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क्या भारत का मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग स्वाधीन भारत द्वारा अंगीकृत लोकतांत्रिक संविधान में अपनी आस्था खो बैठा है? यदि नहीं, तो क्यों आगामी लोकसभा चुनावों के पूर्व ही भाजपा पर दबाव बनाया जा रहा है कि वह अपने प्रधानमंत्रीय उम्मीदवार के नाम की घोषणा अभी से कर दे? क्यों बार-बार यह कहा जाता है कि भाजपा के पास प्रधानमंत्री पद के लिए अनेक नाम हैं, जिनके बीच व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का टकराव चल रहा है? यह सच है कि भाजपा के पास ऐसे नामों की लम्बी सूची है जो प्रधानमंत्री बनने की योग्यता रखते हैं। भाजपा की केन्द्रीय टीम में भी ऐसे कई नाम हैं और कई राज्यों के मुख्यमंत्री भी यह योग्यता प्रमाणित कर चुके हैं? किन्तु लोकतंत्र में किसी एक दल के पास अनेक क्षमतावान नामों का होना उसकी दुर्बलता का परिचायक है या उसकी आंतरिक शक्ति का? यह सत्य है कि केन्द्र में सत्ता की स्पर्धा में दो ही बड़े दल मैदान में हैं-एक भाजपा और दूसरा सोनिया कांग्रेस। मीडिया यह सवाल क्यों नहीं उठाता कि सोनिया कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल के अलावा कोई दूसरा नाम है क्या? यदि नहीं तो क्यों नहीं है?
कठपुतली प्रधानमंत्री
राहुल ने राजनीति के क्षेत्र में अपनी योग्यता व क्षमता का ऐसा कौन-सा परिचय कब और कहां दिया है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का सहज अधिकारी मान लिया जाए, सिवाय इसके कि वे राजीव- सोनिया के पुत्र हैं और अपने नाम के पीछे वह गांधी नाम का उपयोग कर रहे हैं। कोई यदि मनमोहन सिंह का नाम लेना चाहे तो उसे बतलाना होगा कि मनमोहन सिंह का 2004 में प्रधानमंत्री बनना क्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुआ या सोनिया के द्वारा नामांकन की पद्धति से? स्थापित लोकतांत्रिक परम्परा के अनुसार प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले व्यक्ति को चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचना चाहिए, पर 1947 से अब तक के इतिहास में मनमोहन सिंह इसके अकेले अपवाद हैं। वे कभी चुनाव लड़कर लोकसभा के सदस्य नहीं बन सके। उन्हें पिछले दरवाजे से आपात स्थिति में प्रधानमंत्री बनाया गया। वे मात्र मुखौटा हैं, सत्ता सूत्र पर्दे के पीछे किन्हीं और हाथों में है। 2004 से अब तक (आठ वर्षों में) इस सत्य के अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। पीछे क्यों जाएं, वर्तमान स्थिति को ही देखें। इस समय देश की संसद एक संकट काल से गुजर रही है। 'कोलगेट' में राष्ट्रीय कोष को लाखों-करोड़ रुपये की हानि की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर डाली गयी है, प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर संसद की कार्यवाही नहीं चल पा रही है। पूरे विवाद के केन्द्र में प्रधानमंत्री स्वयं हैं, पर वे इस समय भारत में न होकर विदेश में हैं। अपनी पार्टी के जी-हजूरों को मुख्य विपक्षी दल भाजपा पर आक्रमण करने के लिए हुंकार रही हैं। अभी तक लोग समझते थे कि प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद पी.