अन्य देशों के मुकाबले भारत एक युवा देश
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इन्दिरा मोहन
अन्य देशों के मुकाबले भारत एक युवा देश है। पिछले दो दशकों में हमारे युवाओं ने शिक्षा, खेल, विज्ञान, मीडिया आदि विभिन्न क्षेत्रों में नए कीर्तिमान गढ़े हैं, किन्तु उनमें से एक ऐसा वर्ग भी उभर रहा है जो नैतिक मूल्यों, अनुशासन, आस्था और मर्यादा की उपेक्षा कर अपने पुरुष होने के कुत्सित अहंकार को सड़क पर दिखाता हुआ यौन हिंसा, अश्लीलता और निर्लज्जता में संलग्न है। यह वर्ग सड़कों, सिनेमाघरों, बाजारों में खुले घूमता हुआ युवती की देह पर अपनी भोग दृष्टि की बौछार करता हुआ, उसे छेड़ता हुआ 'फिल्मी स्टाइल' में चलना, सीटी बजाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। वह यह भूल जाता है कि उसकी भी मां है, बहन है, भाभी-चाची-ताई हैं, जिन्होंने उंगली पकड़कर उसे चलना सिखाया है, बोलना सिखाया है। खुलेआम उसका यह अनैतिक व्यवहार केवल किसी युवती के ही विरुद्ध नहीं वरन् सामाजिक मान-मर्यादाओं के विरुद्ध है। ये वे लोग हैं जो राह चलती किसी लड़की पर तेजाब फेंकते हैं, उसका अपहरण करते हैं और फिर इज्जत के साथ खेलते हैं। यहां तक कि छोटी-छोटी बच्चियां तथा वृद्धा भी सुरक्षित नहीं हैं।
गुवाहाटी हो या फिर गुड़गांव, गुंडागर्दी बढ़ती ही जा रही है। कुछ दिन पहले की घटना है गुवाहाटी के व्यस्ततम इलाके में एक 17 वर्षीया छात्रा के साथ भीड़ की सरेआम बेहूदगी ने पूरे देश को शर्मसार किया। इसके बाद गुड़गांव, दिल्ली, फरीदाबाद, चण्डीगढ़, लखनऊ, हैदराबाद आदि नगरों में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाएं घटी हैं। पिछले ही सप्ताह फरीदाबाद में एक युवती के साथ कई घंटे तक कई लड़कों ने सामूहिक बलात्कार किया। दूसरी घटना दिल्ली की है। बेटी पर छींटाकशी करने से मना किया तो तीन युवकों ने पिता पर लाठी-डंडे व सरिया से वार कर दिया। बीच-बचाव करने पर हमलावर युवकों ने बेटी और पत्नी को भी घायल कर दिया। उम्र की कच्ची डाल पर खिला फूल यदि मुरझा जाता है, तो वह उस फूल का दोष नहीं है, पौधे का दोष है जो उसे उचित पोषण और संरक्षण नहीं दे सका।
क्या मोहल्ले की महिलाएं एकजुट होकर अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिये असामाजिक तत्वों की खिलाफत नहीं कर सकतीं? इस तरह की चुप्पी मनचलों को बढ़ावा देती है। ऐसे लोग हमारी कमजोरी से ही पनपते हैं। ये इस बात से निडर रहते हैं कि इनके खिलाफ कोई नहीं बोलने वाला, सब अपने घरों में दुबके बैठे हैं। लेकिन जरा से विरोध पर ये दुम दबा कर भागते हैं।
यदि ऐसे उन्माद को, अनुशासन-हीनता को रोकने की बजाय, उन खतरों की छानबीन करने की जगह उन्हें केवल चटकारे लेकर पढ़ने के बाद, आए-गए ढंग से रफा-दफा कर दिया गया तो समस्या पर जमी धुंध छंटेगी कैसे, समाज को रोशनी मिलेगी कैसे? कहां से इनका समाधान ढूंढा जा सकेगा? इन प्रश्नों को न तो हल्केपन से देखना चाहिए, न हल्केपन से निबटना चाहिए। कड़ी से कड़ी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।
