खुद्दारी का सम्मान-मृदुला सिन्हा
July 11, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • धर्म-संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

खुद्दारी का सम्मान-मृदुला सिन्हा

by
Aug 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 16 Aug 2012 19:51:54

 

दोनों भाइयों, रमण और सारस्वत के घर तो लक्ष्मी ने पूरे साज-बाज के साथ मानो स्थायी निवास बना लिया हो। इसलिए तो दो कमरे के फ्लैट से निकलकर चार कमरों के फ्लैट, स्वतंत्र कोठी और अब दोनों फार्म हाउस की हवेलीनुमा कोठियों में ही लक्ष्मी के साथ निवास कर रहे हैं। उनके जीवन में व्यापार ने कुछ ऐसी राहें पकड़ीं कि ऊपर ही ऊपर चढ़ती गईं लक्ष्मी। कभी भूल से भी किसी सीढ़ी पर न रुकी, न पीछे मुड़कर देखा। रमण और सारस्वत के फार्म हाउस आसपास ही हैं। दोनों भाइयों में मेल-मिलाप और देवरानी-जेठानी में साथ-साथ उठना-बैठना भी खूब है।

उस दिन दोनों परिवार रमण के घर खाने की मेज पर बैठे थे। बच्चे आपस में खेलते कूदते रहे। रमण ने कहा- 'सारस्वत। तुम कल दरियागंज जाकर मां को ले आओ। मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि हम लोग इतनी बड़ी-बड़ी कोठियों में ऐशोआराम के साथ रहें और मां अब भी उस गंदे इलाके के छोटे से अंधेरे कबूतरखाने में पड़ी रहें। मुझे खबर लगी है कि मां बीमार हैं। उन्हें वैसी जगह में नहीं रहना चाहिए। उन्हें ले आओ। अच्छे नर्सिंग होम में भर्ती कराओ। उनके स्वस्थ होने पर हम उन्हें अपने पास ही रखेंगे। थोड़ी जबर्दस्ती करनी होगी। वे भी तो हमारे बचपन में कभी-कभी जबर्दस्ती करती थीं।'  

सारस्वत भी तो यही चाहता था। मानो भैया ने उसके मन की बात कह दी। मोनिका और तानिया को भी भा गया प्रस्ताव। दोनों अपनी सास को बहुत चाहती थीं। सारस्वत को चुप देख रमण ने कहा- 'तुम नहीं जाओगे तो मैं ही कल जाता हूं। लगता है उनके फोन की लाइन भी कट गई। सुभाष ने बिल ही नहीं भरा होगा। खाने के लिए पैसे नहीं और स्वाभिमान ऐसा कि पूछो मत! भाई से पैसे नहीं लेंगे। अरे कैसा घमंडी है! मैं इसे स्वाभिमान नहीं, अभिमान कहता हूं। मैं तो देख रहा हूं कि बिना पैसे वाले अधिक अभिमानी और जिद्दी होते हैं। तभी तो लक्ष्मी भी उनके घर आने से कतराती हैं।'

रमण अपने छोटे भाई सुभाष पर झल्ला रहा था। 'भैया! मैं इसलिए तो चुप हूं। मां सुभाष को छोड़ नहीं सकतीं। मैं जाऊं भी और वे न आएं तो ।़ ।़।' सारस्वत बोला।

'फिर देखा जाएगा। हम भी उनसे नाता तोड़ लेंगे। समझेंगे मां…..।'

'अरे! आप भी क्या से क्या बोल जाते हैं।' मोनिका ने पति को डपटा। फिर देवर की तरफ मुखातिब होकर कहा-'सुभाष या मां से बिना बात किए आप लोग अटकल क्यों लगाते हैं? आप दोनों भाइयों ने सुभाष को डांट-फटकार के सिवाय दिया ही क्या है। आप लोगों को तो उसे अपना छोटा भाई बताने में भी शर्म आती है। गुड़गांव के समाज में आपने कभी बताया कि आपका भाई पटरी पर बनियान और तौलिए की दुकान लगाता है। कभी मान-मनौव्वल से अपने पास रहने के लिए भी तो नहीं बुलाया। आशीष बहुत दूर के रिश्ते का भाई है। पर आप दोनों से धन कमाने में आगे बढ़ गया। हम लोग अपने समाज में उसे अपना 'कजन' बताते नहीं थकते।'