चिदम्बरम मंत्रिमंडल में दूसरे स्थान पर पहुंच गये हैं, पर अब प्रगट हुआ है कि वे नहीं ए.के. एंटोनी नं.2 हैं। एंटोनी ही क्यों, क्योंकि वे सोनिया की अंतरंग 'कोर कमेटी' के सदस्य हैं। सोनिया अपनी रहस्यमयी बीमारी के समय अमरीका जाते समय जिन चार नामों की 'कोर कमेटी' की घोषणा कर गयीं थीं, उनमें एंटोनी को प्रमुख दायित्व मिला था। इस स्थिति में यदि मनमोहन सिंह की तुलना कठपुतली से की जाए तो वह उनके आत्म सम्मान को भले ही स्वीकार न हो, पर उसकी वास्तविकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
गडकरी और आडवाणी के कथन
यहां सवाल खड़ा हो जाता है कि यदि भारतीय राजनीति को 1950 के लोकतांत्रिक संविधान के अंतर्गत चलना है तो भावी प्रधानमत्री के चयन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए? लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मांग है कि चुनाव परिणाम आ जाने के बाद लोकसभा में सबसे अधिक सदस्य संख्या वाले दल की संसदीय पार्टी द्वारा चुना गया नेता ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश करने का अधिकारी हो सकता है। पर अब इतना भर पर्याप्त नहीं है। राजनीति की वर्तमान विखंडित स्थिति में कोई भी एक दल लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने की स्थिति में नहीं लगता। दोनों बड़े दलों को गठबंधन का सहारा लेना पड़ रहा है। दोनों गठबंधनों की अपनी-अपनी नियामक समिति है। अत: चुनाव परिणाम आने के बाद दोनों गठबंधनों का स्वरूप व सदस्य संख्या महत्वपूर्ण बन जाती है। जिस गठबंधन की सदस्य संख्या बड़ी होगी, वह बड़े घटक दल द्वारा प्रस्तावित नाम पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाएगा।
प्रधानमंत्री चयन की इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सामने रखें तो भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा कुछ टेलीविजन चैनलों को दिये गये साक्षात्कार में यह घोषित करना कि चुनाव परिणाम आने के बाद पहले हम अपने संसदीय दल का नेता चुनेंगे और फिर राजग की सहमति प्राप्त करेंगे, बिल्कुल उचित जान पड़ता है। मीडिया को उनकी इस घोषणा का स्वागत करना चाहिए, उसे समर्थन देना चाहिए। इसी प्रकार इस समय देश के वरिष्ठतम नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी के इस कथन का मर्म भी खोजा जाना चाहिए कि राजनीति की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह संभव हो सकता है कि दोनों गठबंधनों के बड़े दलों की बजाय किसी अन्य दल के पास प्रधानमंत्री पद चला जाए। क्या 1996 से 1998 तक यह दृश्य खड़ा नहीं हुआ था?
किन्तु परेशानी की बात यह है कि लोकतंत्र में सैद्धांतिक आस्था रखते हुए भी हमारा मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग अनजाने में ही क्यों न हो, वंशवादी राजनीति का हथियार बनता जा रहा है। वह सोनिया कांग्रेस से यह पूछने के बजाय कि तुम्हारे यहां प्रधानमंत्री पद के लिए कौन-कौन योग्य उम्मीदवार हैं, राहुल बनाम मोदी जैसे काल्पनिक प्रश्नों में उलझा हुआ है। वह यह भूल जाता है कि मोदी विरोधी अभियान पूरी तरह प्रायोजित है। 2002 के दंगों के मरे सांप को पीट कर मोदी की मुस्लिमविरोधी छवि उभारकर, पूरे भारत के मुस्लिम वोटों को रिझाने का ओछा प्रयास है, राजनीतिक बहस को विकास के मुद्दे से हटाकर मुस्लिम वोट बैंक पर केन्द्रित करने का दुष्चक्र है।
