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आजादी के बाद के दो भारत-डा. अश्विनी महाजन

by
Aug 16, 2012, 12:00 am IST
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दिंनाक: 16 Aug 2012 19:33:49

 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के द्वारा एक 'बहुआयामी गरीबी सूचकांक' विकसित किया गया है, जिसके अनुसार भोजन ही नहीं बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर जिसमें बिजली, पेयजल, सफाई, ईंधन, परिसंपत्तियां इत्यादि को भी शामिल किया गया है। यह बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) 104 देशों के 520 करोड़ लोगों के लिए बनाया गया है, जिसमें 170 करोड़ लोग गरीब माने गये हैं। भारत में जहां सरकारी परिभाषा के अनुसार वर्ष 2009-10 में मात्र 30 प्रतिशत लोग ही गरीबी की रेखा से नीचे माने गये हैं, इस व्यापक परिभाषा के अनुसार (वर्ष 2000 से 2008 के बीच) 53.5 प्रतिशत लोग गरीब माने गये हैं। इसके अतिरिक्त 16 प्रतिशत से भी अधिक लोग गरीबी के खतरे में हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि 37.5 प्रतिशत लोग शिक्षा के अभाव, 56.5 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव और 58.5 प्रतिशत लोग जीवन स्तर के अभावों से ग्रस्त माने गये हैं। बहुआयामी गरीबी सूचकांक की दृष्टि से भारत में यह सूचकांक 0.296 माना गया है, जबकि मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भारत से भी नीचे के कई देश गरीबी सूचकांक में भारत से भी कहीं बेहतर स्थिति में हैं। इसका अभिप्राय यह है कि मानव विकास सूचकांक भी वास्तव में बहुआयामी गरीबी को परिलक्षित नहीं     करता है।

केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा वर्ष 2011-12 के लिए प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार देश में चालू कीमतों पर प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 60,603 रुपये तक पहुंच चुका है। यदि स्थिर कीमतों पर प्रति व्यक्ति आय की संवृद्धि दर देखी जाए तो पाते हैं कि दसवीं पंचवर्षीय योजना में 6.1 प्रतिशत वार्षिक की दर से और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 6.2 प्रतिशत वार्षिक की दर से प्रति व्यक्ति आय बढ़ी। यदि इन दो पंचवर्षीय योजनाओं यानी 10 वर्षों का लेखा-जोखा लें तो पाते हैं कि प्रति व्यक्ति आय पिछले 10 वर्ष में चालू कीमतों के आधार पर 3.4 गुना और स्थिर कीमतों के आधार पर भी 1.8 गुना बढ़ गई। लेकिन यदि आमलोगों के जीवन स्तर की बात करें तो देखतें हैं कि उनका जीवन उस अनुपात में बेहतर नहीं हो रहा। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 6 से 35 महीनों के आयु वर्ग के 79 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी पाई गई और 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग में 56 प्रतिशत विवाहित महिलाओं में खून की कमी पाई गई। 38 प्रतिशत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से ठिगने थे और 3 वर्ष की आयु से कम के 46 प्रतिशत बच्चे अपनी आयु के हिसाब से हल्के थे। 58 प्रतिशत लोग अभी भी पीने योग्य पानी के अभाव से ग्रस्त हैं।

शहरों की तड़क-भड़क वाली जिन्दगी, सरपट दौड़ती लम्बी कारों, 10-20 हजार रुपये प्रतिदिन किराए वाले 5 सितारा होटलों, बड़े-बड़े मॉलों को यदि देखें तो गरीबी के इस भयावह चित्र को समझना और जरूरी हो जाता है। एक ओर 1 अरब डॉलर से अधिक दौलत रखने वाले लगभग 50 व्यक्ति और 20 लाख सालाना से ज्यादा आमदनी वाले उच्च-मध्यम श्रेणी के लगभग 4 लाख लोग तो शायद इन सुविधाओं का कमोवेश लाभ उठाने की स्थिति में हैं, लेकिन अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की यदि मानें तो लगभग 77 प्रतिशत लोग जो 20 से कम रुपये में गुजारा करते हैं, तो उन्हें एक दिन में 2 जून तो क्या एक बार का अच्छा भोजन भी नसीब नहीं है। जाहिर है कि उनके परिवार वाले भोजन के अभाव में अपने शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते।