'ऐसा कुछ नहीं है। आशीष हमारे पास आता है। सुभाष नहीं।' रमण ने कहा।

'नहीं! मैं नहीं मानती। दरअसल आप दोनों भाई अपना कारोबार बढ़ाने में इतने तल्लीन रहे कि पीछे मुड़कर देखा ही नहीं। दरियागंज, चांदनी चौक, कनॉट प्लेस पीछे छूटता गया। दिल्ली और नई दिल्ली भी छूट गई। हम गुड़गांव आ गए। 'मेगा सिटी' में रहने लगे। दरियागंज जाना भी हमारे लिए दुश्वार हो गया। फिर उन दोनों को क्यों   दोष दें।'

'ठीक है। जो हुआ सो हुआ। सारस्वत, तुम कल सुबह जाकर मां को ले आओ।' रमण उठ गए थे।

मोनिका ने कहा- 'मैं भी जाऊंगी। मां जी को मनाना अकेले सारस्वत के बस की बात नहीं। और मुझे भी उस जगह जाना सुखद लगता है। आखिर मैं ब्याह कर उसी घर में आई थी न! उसी तंग गली में बने छोटे घर की चौखट लांघी थी। दोनों बेटों का जन्म वहीं हुआ। वह घर था। वहां से निकलने पर तो फ्लैट और आवासों में रहने लगी हूं। पर मुझे उस घर की बहुत याद आती है। मैं भी जाऊंगी।'

मोनिका के भाव मुखर हो गए थे। रमण ने कहा-'हां, हां! तुम दोनों भाभी-देवर चले जाओ।'

दोनों बहुओं ने रात्रि भोजन पर ही बच्चों को बता दिया- 'कल दादी आने वाली हैं।'

'फिर तो कल स्कूल से हमारी छुट्टी।' चारों उछल पड़े।

'क्यों! स्कूल से क्यों छुट्टी? तुम लोगों के स्कूल से लौटने के बाद ही वे आएंगी।' मोनिका ने कहा।

'जब शानू की नानी आई थीं तो वह दो दिनों तक स्कूल नहीं आई। जब आई तो कई दिनों तक नानी के साथ बिताई घड़ियों की कथा हमें सुनाती रही। हमें भी सुन-सुन कर बड़ा आनंद आया। हमें भी दादी के साथ रहे बहुत दिन बीत गए। मजा आ जाएगा।'

सुमि के कथन पर आनंद का लेप था। मोनिका का फरमान था- 'नहीं! तुम लोग स्कूल नहीं छोड़ोगे। दादी के आने पर भी नहीं। और तुम लोगों की दादी अब हमेशा के लिए हमारे साथ रहने आएंगी, कोई एक-दो दिनों के लिए नहीं।'

बच्चे खुश हो गए। स्कूल बस में बैठे वे दादी के साथ पिछले दिनों बिताए क्षणों की स्मृति ताजा कर दूसरे बच्चों को भी उनकी दादी-नानियों की याद दिलाते रहे।

इधर मोनिका और सारश्वत ने दरियागंज जाने की तैयारी कर ली। समय ऐसा चुना जब सड़कों से उतर कर लोग घरों में समा गए हों। एक बार तो वह गली पहचानना भी सारस्वत के लिए मुश्किल हो गया, जिसका इंच-इंच वह कई-कई बार नाप चुका था। गोलचा सिनेमा हॉल के पीछे के तंग इलाके की संकरी गली को कभी क्रिकेट का, तो कभी फुटबाल का मैदान बनाकर अपनी स्मृति पर भिन्न-भिन्न पहचान देता रहा था। कंधे से कंधा मिलाए खड़े मकानों के बीच कोना ढूंढ लुका-छिपी खेलता रहा था। भला हो उस बुजुर्ग ड्राइवर का, जिसे उस गली की पक्की पहचान थी। रात्रि के नौ बजे थे। अचानक दोनों का आगमन घर वालों को भी चौंका गया। जेठ-जेठानी को देख विभा के चेहरे पर चमक आ गई।  पालथी मारे जमीन पर बैठा सुभाष थाली से रोटी और सब्जी का निवाला उठाए, अपने मुंह तक ले जाने के क्रम को अंजाम देता रहा। हिला तक नहीं। तंग जगह में दो मोढ़े डालकर विभा ने कहा- 'बैठिए भाभी। बैठिए भाई साहब। मैं अभी पानी लाई।'

'नहीं! हमें पानी नहीं चाहिए। गाड़ी में बिसलरी बोतल रहती है। अभी पीकर आया हूं।' सारस्वत बोला।

अपना कार्य पूरा करता सुभाष तिरछी निगाहों से दोनों को देखता रहा। अंतिम निवाला मुंह में डाल, मानो लोटे भर पानी के साथ निगल गया। हाथ-मुंह धोकर आया। भाई-भाभी के पांव छुए। बोला-'इतनी रात गए? वह भी अचानक? उधर सब ठीक   तो है?'