वंशवादी राजनीति का प्रारंभ
वस्तुत: स्वाधीन भारत की राजनीति में वंशवाद को स्थापित करने का श्रेय या कुश्रेय जवाहर लाल नेहरू को जाता है। 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु का लाभ उठाकर पं. नेहरू ने विधिवत् निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को धकेलकर प्रधानमंत्री के साथ-साथ अध्यक्ष पद भी हथिया कर गांधीवादी नेतृत्व द्वारा निर्मित कांग्रेस को व्यक्तिवाद के पथ पर धकेला। फिर 1959 में अपनी पुत्री इंदिरा को कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस का चरित्र वंशवादी बनाया। इंदिरा ने नेहरू के साथ-साथ गांधी जी की विरासत को हथियाने के लोभ में अपने पति फिरोज घैण्डी या घांडी के नाम को गांधी में बदल डाला। जनस्मृति बहुत दुर्बल होती है। लोगों को यह याद दिलाना आवश्यक है कि इस समय भी दिल्ली की तिहाड़ जेल में पारसी मूल का एक नक्सली बौद्धिक बंद है, जिसका नाम अंग्रेजी अखबारों में कोबाद घाण्डी छपता है तो हिन्दी अखबारों में कोबाड गांधी छपता है। यानी कि हिन्दी अखबारों पर अभी भी यह 'नाम भ्रम' छाया हुआ है। यदि कहीं अखबारों की कतरनें सहेज कर रखी जाती हों तो इस भ्रामक सत्य को खोजा जा सकता है।
कांग्रेस अध्यक्ष पद से इंदिरा लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक व रहस्यमयी मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बन गयीं। शास्त्री जी अपने अंतिम दिनों में कहा करते थे कि 'मैं तो 'स्टाप गैप' प्रधानमंत्री हूं, नेहरू जी मन ही मन इंदिरा को इस पद पर देखना चाहते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस के कई विभाजन किये। स्वाधीनता आंदोलन की भट्टी में तपकर निकले परम्परागत कांग्रेसियों को पार्टी से निकाल बाहर किया और अपनी पार्टी को 'इंदिरा कांग्रेस' नाम दिया। गांधी और पटेल की कांग्रेस के शव पर 'इंदिरा कांग्रेस' का अध्याय आरंभ हुआ। व्यक्ति पूजा की पराकाष्ठा ही थी कि आपातकाल में इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ को यह नारा लगाते तनिक भी शर्म नहीं आयी कि 'इंदिरा इज इंडिया' (इंदिरा ही इंडिया है)। इंदिरा संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय ले चुकी थीं, किन्तु 23 जून, 1980 को एक विमान दुर्घटना में संजय की असामयिक मृत्यु के बाद उन्हें राजनीति में आने के अनिच्छुक अपने विमान चालक पुत्र राजीव को राजनीति में घसीट कर लाना पड़ा। 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा जी की उनके ही घर में उनके ही सुरक्षाकर्मियों द्वारा निर्मम हत्या के कारण प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए राजीव इंदिरा जी की हत्या से उत्पन्न देशव्यापी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर 404 सदस्यों के अप्रत्याशित समर्थन के साथ लोकसभा में पहुंचे। वे इतने 'भविष्यदर्शी और क्षमतावान' थे कि 1989 के चुनावों में वे अपने दल को न्यूनतम बहुमत भी प्राप्त नहीं करा सके। वे अपने साथ पार्टी को भी सत्ता से बाहर ले गये।
वंशवादियों की महानता और योग्यता?