विकास का गलत पैमाना

प्रधानमंत्री हो या अन्य नीति-निर्माता लगातार विकास का सारा दारोमदार सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) की वृद्धि पर मानते हैं। उनका मानना है कि यदि जीडीपी 9 प्रतिशत तक बढ़ जाए तो देश की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। इसलिए जीडीपी को विकास का पैमाना मान लिया जाता है। हम देखते हैं कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान आर्थिक संवृद्धि की दर लगभग 8 प्रतिशत रही, लेकिन उसके बावजूद देश में लगभग 30 प्रतिशत लोग अभी भी गरीबी की रेखा से नीचे हैं। वर्ष 2004-05 और 2009-10 के बीच मात्र 20 लाख से भी कम अतिरिक्त रोजगार का सृजन हो पाया। स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों के अनुसार कुपोषण के संदर्भ में यथास्थिति बनी हुई है। यानि जीडीपी ग्रोथ के बावजूद मानव विकास में स्थितियां बेहतर नहीं हो रहीं। इसका कारण यह है कि एक ओर तो असमानताएं बढ़ रही हैं तो दूसरी ओर अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जो देशवासियों के लिए खाद्य सुरक्षा दिला सकता है, उपेक्षित पड़ा हुआ है। कृषि क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था के रोजगार में 60 प्रतिशत हिस्सा रखता है, विकास की इस तथाकथित प्रक्रिया से पूर्णतया अछूता पड़ा है। 1980-81 में कृषि क्षेत्र जीडीपी में 38 प्रतिशत योगदान देता था, अब मात्र 13.9 प्रतिशत ही योगदान दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'द इकॉनोमिस्ट' लिखती है कि ऐसा लगता है कि भारत की आर्थिक वृद्धि की कहानी का अंत होने जा रहा है। गौरतलब है कि दुनिया के अर्थशास्त्री भारत की नीची विकास दर को अपमानबोधक 'हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ' का नाम दिया करते थे। दुनिया में देश की आर्थिक ताकत का डंका बजाने के लिए जरूरी है कि हमारे नीति निर्माता विकास के पैमाने को सही करें। केवल जीडीपी ग्रोथ नहीं सभी क्षेत्रों में एक सा विकास, खाद्य सुरक्षा, गरीबी और बेरोजगारी का निराकरण ही हमारे विकास को स्थाई बना सकते हैं।

गरीबी का कारण

2011-12 के लिए अनुमानित प्रति व्यक्ति आय, जो 60,603 रुपये प्रतिवर्ष है, यदि सभी देशवासियों को बराबर मात्रा में मिली होती तो शायद देश में गरीबी का नामो निशान मिट जाता। वर्तमान परिस्थिति में ऐसा अपेक्षित भी नहीं है, लेकिन फिर भी देश की प्रगति के साथ ऐसी अपेक्षा स्वभाविक ही है कि बढ़ती आमदनियों का एक बड़ा हिस्सा गरीब लोगों को मिले और उनके जीवन स्तर में सुधार हो। लेकिन भूमंडलीकरण और निजीकरण के इस दौर में ऐसा होता नहीं है। असमानताओं को मापने का एक सूत्र गिनी चरांक के रूप में माना जाता है। 1990-91 से 2007 के बीच बढ़ती असमानताओं का सूचक 0.31 से बढ़कर 0.37 हो गया। इसका मतलब यह है कि अमीरों की अमीरी तो बढ़ी लेकिन गरीबों की गरीबी नहीं घटी। 1 अगस्त 2012 को राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 और 2011-12 के बीच के दो वर्षों में असामनताएं और भी भयंकर रूप से बढ़ गई। अधिकतम आय प्राप्त करने वाली 10 प्रतिशत जनसंख्या और न्यूनतम आय प्राप्त करने वाली 10 प्रतिशत जनसंख्या के बीच आमदनियों का अनुपात ग्रामीण क्षेत्रों में 2009-10 में 5.8 से बढ़ता हुआ 2011-12 में 6.9 पहुंच गया और शहरी क्षेत्रों में यह 10.1 से बढ़ता हुआ 10.9 पहुंच गया। इसका अभिप्राय यह है कि ऊपरी 10 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में नीचे के 10 प्रतिशत लोगों से औसत 6 गुना अधिक आमदनी प्राप्त करते हैं और शहरी क्षेत्रों में 11 गुना ज्यादा।