'हां! उधर सब ठीक है। पर इधर तो न बाहर न भीतर, कुछ भी ठीक नहीं। सुना, मां की तबियत बहुत खराब है। हम उन्हें लेने आए हैं। और भैया ने कहा है कि आप लोगों के लिए भी उचित है कि हमारे पास आ जाएं।'

सारस्वत का अंतिम वाक्य आज्ञा स्वरूप ही था। सुभाष विभा की ओर देखने लगा। विभा शर्बत के दो ग्लास बना लाई थी। जल की हल्की लालिमा साक्षी थी कि विभा ने शर्बत की बोतल से उसकी अंतिम बूंद भी निचोड़ ली थी। पेय बनाने में देरी होने का कारण भी यही था। भरी बोतल उदारता से दान करती है। पर खाली बोतल से बूंद-बूंद निकालने में मानो बोतल आनाकानी करती है।

'मां कहां हैं?' सारस्वत ने पूछा और बरामदे में रखे सामान को लांघता, टकराता उस कमरे की ओर बढ़ा जहां उसे अंधेरे में मां के लेटे होने का अंदाज था।

विभा बोली- 'भैया! मां वहां नहीं हैं। उन्हें आज ही जयप्रकाश नारायण हॉस्पीटल में भर्ती किया है। बड़ी बेटी शालू को उनके पास छोड़कर अभी कुछ देर पहले ही ये लौटे हैं। आज पटरी पर दुकान पर आशीष बैठा है। अब आता ही होगा। आप बैठिए तो।'

'कहां रखा है मां को? जनरल वार्ड के नरक में? जिन्दा हैं या लाश? नालायक कहीं का! हत्यारा। मार दिया मां को। हमें खबर तक नहीं दी। मां तुम्हारे पास रहने की जिद करती हैं इसका मतलब यह नहीं कि हम मर गए।' चिल्लाया सारस्वत।

मोनिका ने कहा-'आप शांत रहिए।' वह छोटे देवर की ओर मुड़ी- 'सुभाष जी। बताइए कहां हैं मां?'

'भाभी! भैया ने सही अनुमान लगाया। मां हॉस्पीटल के जनरल वार्ड के 22 नं. बेड पर हैं। पर अभी हमारे लिए जिन्दा हैं। लाश नहीं बनीं। अभी वे हमारे लिए जिन्दा रहेंगी।' सुभाष भाई की ओर ही देख रहा था। झटक कर बाहर निकल रहे सारस्वत का सिर चार फुट ऊंचे दरवाजे की चौखट से टकरा गया। उस स्थान पर अपना छह फुटा शरीर झुकाने का उसका अभ्यास छूट गया था।

जे.पी. अस्पताल के बेड नं. 22 पर पड़ी हुई मानव शरीर की गठरी में सारस्वत का भी हिस्सा था। या यूं कि वह स्वयं उसी गठरी का अंश था। सारस्वत के मन में यही भाव आए। उस गठरी के पैताने सोई शालू की नींद खुल गई। अपने सामने खड़ी ताई और ताऊ को देखकर वह अवाक्‌ रह गई। दोनों ने सुगंधित पेपर नेपकिन से नाक ढक ली थी। शालू ने कहा-'ताई, आप लोगों को मैं यहां बैठा भी नहीं सकती।'

'हमें बैठना नहीं है। इनकी हालत बताओ। डॉक्टर ने कब देखा? क्या कहा? ये कब सोईं?'

