|
राजनीतिक पूर्वाग्रह हावी
ऐसे में जरूरत थी 'सोशल मीडिया' का दुरुपयोग करने वाले साजिशकर्ताओं, राष्ट्रविरोधियों, देशद्रोहियों, साइबर अपराधियों और असामाजिक तत्वों की हरकतों पर अंकुश लगाने की। सरकार ने पाकिस्तान आधारित कुछ 'वेबसाइटों', 'ब्लॉगों', 'सोशल नेटवर्किंग खातों' और 'ट्विटर हैंडल्स' का पता भी लगाया, लेकिन जब ऐसे तत्वों पर पाबंदी लगाने का मौका आया तो उसकी कार्रवाई राजनीतिक पूर्वाग्रहों की शिकार हो गई। परिणाम सामने है। सरकार ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग के सिलसिले में जिन 309 वेब ठिकानों को प्रतिबंधित किया है, उनमें सीमा पार के साइबर आतंकवादी और भारत में सक्रिय असामाजिक तत्व तो हैं ही, दर्जनों ऐसे संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं और प्रतिष्ठित लोगों से जुड़े वेब ठिकाने भी शामिल हैं जिनका पूर्वोत्तरवासियों के प्रति अफवाहें फैलाने या विष-वमन से दूर-दूर तक का संबंध नहीं है। बल्कि इनमें से कई तो ऐसे हैं जो 'सोशल मीडिया' पर जारी कुकृत्यों के विरुद्ध लोगों को जागरूक बना रहे थे और पूर्वोत्तरवासियों को भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक सुरक्षा मुहैया कराने की मुहिम में जुटे थे। 'पाञ्चजन्य' भी उनमें से एक है।
विश्वास नहीं होता कि भारत की राष्ट्रीयता, एकता और सामाजिक सद्भाव के विरुद्ध साजिश रचने वालों को सबक सिखाते समय भी सरकार राजनीतिक पूर्वाग्रहों की शिकार हो सकती है। असम हिंसा के बाद से ही संघ परिवार के संगठन, पत्र-पत्रिकाएं और कार्यकर्ता पीड़ित लोगों को राहत पहुंचाने के काम में नि:स्वार्थ भाव से जुटे हुए हैं। बंगलूरु, पुणे जैसे शहरों से पूर्वोत्तर की ओर पलायन करते लोगों को मदद, दिलासा और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा देने में इन संगठनों की अग्रणी भूमिका रही। अपने प्रकाशनों और वेब माध्यमों से भी उन्होंने भयभीत पूर्वोत्तरवासियों के बीच विश्वास का वातावरण पैदा करने का प्रयास किया, उन्हें अकेलेपन की भावना से मुक्त करने की कोशिश की। समरसतापूर्ण वातावरण में विष घोलने वाले षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध किए जाने वाले हर प्रयास को उनका सक्रिय समर्थन था, लेकिन जब कार्रवाई की बारी आई तो अपराधियों के साथ-साथ अपराध के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को भी निशाना बना दिया गया!
दुर्भावना नहीं तो क्या?
पाञ्चजन्य अकेला प्रकाशन नहीं है जो सरकारी दमन का शिकार हुआ है। प्रतिबंधित किए जाने वाले वेब ठिकानों की सूची में टाइम्स ऑफ इंडिया, डेली टेलीग्राफ (इंग्लैंड), एबीसी (आस्ट्रेलियाई टेलीविजन), अल जजीरा, दैनिक भास्कर और ऑलवायसेज जैसे संस्थानों की 'वेबसाइट्स' या उनके कुछ खास वेबपृष्ठ शामिल हैं। अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक 'पायनियर' से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार कंचन गुप्ता और अंग्रेजी टेलीविजन चैनल 'हैडलाइन्स टुडे' के सह संपादक शिव अरूर के ट्विटर पृष्ठ भी प्रतिबंध के शिकार हुए। कौन विश्वास करेगा कि इतने प्रसिद्ध, स्थापित और महत्वपूर्ण प्रकाशनों और प्रतिष्ठित अनुभवी पत्रकारों ने किसी तरह का गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव किया होगा?
इस कार्रवाई से असली अपराधियों को कितना फर्क पड़ेगा, यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इससे ज्यादातर लोगों के बीच यह संदेश गया है कि सरकार एक सामाजिक और तकनीकी समस्या की आड़ में राजनीतिक हिसाब-किताब चुकता करने की कोशिश कर रही है। उसके भीतर स्वस्थ आलोचना को बर्दाश्त करने की क्षमता खत्म हो रही है। इस सरकारी उग्रता के पीछे एक के बाद एक सामने आ रहे विवाद, घोटाले और समस्याएं हो सकती हैं जिन्होंने संसद के भीतर और बाहर सत्तारूढ़ गठबंधन की नींद हराम कर रखी है। लेकिन लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है, भले ही वह किसी को राजनीतिक तौर पर सुविधाजनक महसूस हो या नहीं।
आज भारत में 'वेब सेंसरशिप' जैसी आशंकाएं उठने लगी हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की छवि यदि लोकतंत्र विरोधी की बन रही हो तो उससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा! ट्विटर पर 'इमरजेंसी 2012', 'क्या केंद्र सरकार पागल हो गई है', 'जीओआई ब्लॉक्स' जैसे समूह बनाकर लोग अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। 'सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स' पर भी लोगों का गुस्सा दिख रहा है और मुख्यधारा के मीडिया में भी अभिव्यक्ति की आजादी पर पैदा हुए इस नए खतरे से जुड़ी सुर्खियां दिखाई दे रही हैं।
बेपरवाह सरकार
लेकिन सरकार बेपरवाह दिखाई देती है। उसके लिए यह नई बात नहीं है। वह पहले भी कई बार ऐसे कदम उठा चुकी है जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की अपेक्षा चीन जैसे एकदलीय, निरंकुशतावादी राष्ट्र के लिए ज्यादा अनुकूल माने जाएंगे। मिसाल के तौर पर गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और ट्विटर को दिया गया यह निर्देश कि वे अपनी 'साइटों' पर आम लोगों द्वारा डाली जाने वाली हर सामग्री की पहले खुद समीक्षा करें और उसके बाद ही उसे 'साइट' पर डालें।
देश में पंद्रह-बीस करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं और अकेले फेसबुक के करीब पांच करोड़ सदस्य हैं। उनके द्वारा डाली गई सामग्री को 'वेबसाइट' के संचालक कैसे एक-एक कर देख-परख सकते हैं? इसी तरह गूगल पर दिखाए जाने वाले अरबों खोज परिणामों में से हर एक की गुणवत्ता का निर्धारण कैसे किया जा सकता है? इंटरनेट इतना बड़ा माध्यम है कि इस पर मौजूद सामग्री को यदि किताबों के रूप में छाप कर उन्हें एक के ऊपर एक रखा जाए तो धरती से मंगल ग्रह तक की दो इमारतें खड़ी हो सकती हैं। इतने बड़े इंटरनेट की छानबीन करना संभव ही नहीं है। अगर सरकार ऐसा नहीं मानती तो या तो वह बेहद अनभिज्ञ है या फिर उसके असली मंसूबे कुछ और हैं। भारत इंटरनेट का नियंत्रण संयुक्त राष्ट्र को सौंपे जाने संबंधी प्रस्ताव का भी समर्थन कर रहा है। हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता और सामाजिक सद्भाव को बचाए रखने के लिहाज से 'ऑनलाइन' माध्यमों पर दुर्भावनापूर्ण सामग्री की निगरानी का कोई न कोई जरिया जरूर निकाला जाना चाहिए, लेकिन उसका व्यावहारिक होना जरूरी है।
यह समाधान नहीं