हाल ही में देश ने मजदूरों का गुस्सा महसूस किया है। जिस प्रकार की हिंसा हुई उसे कोई सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन सभ्य समाज से ऐसी भी अपेक्षा नहीं है कि वह कामगारों के शोषण को मूकदर्शक के रूप में देखता रहे। भूमंडलीकरण के इस दौर में ठेके पर मजदूर रखने की परंपरा शुरू हो चुकी है। नियमित मजदूर और कामगार अब लगभग नहीं रखे जाते। सफाई कर्मचारी हों, गार्ड हों, ड्राइवर अथवा यहां तक कि बाबू भी अब ठेके पर ही रखे जाते हैं। विनिर्माण क्षेत्र में अब अधिकतर काम सहायक इकाइयों द्वारा करवा लिया जाता है, जहां लघु उद्यमी ठेके के मजदूरों से ही सब काम करवा लेते हैं। नियमित कर्मचारी जैसे-जैसे सेवानिवृत्त होते जाते हैं, नई भर्ती सभी ठेके के कामगारों की ही हो रही है। ये कामगार सामान्यत: किसी भी प्रकार के श्रम कानूनों के अंतर्गत नहीं आते और इस कारण उनका हड़ताल करते हुए कोई लाभ लेना संभव ही नहीं है। प्रबंधन के साथ किसी भी प्रकार का विवाद उनकी नौकरी ही समाप्त कर देता है।

केवल यही नहीं कि ठेके पर कर्मचारी रखकर श्रम के शोषण को बढ़ावा दिया जा रहा है, कर्मचारियों को छंटनी का डर दिखाकर उनकी मजदूरी को कम रखने का भी प्रयास आमतौर पर होता है। भूमंडलीकरण के इस दौर में इस प्रकार के शोषण में खासी वृद्धि हुई है। आंकड़े बयान करते हैं कि उद्योगपतियों का लाभ जो 1989-90 में कुल निवल उत्पादन का मात्र 19 प्रतिशत ही होता था, वह 2009-10 में बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गया। श्रमिकों और अन्य कार्मिकों का हिस्सा इस कालखंड में 78.4 प्रतिशत से घटता हुआ मात्र 41 प्रतिशत ही रह गया। यह इस बात का द्योतक है कि लाभों को बढ़ाने की लालसा के चलते उद्योगों से श्रमिकों को दी जाने वाली राशि खासी घटा दी गई।

घटिया होता रोजगार

नमूना सर्वेक्षण संगठन समय-समय पर रोजगार और बेरोजगारी से संबंधित रपट प्रस्तुत करता है। इसके 66वें दौर की रपट के अनुसार 2004-05 और 2009-10 के बीच आकस्मिक श्रमिकों की संख्या में 219 लाख की वृद्धि हुई। पिछले दौर की तुलना में यह वृद्धि काफी ज्यादा है। स्थायी यानी वेतन पाने वाले श्रमिकों की बात कहें तो 2009-10 के दौर में यह वृद्धि पूर्व से आधी यानी मात्र 58 लाख की ही थी। स्वरोजगार युक्त श्रमिकों जिसमें अधिकतर किसान, लघु और कुटीर उद्योगपति और व्यापारी आते हैं; की संख्या में 251 लाख की कमी दर्ज की गई।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब आकस्मिक रोजगार वाले श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है तो रोजगार का स्तर घटता है और श्रमिकों के जीवन स्तर में कमी आती है। प्रतिशत आधार पर देखें तो पाते हैं कि 1993-94 में ग्रामीण क्षेत्रों में आकस्मिक रोजगार केवल 35.6 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 18.3 प्रतिशत था। 2009-10 में यह ग्रामीण क्षेत्रों में 38.6 प्रतिशत पहुंच गया और शहरी क्षेत्रों में यह 17.5 प्रतिशत रहा। 2004-05 की तुलना में 2009-10 में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आकस्मिकता वाला रोजगार तेजी से बढ़ा है। गौरतलब है कि यह प्रतिशत 2004-05 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 35.0 और 15.1 प्रतिशत ही था।

नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के पैरोकार तो यह मानने के लिए कभी तैयार ही नहीं होते कि इस आर्थिक नीति में कुछ गलत भी हो सकता है। वे तो लगातार बढ़ती आर्थिक संवृद्धि का दंभ भरते हैं। गौरतलब है कि रोजगार में घटियापन उन्हीं वर्षों में सबसे ज्यादा बढ़ा जब आर्थिक संवृद्धि सबसे ज्यादा तेज थी। 2004-05 और 2009-10 में आर्थिक संवृद्धि की दर औसत रूप में 8 से 9 प्रतिशत रही, जबकि पूर्व के वर्षों में वह उससे कहीं कम थी। लेकिन पूर्व के वर्षों में आकस्मिक रोजगार घटा था। आम तौर पर माना जाता है कि आर्थिक संवृद्धि के साथ रोजगार भी बढ़ता है। लेकिन वर्तमान आर्थिक संवृद्धि अभी तक रोजगार विहीन आर्थिक संवृद्धि ही मानी जाती है, क्योंकि इसमें जीडीपी तो बढ़ी लेकिन रोजगार नहीं। पिछले पांच वर्षों में रोजगार में पहले से थोड़ी ज्यादा वृद्धि देखने को मिली, लेकिन वह रोजगार स्तरीय रोजगार नहीं था। वास्तव में इस कालखण्ड में कम मजदूरी वाला आकस्मिक रोजगार ही बढ़ा। यदि हम इस आर्थिक संवृद्धि की तस्वीर देखते हैं तो इस बात का उत्तर साथ ही साथ मिल जाता है। इस आर्थिक संवृद्धि में हमारी आधी से अधिक आबादी, जो कृषि पर निर्भर करती है, की कोई भागीदारी नहीं थी। जबकि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में 8 से 12 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, कृषि की स्थिति शोचनीय ही बनी रही और उसमें मात्र शून्य से तीन प्रतिशत (औसतन 2 प्रतिशत) संवृद्धि दर्ज की गई।

कृषि की अनदेखी

चूंकि औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन 2005-06 से 2010-11 के दौरान औसतन 8.3 प्रतिशत प्रति वर्ष बढ़ा, इसलिए औद्योगिक वस्तुओं में मुद्रा स्फीति की दर कम रही। लेकिन कृषि उत्पाद और विशेषतौर पर खाद्य पदार्थों में देश इतना भाग्यशाली नहीं रहा और इसका खामियाजा ऊंची खाद्य वस्तुओं की कीमतों के रूप में गरीब आदमी को भुगतना पड़ा। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा स्फीति को रोकने के लिए जो प्रयास होते हैं, वे अनुपयुक्त भी हैं और अपर्याप्त भी। ऐसा इसलिए है कि भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा की पूर्ति को कम करने के लिए प्रयास करता है, ताकि महंगाई पर लगाम कसी जा सके। लेकिन खाद्य पदार्थों में मुद्रा स्फीति कम करने के लिए जरूरत इस बात की है कि कृषि उत्पादन, विशेषतौर पर खाद्य पदार्थो का उत्पादन बढ़ाया जाए।

देश की वर्तमान स्थिति में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध दिखाई देती है। सरकार में बैठे लोग लगातार विकास की रफ्तार तेज करने की बात करते रहते हैं। आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के इस सरकारी जुनून ने देश की आम जनता को त्रस्त किया है। वास्तव में सरकार का पूरा ध्यान कृषि के अलावा दूसरे क्षेत्रों के विकास में ज्यादा है। जिसका असर कृषि में होने वाले पूंजी निवेश पर भी पड़ा है और अंततोगत्वा हमारा कृषि उत्पादन अब बढ़ने के बजाय घटने लगा है। कुछ वर्ष पहले तक अनाज में आत्मनिर्भर देश अब दुनिया के दूसरे मुल्कों से आनाज आयात करने के लिए बाध्य हो रहा है।