हम केवल शरीर बन कर नहीं जी सकते। हर व्यक्ति के दो आयाम हैं- उसका शरीर और उसकी चेतना। इन दोनों आयामों को विकास का समान अवसर देकर दोनों को परिपूर्ण बनाना है।
बेटे-बेटी को मानवता के समान संस्कार देकर इस अहं और हीनता की खाई को मां ही समाप्त कर सकती है। माता की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह देखे उसका लाड़ला कहां जाता है? किनके साथ उठता-बैठता है? आज परिवार सीमित हो गये हैं। अत: बेटा-बेटी दोनों को ही अपनी आंख का तारा मानना होगा। अब परम्परा की दुहाई देकर एक को चुप करना और दूसरे को जीविकोपार्जन का साधन समझ कर बढ़ावा देना उचित नहीं, क्योंकि युवतियां भी हर क्षेत्र में आगे से आगे कदम मिला कर बढ़ रही हैं। दोनों को ही विकास के समान अवसर देने होंगे। दोनों को ही घर-बाहर, रसोई-दफ्तर की जिम्मेदारी को भली प्रकार निभाने का प्रशिक्षण देना होगा। अन्यथा हम कहीं के भी नहीं रहेंगे, न पूर्व के न पश्चिम के।
बदलते समय के अनुकूल हमें अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदलनी होगी। अब युवती दोयम दर्जे की नागरिक नहीं। उसमें भी प्रतिभा है, योग्यता है, सामर्थ्य है। जीवन की हर चुनौती को स्वीकारने का साहस भी है। कई बार लगता है कि युवती का यह आत्मविश्वास ही पुरुष की आंखों की किरकिरी बन रहा है, क्योंकि चाहे दसवीं, बारहवीं कक्षा का परिणाम हो अथवा आई.ए.एस., आई.आई.टी., हर क्षेत्र में युवतियां अपनी उपस्थिति शान से दर्ज करवा रही हैं। वे मात्र देह नहीं हैं। वे भी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय हैं। संविधान ने उन्हें समान अधिकार दिये हैं। उनका भी अपना व्यक्तित्व है, अपनी रुचियां हैं, इच्छाएं हैं। वह भी मानव हैं, मानव की जन्मदात्री भी हैं और जीवन साथी भी। नारी अपने लिबास, खानपान, बोलचाल, नौकरी व्यवसाय के लिए स्वतंत्र है। वह केवल उपभोग की वस्तु नहीं। किसी भी व्यवस्था में पुरुष उसका दुरुपयोग नहीं कर सकता। इसलिए उसे मात्र देह समझना, देह का दोहन करना, केवल उसे भोग की वस्तु समझना उसके प्रति भीषण अत्याचार है। उसके व्यक्तित्व की अलग पहचान है। उसे पूरा सम्मान मिलना ही चाहिए।
प्रश्न यह नहीं है कि कौन झुकता है, कौन झुकाता है। यह सोच ही सिरे से गलत है। नारी-पुरुष, युवक-युवती दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वन्द्वी नहीं। यदि पुरुष नारी की अवहेलना करता है और उसके प्रति अत्याचारी है तो सही मायने में वह संस्कार-हीन है, अविकसित है, पशु है। उसे अपनी हीनताओं और कुंठाओं से मुक्त होना होगा तथा अपनी नैतिक जिम्मेदारी को पहचानना होगा। इस प्रकार की अनैतिक घटनाओं के लिए युवती को ही दोषी ठहराना उचित नहीं। उसके व्यक्तित्व एवं उसकी स्वतंत्रता को दोषी ठहराने की जगह युवक वर्ग के दोगले चरित्र को उजागर करने की जरूरत है।
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