इतने सारे सवाल, जवाब देने के लिए अकेली जान शालू। तभी मां सुगबुगाईं। उनकी आंखें खुल गईं। कराहने लगीं। सारस्वत ने सिर पर हाथ रखा। मां ने अपनी आंखों में बेटे की पूरी काया समा ली। उन कोटरों में भरे जल का कुछ अंश बूंदें बन छलक आया।

उस वार्ड के डॉक्टर ड्यूटी रूम में जाकर ही सारस्वत को सारे सवालों के जवाब मिले थे। उसी रात भामती देवी को गुड़गांव के नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया। दूसरे दिन से बुखार उतरने लगा था। थोड़ी बहुत ताकत आने में पांच-छह दिन तो लग ही गए। भामती देवी का शरीर ही नहीं, बच्चों को देखकर मन भी स्वस्थ हुआ था। नर्सिंग होम के वातानुकूलित बड़े कमरे से बेटे के फार्म हाउस वाली कोठी में आकर बिल्कुल भली-चंगी हो गईं। उनके साथ बच्चे भी खुश। हर पल उनका ध्यान रखतीं बहुएं, पोते-पोतियां और बेटे घर में कार्यरत नर्स को सेवा का कहां समय देते थे। सेवा और सामान की, मांगने से पूर्व ही पूर्ति हो जाती थी। किसी चीज का अभाव नहीं। पर उस भरे-पूरे माहौल में भामती देवी की स्मृतियां छोटे बेटे सुभाष की तंग जिन्दगी की बानगियां परोस देतीं। इसलिए खाद्य पदार्थों से भरी कटोरियों द्वारा पूर्ण हुए समृद्ध थाल के ऊपर घिसी-पिटी थाली में एक सब्जी और चार सूखी रोटियों का वजूद हावी हो जाता। कभी-कभी वह सब्जी भी नदारद। अचार के साथ खाई जाती थीं रोटियां। सामने रखी उस भरी थाली के व्यंजनों का स्वाद ही बेस्वाद हो जाता।

दोनों बेटे मां के साथ ही खाना खाने बैठते थे। कभी बड़ा तो कभी छोटा पूछता-'मां! बड़ियों वाली सब्जी कैसी लगी?'

'मां! दही-बड़े तुम्हारे हाथ वाले जैसे बने कि नहीं?'

भामती मानो सोते से जागती- 'हूं! क्या? क्या पूछा?'

'दही-बड़े कैसे लगे?' रमण पूछता।

भामती ने स्वाद चखा नहीं था। मानो उसकी जिह्वा ने अपना धर्म छोड़ दिया हो। उसका पेट भर जाता था, इतना ही क्या कम था।

चटाई पर चादर बिछा कर लेटने की अभ्यस्त भामती को वातानुकूलित घर के मोटे गद्देदार बिछावन पर नींद नहीं आती थी। वह जबरन अपने मन पर भाव उतारती-'मेरे बेटों के घर लक्ष्मी विराज रही हैं। मुझे खुश होना चाहिए। लक्ष्मी का अपमान मुझे नहीं करना। लक्ष्मी की कृपा से मिली चीजों का मन से स्वागत न करना भी उनका अपमान ही होगा। दूसरी बात कि मैं ही तो बच्चों के लिए धन-वैभव मांगती रही हूं। दो बेटों को मिला, फिर मैं क्यों न आनंदित होऊं?'

पर वह बांध नहीं पाती थी अपने व्यग्र मन को। उसका मन तो उस कोठी के विभिन्न द्वारों पर तैनात सुरक्षा गार्डों की लक्ष्मण रेखाएं लांघता पलक झपकते सुभाष की तंग रिहायश में पहुंच कर ही दम लेता था।

उसके बेटे-बहुएं ही नहीं, पोते-पोतियां भी भामती का खोयापन समझ रही थीं। एक दिन बड़े बेटे ने पूछ ही लिया-'क्यो मां! आपको यहां रहना अच्छा नहीं लगता? आपको किस बात की कमी है, बोलिए! मैं पूरी करूंगा। मेरे रहते मेरी मां को कोई अभाव नहीं रहना चाहिए।'

भामती चुप रही। अव्वल तो उसे स्वयं पता नहीं था कि किस चीज की कमी है उसे। इसलिए अपने बेटे से क्या कहे?

एक दिन मोनिका ने पूछा- 'मां जी! हम सब आपको पाकर बहुत खुश हैं। आप यहां क्यों नहीं रहतीं? आपको किस बात का कष्ट है?'

