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प्रधानमंत्री के संदेश की

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Aug 20, 2012, 12:00 am IST
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प्रधानमंत्री के संदेश कीपारंपरिक औपचारिकता

दिंनाक: 20 Aug 2012 12:05:14

मतिर्दोलायते सत्यं सतामपि खलोक्तिभि:

अवश्य ही कभी-कभी दुष्टों की बातों से सज्जनों की भी बुद्धि चंचल हो जाती है।    –नारायण पंडित (हितोपदेश, 4/54)

पारंपरिक औपचारिकता

15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम संदेश देकर प्रधानमंत्री ने एक और पारंपरिक औपचारिकता पूरी कर दी। उन्होंने देश की जनता को अपनी सरकार की कोई ठोस उपलब्धियां बताकर जनमन में उमंग–उत्साह जगाने की बजाय देश की राजनीतिक–आर्थिक विसंगतियों का ठीकरा राजनीतिक मतभेदों के नाम फोड़ा है कि इस सबके लिए आम सहमति न बन पाना दोषी है। डा.मनमोहन सिंह खुश हो सकते हैं कि उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से झंडा फहराने के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के रिकार्ड की बराबरी कर ली और वे इस क्रम में तीसरे प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन उनके शासन में हर मोर्चे पर देश किस तरह गर्त्त में जा रहा है और देश में सरकार नाम की कोई संज्ञा प्रभावशील नहीं दिखती, इसका रिकार्ड भी शायद उन्हीं के नाम हो। आर्थिक सुस्ती के प्रति चिंतित प्रधानमंत्री ने देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर रहे कालेधन का नाम एक बार भी अपने भाषण में नहीं लिया, तो वे उसके विरुद्ध कार्रवाई क्या करेंगे? इससे साफ जाहिर है कि सुरसा की तरह बढ़ रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह सरकार उदासीन है। वे आर्थिक तरक्की की रफ्तार रोकने के लिए राजनीतिक मतभेदों को जिम्मेदार बता रहे हैं, लेकिन कांग्रेस के दलगत पूर्वाग्रहों के कारण किस तरह राजनीतिक विद्वेष को बढ़ावा दिया जा रहा है और जानबूझकर लोकतांत्रिक मर्यादाओं को लांघकर प्रमुख विपक्षी दल के नेताओं को अपमानित किया जा रहा है तो आम सहमति कैसे बनेगी, जबकि आम सहमति बनाने के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने की जिम्मेदारी तो मुख्यत: सरकार पर आती है, लेकिन उसका आचरण पूरी तरह अलोकतांत्रिक है।

प्रधानमंत्री आर्थिक सुस्ती को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बता रहे हैं, लेकिन देश के समक्ष खड़ी आर्थिक मुश्किलें संप्रग सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। सरकार भारत की आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने और फैसले लेने की बजाय विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में निर्णय ले रही है। परिणामत: लगातार महंगाई बढ़ रही है। पिछले साल की तुलना में जुलाई 2012 में खाद्य महंगाई दर 10.06 प्रतिशत तक बढ़ गई, जबकि वास्तविक कीमतें तो दुगुने से भी ज्यादा बढ़ गई हैं। जून 2012 में औद्योगिक उत्पादन 1.8 प्रतिशत के नकारात्मक स्तर तक गिर गया। निर्यात का आंकड़ा जुलाई में 15 प्रतिशत तक नीचे आ गया और डालर के मुकाबले लगातार रुपये की जो दुर्दशा देखने में आई वह किसी भी राष्ट्र के आर्थिक स्वाभिमान पर गहरी चोट कही जा सकती है। उसका गिरता स्तर सुधारने के लिए सरकार ने कोई ठोस प्रयास नहीं किया।

प्रधानमंत्री आर्थिक सुस्ती को तो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा मान रहे हैं, लेकिन इस सरकार की लचर और घुटनाटेक पाकिस्तान नीति व जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध प्रखर राष्ट्रवाद की बजाय मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने जितना गंभीर खतरा देश की संप्रभुता व एकता-अखंडता के लिए पैदा कर दिया है, उसकी तरफ उनका ध्यान नहीं है। हाल ही में असम में बंगलादेशी घुसपैठियों के द्वारा जो हिंसक कहर ढाया गया है, और उनके पैरोकारों द्वारा जिस तरह मुम्बई में भीषण उपद्रव किया गया, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए असली खतरा यह है। इसके बारे में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कोई चिंता या गंभीरता नहीं दिखाई। देश में फैले 4 करोड़ से ज्यादा बंगलादेशी घुसपैठिये किस तरह देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं, इसका ठोस समाधान तलाशने की बजाय सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस मुस्लिमपरस्त वोट-राजनीति में उलझी है। गरीबों को मुफ्त इलाज, हर घर में बिजली व हर एक व्यक्ति का बैंक खाता जैसे लोक-लुभावन वादे अब देशवासियों को उल्लसित नहीं करते, क्योंकि उन्हें पिछले वर्षों में इसी प्राचीर से किए गए वादों का हश्र पता है। जनता अब किसी मुगालते में नहीं है।

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