देश वास्तव में कृषि के संबंध में आपात स्थिति से गुजर रहा है। लेकिन सरकार द्वारा कृषि के विकास की कोई योजना दिखाई नहीं देती। बल्कि आग में घी का काम करते हुए सरकारी नीतियों के तहत बड़ी मात्रा में उपजाऊ भूमि को उद्योग, विशेष आर्थिक क्षेत्र अथवा किसी अन्य नाम से गैर कृषि कार्यों के लिए लगाया जा रहा है। अंतरिक्ष से लिये गये चित्रों के अनुसार हरित भूमि लगातार घट रही है और उस पर कंकरीट के जंगल बन रहे हैं। लेकिन हमारे नीति निर्माता इस आपात स्थिति से निपटने के लिए तैयार दिखाई नहीं देते।

कुप्रबंधन बनाम सुप्रबंधन

स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों से यूपीए सरकार के द्वारा जो आर्थिक नीतियां अपनाई जा रही हैं, उससे महंगाई तो बढ़ी ही है साथ ही विकास की संभावनाएं भी उत्तरोत्तर कम हो रही हैं। आम आदमी केवल खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई से ही नहीं बल्कि पेट्रोल, डीजल और गैस की भयंकर रूप से बढ़ती कीमतों से भी त्रस्त हैं। एनडीए सरकार के समय से घटती ब्याज दरों के कारण जिन लोगों ने कम ईएमआई के आर्कषण में घर और अन्य साजो समान खरीदे, अब बढ़ती हुई ईएमआई के कारण परेशान हैं।

देश का दवा उद्योग हो अथवा खुदरा व्यापार अथवा खनिज भंडार सभी विदेशियों को सौंपे जा रहे हैं। विदेशी निवेश आधारित विकास के पैरोकार आम आदमी की कठिनाइयों के प्रति पूर्णतया संवेदनहीन हो चुके हैं। भारी भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के मद्देनजर एक देशभक्त और ईमानदार सरकार की  आवश्यकता है। यदि खेती पर ध्यान देते हुए खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ा दी जाए, पेट्रोलियम कंपनियों पर अंकुश लगाते हुए पेट्रो कीमतों पर नियंत्रण हो और महंगाई पर काबू रखते हुए ब्याज दरों को नीचा रखा जाए तो भारत कहीं बेहतर ढंग से विकास के रास्ते पर चल सकता है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जो अपने विकास के लिए दुनिया के दूसरे मुल्कों से मांग पर आश्रित नहीं है। हमारी अभी तक की आर्थिक संवृद्धि घरेलू मांग से पोषित है। ऐसे में जब अमरीका और यूरोप के देश आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो रहे हैं, जिसके चलते चीन के निर्यातों की मांग घट रही है। यदि हम अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ठीक प्रकार से कर सके तो भारत प्रगति की राह पर निरंतर बढ़ता जायेगा। सरकार को विदेशी निवेश के मोह को त्यागते हुए देश की प्रज्ञा और युवाओं के कौशल पर विश्वास दिखाते हुए अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देनी होगी।

इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि बहुआयामी गरीबी के संदर्भ में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है। वास्तव में हम देखते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने खासी प्रगति की है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 74 प्रतिशत लोग आज साक्षर हैं। पुरुषों में साक्षरता वर्ष 2001 में 75.3 से बढ़कर अब 82.14 प्रतिशत हो गई है। महिलाओं में भी साक्षरता 53.7 प्रतिशत से बढ़कर 65.5 प्रतिशत हो गई है। हालांकि स्वास्थ्य के सूचक के रूप में हमारे देश में प्रत्याशित आयु भी बढ़ी है, हालांकि स्वास्थ्य की सुविधाओं की स्थिति अभी भी अच्छी नहीं है। आज जरूरत इस बात की है कि गरीबी और बेरोजगारी को बढ़ाने वाले विकास के गलत मापदंडों को त्याग कर हम विकास का एक ऐसा रास्ते चुनें जिसमें सभी को यथायोग्य उत्पादक रोजगार मिले। देश पर विदेशियों का प्रभुत्व बढ़ाने वाले विदेशी निवेश का मोह त्याग कर देश के संसाधनों और देश की प्रज्ञा के आधार पर उत्पादन का ऐसा तंत्र विकसित किया जाये, जहां देश की मानसिकता के अनुसार स्वरोजगार को बढ़ावा मिले। आमदनियों का यथा संभव बराबरी के आधार पर वितरण हो। कृषि के विकास पर बल हो, ताकि गांवों में बसने वाली हमारी 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का जीवन स्तर तो सुधरे ही, साथ ही देश के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

(लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

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