यह सवाल तो बच्चों ने भी किए थे। जवाब अपने अंदर टटोलती भामती मौन रही थी। अब उसे जवाब मिल गया था। बोली- 'बहू! तुम भी अब दो बड़े बच्चों की मां हो। इसलिए तुम मेरा दर्द समझ पाओगी। मुझे यहां सब तरह से आराम मिला है। यहां तो सब कुछ है। ईश्वर करे तुम लोग जीवन में जरूरत से भी ज्यादा सुख-ही-सुख पाओ। परंतु मैं सुभाष के पास ही रहना चाहती हूं। यहां मेरा मन नहीं लगता। मैंने अपने मन को समझाने की बहुत कोशिश कर ली। मुझे दरियागंज पहुंचा दो। मैं वहीं जिऊं-मरूंगी।'

पीछे खड़े अपने बेटे की उपस्थिति से बेखबर थी भामती। रमण बोला-'मां! ये सारी सुख-सुविधाएं छोड़कर आप उस नरक में जाना चाहती हैं। कमाल है। आपका मन सुभाष के बिना नहीं लगता तो उसे ही सपरिवार यहां बुला लें। यहां दस परिवार और आकर रहें। हमें क्या फर्क पड़ता है।'

भामती नि:शब्द हो गई। रमण का यह प्रस्ताव भी नया नहीं था। कई बार उसने भी सुभाष से कहा। सुभाष को भी अपने भाई-भाभियों से कोई गिला नहीं। पर उसकी खुद्दारी आड़े आ जाती है, जिसका सम्मान भामती भी करती है। मां को चुप देखकर सारस्वत बोला- 'मां! आपका मन हमें छोड़ जाने का ही करता है। इसका मतलब कि आप हमारे लिए अत्यंत कठोर हैं।'

'नहीं बेटा। मेरा दिल कहता है कि मैं सुभाष के पास ही रहूं। वह इसलिए कि तुम लोग सुखी हो। सुभाष अभाव में है। मैं उसके अभाव की पूर्ति तो नहीं, पर शक्ति अवश्य बनना चाहती हूं। उसके साथ लक्ष्मी नहीं तो क्या, मैं तो रहूंगी न। बेटा! मां तो नदी होती है। ऊपर से नीचे बहती है। पहाड़ से ढलान की ओर ही जाती है। मुझे भी जाने दो सुभाष के पास।' सारस्वत को मां के आग्रह का पालन  करना ही पड़ा।

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

अर्थ जगत: कर्ज न बने मर्ज, लोन के दलदल में न फंस जाये आप; पढ़िये ये जरूरी लेख

जर्मनी में स्विमिंग पूल्स में महिलाओं और बच्चियों के साथ आप्रवासियों का दुर्व्यवहार : अब बाहरी लोगों पर लगी रोक

सेना में जासूसी और साइबर खतरे : कितना सुरक्षित है भारत..?

उत्तराखंड में ऑपरेशन कालनेमि शुरू : सीएम धामी ने कहा- ‘फर्जी छद्मी साधु भेष धारियों को करें बेनकाब’

जगदीप धनखड़, उपराष्ट्रपति

इस्लामिक आक्रमण और ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंचाया : उपराष्ट्रपति धनखड़

Uttarakhand Illegal Madarsa

बिना पंजीकरण के नहीं चलेंगे मदरसे : उत्तराखंड हाईकोर्ट ने दिए निर्देश

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

अर्थ जगत: कर्ज न बने मर्ज, लोन के दलदल में न फंस जाये आप; पढ़िये ये जरूरी लेख

जर्मनी में स्विमिंग पूल्स में महिलाओं और बच्चियों के साथ आप्रवासियों का दुर्व्यवहार : अब बाहरी लोगों पर लगी रोक

सेना में जासूसी और साइबर खतरे : कितना सुरक्षित है भारत..?

उत्तराखंड में ऑपरेशन कालनेमि शुरू : सीएम धामी ने कहा- ‘फर्जी छद्मी साधु भेष धारियों को करें बेनकाब’

जगदीप धनखड़, उपराष्ट्रपति

इस्लामिक आक्रमण और ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंचाया : उपराष्ट्रपति धनखड़

Uttarakhand Illegal Madarsa

बिना पंजीकरण के नहीं चलेंगे मदरसे : उत्तराखंड हाईकोर्ट ने दिए निर्देश

देहरादून : भारतीय सेना की अग्निवीर ऑनलाइन भर्ती परीक्षा सम्पन्न

इस्लाम ने हिन्दू छात्रा को बेरहमी से पीटा : गला दबाया और जमीन पर कई बार पटका, फिर वीडियो बनवाकर किया वायरल

“45 साल के मुस्लिम युवक ने 6 वर्ष की बच्ची से किया तीसरा निकाह” : अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश

Hindu Attacked in Bangladesh: बीएनपी के हथियारबंद गुंडों ने तोड़ा मंदिर, हिंदुओं को दी देश छोड़ने की धमकी

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • धर्म-संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies