एक बालक था, नाम था कालिदास। इसको कहीं महाकवि कालिदास न समझ लेना। पटना के बाबू रामदास का पुत्र था। रामदास सरकारी नौकरी में ऊंचे पद पर थे। उसमें एक सद्गुण यह था कि सदा सच ही बोलता था। वह कहता था- 'झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं है।' यही उसने पुस्तकों में पढ़ा था और यही उसने बड़े-बूढ़ों तथा अपनी मां की गोद में बैठकर सुना था और पक्का विचार बना लिया था कि भूलकर भी झूठ न बोलूंगा, न झूठे व्यक्तियों का साथ दूंगा क्योंकि गलत लोगों के साथ से भी बुराई आती है।
बाबू रामदास ने घर के बाहर बड़ी सुन्दर फुलवारी लगा रखी थी। किसी को कोई फूल छूने, तोड़ने न देते थे। कठोर निषेध था। उस समय उनका पुत्र कालिदास पांच वर्ष का था। घर में एक नौकरानी थी। वह कालिदास को बाहर टहलाने ले गयी तो बालक ने हठ करके फुलवारी से बुलाब के सारे फूल तोड़ डाले और घर ले आया। फूल एक स्थान पर छोड़कर वह कमरे में चला गया। रामदास उधर गये तो फूल देखकर क्रोध से भर उठे। लगे नौकरानी को डांटने-फटकारने। नौकरानी चुप। तभी पिता की ऊंची आवाज सुनकर बालक कालिदास दौड़ा आया। देखा- नौकरानी डांटी जा रही है, जबकि उसकी गलती नहीं थी। बोल उठा- 'पिताजी! फूल इसने नहीं तोड़े, इसने तो मना किया था, पर मैं तोड़ता जा रहा था।' पिता बोले- 'अरे कोई बात नहीं बेटे! तुम ऐसे ही सदा सच बोलना। इस सच के सामने ये फूल कोई मूल्य नहीं रखते। सच्चाई बड़ी वस्तु है। तुम्हारे सच बोलने से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई, बड़ी शान्ति मिली।' फिर कुछ सोचकर कहा- 'आज से तुम्हें मैं सत्यव्रत नाम से पुकारूंगा।' आगे सब लोग उसे इसी नाम से बुलाते। वह पढ़-लिखकर इतना बड़ा विद्वान हुआ कि आज भी पं. सत्यव्रत सामश्रमी के नाम से स्मरण किया जाता है। यह सच्चाई का सुफल था।वचनेश त्रिपाठी
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