भारत में तकनीकी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है और सरकार के पास संसाधनों का भी कोई अभाव नहीं है। इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रेस्पोन्स नेटवर्क, नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) और आईबी, सीबीआई तथा विभिन्न राज्यों की पुलिस के साइबर सुरक्षा प्रकोष्ठों की मौजूदगी के बावजूद वह इंटरनेट के जरिए किए जाने वाले अपराधों की रोकथाम का असरदार तंत्र बनाने में नाकाम रही है। वह कानून-सम्मत और नीति-सम्मत निगरानी के लिए व्यावहारिक तथा असरदार तकनीकी जरियों का विकास भी नहीं कर सकी। उल्टे, वह इंटरनेट कंपनियों पर अव्यावहारिक नियंत्रणों की दिशा में बढ़ रही है या फिर ऐसे संगठनों या संस्थानों को बलि का बकरा बनाने पर तुली है जिनका इस समस्या के निर्माण में कोई योगदान नहीं है। ऐसे कदमों से प्रचार तो हासिल हो सकता है, डर भी फैलाया जा सकता है, लेकिन समस्या का समाधान नहीं होता।
साइबर अपराध, साइबर युद्ध और साइबर आतंकवाद से जुड़े मामलों की जांच में आज भी हम आत्मनिर्भर नहीं हैं और अमरीका या दूसरे देशों की मदद लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं। .. और यह तो प्रतिक्रियात्मक (रिएक्टिव एक्शन) कार्रवाई की स्थिति है, जिसकी जरूरत अपराध हो जाने के बाद पड़ती है। अपराध होने से पहले की एहतियाती सतर्कता (प्रोएक्टिव एक्शन) के नाम पर तो कोई ढांचा मौजूद ही नहीं है। यदि ऐसा होता तो शायद हम बहुत सी आतंकवादी घटनाओं को भी रोक पाते और दक्षिण भारतीय शहरों से पूर्वोत्तरवासियों के पलायन की ताजा घटनाओं को भी रोक पाते। पिछले कुछ महीनों के दौरान भारत में 'इंटरनेट मॉनिटरिंग एजेंसी' और साइबर कमान बनाने के प्रस्ताव आए हैं, लेकिन इनकी सफलता के लिए सबसे जरूरी है शीर्ष स्तर पर इन नए माध्यमों और नई चुनौतियों के बारे में सही समझ-बूझ होना।
धरी रह गईं सिफारिशें
भारत में आईटी सेवा प्रदाता कंपनियों के संगठन 'नासकॉम' की ओर से नियुक्त साइबर सुरक्षा सलाहकार समूह ने अप्रैल 2012 में साइबर खतरों से निपटने के लिए सरकार से दस अहम सिफारिशें की थीं। इनमें साइबर सुरक्षा पर राष्ट्रीय ढांचा बनाने, सरकार में शीर्ष स्तर पर साइबर सुरक्षा के जिम्मेदार व्यक्ति का पद सृजित करने, साइबर सुरक्षा बल निर्मित करने, साइबर खतरों से जुड़ी गुप्तचरी के लिए अलग एजेंसी बनाने, साइबर जांच एजेंसी, साइबर फोरेन्सिक संबंधी एजेंसी बनाने और लोगों को साइबर सुरक्षा के लिए जागरूक बनाने वाले तंत्र की स्थापना के सुझाव दिए थे। यदि सरकार के स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पर्याप्त सक्षमता नहीं है तो इसके लिए निजी क्षेत्र को साथ लेकर आगे बढ़ने में कोई बुराई नहीं है। यदि संकल्प और दृष्टि हो तो साइबर चुनौतियां भी अजेय नहीं रहेंगी।
उसके बिना बड़े-बड़े लक्ष्य बना लेने और दूसरों को दोषी ठहराते रहने से समस्या हल नहीं होने वाली। उल्टे वेब माध्यमों को स्वच्छ बनाने की मुहिम खुद सरकार और समाज पर भारी पड़ती रहेगी। इस बार भी तो यही हुआ है जब सरकार ने 'सोशल मीडिया' की कमियों और सीमाओं पर सर्वानुमति बनाने और उनके समाधान का अच्छा मौका खो दिया है।
टिप्पणियाँ