भला हो पी.वी.नरसिंह राव का कि उन्होंने पार्टी के भीतर अर्जुन सिंह और शरद पवार के विरोध को झेलकर भी इंदिरा कांग्रेस सरकार के अल्पमत में होने के बाद भी कांग्रेस जनों को पूरे पांच साल तक सत्ता का सुख भोगने का अवसर दिला दिया। उन दिनों 'राजीव की महानता' और 'सोनिया की राजनीतिक योग्यता' का उनकी वंशवादी पार्टी को बोध नहीं था। किन्तु एक दिन सोनिया ने बूढ़े सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी से धकिया कर उस पर कब्जा कर लिया और भाकपाई नेता (स्व.) हरकिशन सिंह सुरजीत के मार्गदर्शन में मुस्लिम वोट बैंक और वाम मोर्चा के कंधों पर बैठकर 2004 में केन्द्र की सत्ता पर कब्जा जमा लिया। तब अनायास राष्ट्र को पता चला कि राजीव कितने 'महान', 'भविष्यद्रष्टा', व 'योग्य प्रशासक' थे, कितने 'कुशल संगठक' थे। उनकी इस महानता का दर्शन उनकी जन्म और पुण्यतिथि पर केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों एवं सोनिया पार्टी की राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कोष से प्रसारित अरबों रुपयों के विज्ञापनों में देखा जा सकता है। अब तो जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा भी पीछे छूट गये हैं। शेष हैं केवल राजीव। अब तो केन्द्र व कांग्रेसी राज्यों की लगभग सभी योजनाओं, पुरस्कारों, प्रतियोगिताओं, सड़कों, मुहल्लों, विमानपत्तनों का नामकरण राजीव के नाम से हो रहा है। केवल उस दिन का इंतजार है जब इस देश का नाम 'इंडिया दैड इज भारत' से बदलकर 'राजीव वर्ष' घोषित होगा। 1968 में इटली पुत्री सोनिया के आगमन के साथ इस वंशवाद में विदेशी रक्त का प्रवेश भी हो गया है। लम्बे समय तक सत्तारूढ़ रहे सबसे बड़े दल के वंशवादी रूपांतरण का परिणाम समूची राजनीति पर हुआ है।
गर्व करे भाजपा
इस समय जम्मू-कश्मीर से तमिलनाडु तक लगभग प्रत्येक दल वंशवादी या व्यक्ति केन्द्रित चरित्र अपना चुका है। ऐसी स्थिति में भाजपा अकेला राजनीतिक दल है जो व्यक्ति पूजा एवं वंशवाद की बीमारी से पूरी तरह मुक्त है। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी पूर्णतया निष्क्रिय स्थिति में आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ माने जाते हैं। उनके बाद आडवाणी राजनीति के शिखर पुरुष माने गये, किन्तु पाकिस्तान यात्रा के दौरान उनके जिन्ना विषयक वक्तव्य से जो विवाद खड़ा हुआ, उस समय भाजपा के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर उन्होंने प्रमाणित कर दिया कि भाजपा व्यक्ति पूजा के रोग से मुक्त है।
भाजपा को अपने इस लोकतांत्रिक चरित्र पर गर्व होना चाहिए। जिस राजनीतिक प्रणाली के भीतर उसे काम करना पड़ रहा है, उसकी विकृत राजनीतिक संस्कृति का संक्रमण उसमें भी होना स्वाभाविक है। पर तुलनात्मक दृष्टि से उसके पास व्यक्ति पूजा से मुक्त सिद्धांत निष्ठ कार्यकर्त्ताओं का इतना बड़ा देशव्यापी संगठन उपलब्ध है कि उसे भारतीय लोकतंत्र की नींव ही कहा जा सकता है। भाजपा अपनी इस विशेषता को मीडिया व प्रबुद्ध वर्ग के सामने रेखांकित करने की दिशा में कोई योजनाबद्ध प्रयास करती दिखायी नहीं देती। इस प्रयास के अभाव में मीडिया उसके लोकतांत्रिक चरित्र को मतभेदों एवं टकरावों और वंशवादी अधिनायकवाद को अनुशासन के रूप में प्रस्तुत करता है। जब तक भाजपा नेतृत्व एक स्वर से मीडिया के सामने लोकतंत्र बनाम वंशवाद को केन्द्रीय मुद्दा नहीं बनायेगा तब तक मीडिया का दृष्टि परिवर्तन नहीं होगा और वह सभी परिप्रेक्ष्य में घटनाओं व व्यक्तियों को नहीं देख पायेगा। भारतीय राजनीति का इस समय केन्द्रीय प्रश्न एक ही है लोकतंत्र बनाम वंशवाद। इस सत्य को पहचानना बहुत आवश्यक है।
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