखाता था बायना। किसी का बायना खाकर पचा जाने के गलत व्यवहार के विरूद्ध था बायना का व्यवहार। हमारे शहरी जीवन में बायना समाप्त हुआ तो बेटियां भी कम होती जा रही हैं। बेटियों का आभाव खलने का एक अवसर बायना बांटने का समय भी होता था। दादी-पोतियों से परेशान भी रहती थीं, पर पोतियां उनकी जरूरत भी थीं। पढ़ाई-पढ़ाई और केवल पढ़ाई करने वाली हमारी शहरी बेटियां बहुत सारी परंपराओं से दूर हो गई हैं जो उनके व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायक होती थीं और जीवन के प्रति विशेष दृष्टि देती थीं। वे अपने आसपास की स्थितियों से वाकिफ होती थीं। निरक्षरा होकर भी सज्ञान होती थीं। उनकी सज्ञानता से ही घर परिवार और संतानें सुसंस्कृत होती थीं। बायना बेटियों को समाज के विभिन्न स्वरूपों का आईना दिखाता था। उन घरों में भी अनेकता में एकता थी। बेटियां घर-घर जाकर उसकी अनुभूति करती थीं। उनके अंदर बचपन में पड़े ये संस्कार बड़ी होकर उनके द्वारा अपना घर बसाने में काम आते थे। गांव के घर धनी हो या अमीर, बायना सबके घर जाता था। बायना धनी-गरीब का भेद नहीं करता था। सामाजिक एकता को प्रश्रय मिलता था। धन को नहीं।
बायना का रिवाज देखने-सुनने में भले हि लघु लगता हो, समाज की बुनावट में इसका बड़ा प्रभाव दिखता था।
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